गुरू के दिव्य कार्य हेतु शिष्य को मन, वचन और कर्म में बहुत ही पवित्र रहना चाहिये। गुरुभक्तियोग एक स्वतंत्र योग है।सद्गुरू के पवित्र चरणों में आत्मसमर्पण करना ही गुरुभक्तियोग की नींव है। अगर आपको सद्गुरू के जीवनदायक चरणो में दृढ श्रद्धा एवं भक्तिभाव होगा तो आपको गुरुभक्तियोग के अभ्यास में अवश्य सफलता मिलेगी।जब स्वामी राम 7 वर्ष के थे तो बनारस के पंडित तथा ज्योतिषी लोग उनका भविष्य बताने के लिये उनके एक संबंधी के घर बुलाये गये। बालक राम द्वार के बाहर खडे़ होकर अपनी भविष्यवाणी सुनने को इच्छुक हो रहे थे।वे पंडित बोले यह बालक 28 वर्ष की अवस्था में मृत्यु को प्राप्त होगा तथा मृत्यु का निश्चित समय भी बता दिया। यह सुनकर राम सिसक-2 कर रोने लगे कि वह इनती अल्प आयु में ही मर जायेंगे और जीवन का लक्ष्य पूरा नहीं कर पायेंगे।इतने में सहसा उनके सद्गुरू बंगाली बाबा वहाँ पधारे और बालक राम के रोने का कारण पूछा। राम ने उन ज्योतिषियों की ओर इशारा करके कहा कि ये लोग कह रहे हैं कि 28 वर्ष की अवस्था में उनकी मृत्यु हो जायेगी। बाबा, राम का हाथ पकड़कर ज्योतिषियों के पास ले गये और बोले,”क्या आप लोग यह सच कह रहे हैं कि इस बच्चे की 28 वर्ष की अवस्था में मृत्यु हो जायेगी?” वे सभी पंडित एक स्वर में बोले,”हाँ ! 28 वर्ष के इस निश्चित समय पर इस बालक की मृत्यु होगी तथा कोई भी इसे नहीं बचा सकता।”बंगाली बाबा राम की ओर मुड़कर बोले कि, “राम, तुमसे पहले ये सभी ज्योतिषगण मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे और तुम दीर्घकाल तक जीवित रहोगे, क्योंकि मैं तुम्हे अपनी आयु देता हूँ।” ज्योतिषी बोलेेे,”यह कैसे संभव है?”बाबा ने कहा ,”आपकी भविष्यवाणी असत्य है, ऐसा नहीं है। परन्तु ज्योतिष से परे भी कुछ होता है। यदि सद्गुरू देने की ठान ले तो शिष्य को पूरी त्रिलोकी दे सकते हैं।” चिंता मत करो राम, किन्तु याद रखना, तुम्हे उस निश्चित समय पर मृत्यु का सामना करना पड़ेगा। उस समय मैं सहायता करूंगा।इसके बाद मध्य के वर्षो में स्वामी राम यह सब भविष्यवाणी की बाते भूल गये। जब स्वामी राम 28 वर्ष के हुए तो एक दिन बाबा ने ऋषिकेश से 60 मील दूर 11हजार फीट ऊंची एक विशिष्ट पहाड़ी पर जाकर राम को साधना करने के लिये कहा।उन दिनो राम के पास खड़ाऊ, लंगोटी और एक शॉल तथा करमंडल के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। गुरू की आज्ञा को शिरोधार्य कर स्वामी राम स्रोतों का गान करते हुए निःस्वच्छंद रूप से पहाड़ो में विचरण करते हुए साधना करने लगे।पर्वत ही अब स्वामी राम के घर बन गये। 20 हजार फीट तक ऊंचे पर्वतों का आरोहण उन्होने किया था और बिना किसी आधुनिक उपकरण की सहायता से। किसी भी पर्वत का आरोहण करने का दृढ़ साहस उनमें था।एक दिन स्वामी राम सीधे खड़े उत्तन्ग शिखर के किनारे-2 स्त्रोत पाठ करते हुए, टहलते हुए चले जा रहे थे। अचानक वृक्षों के पत्तों पर से पैर फिसला और वे पहाड़ से नीचे गिरने लगे। राम ने सोचा कि जीवन का अब यही अवसान है, क्योंकि ज्यों ही वे लुड़कते-गिरते लगभग 500 फीट नीचे पहुंचे कि सहसा एक छोटी सी कटीली झाड़ी में जाकर फँस गये। झाड़ी की एक नुकिली शाखा उनके पेट में जा घुंसी और वे उसी में उलझ गए।उस झाड़ी के बाद सैकड़ों फीट गहरी खाई भी थी और उधर राम के भार के कारण झाड़ी नीचे झुकने लगी। उन्होंने पहाड़ और पुनः सैकड़ों फीट नीचे गंगाजी को देखा। अपने नेत्र बंद कर लिये और पुनः खोले तो पेट से रक्त बहता हुआ दिखाई दिया, किन्तु मृत्यु भय की तुलना से वह पीड़ा कुछ भी नहीं मालूम पड़ी। भयंकर मृत्यु की भावी घटना याद करके उन्होने उस घाव पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। उन्होने अपने सभी मंत्रो का उच्चारण किया।अपने धैर्य का परीक्षण करना उन्होने आरंभ किया कि सहसा उन्हे गुरू का ज्ञान याद आया कि,”वे तो नहीं मरते। वे शरीर नहीं वे आत्मा है और आत्मा तो अमर है। मृत्यु शरीर का धर्म है। वे नित्य एवं अमर है। तो भय क्यूँ?” वे स्वयं को शरीरभाव से परे देखने लगे। राम उस झाड़ी पर लगभग 20 मिनिट तक लटके रहे।उस समय उन्हे अपने गुरुदेव की यह बात याद आई कि, “वैसे यह आदत मत बना लो तथापि जब भी कभी आवश्यकता पड़े तो मुझे याद करना, किसी ना किसी रूप में, मैं तुम्हारे पास पहुंच जाऊंगा।” स्वामी राम ने सोचा कि मैं अपनी साहस की परीक्षा कर चुका। अब मुझे अपने गुरुदेव की परीक्षा कर लेनी चाहिये। यह बात बड़ी ही सूक्ष्म है कि,”शिष्य सदा ही अपने गुरू की परीक्षा लेना चाहता है।अपनी निर्बलता का सामना न करते हुए वह गुरू का ही छिद्रानुवेशन करता है।”अत्याधिक रक्तस्त्राव के कारण उन्हे मूर्च्छा आने लगी। आँखों के सामने अँधेरा छाने लगा और चेतना समाप्त होने लगी। उसी समय ऊपर मार्ग पर राम को कुछ स्त्रियों के शब्द सुनाई पड़े। वे पहाड़ो में घास और लकड़ियाँ इकठ्ठा करने आई थी। उन स्त्रियों ने राम को ऊपर खींचकर जमीन पर रख दिया और पूछा,”क्या तुम टहल सकते हो? चल सकते हो?” राम ने कहा ,”हाँ!”उन्होने पहले तो सोचा था कि इतना गंभीर घाव नहीं होगा। उन स्त्रियों ने सोचा कि ये साधु है, अतः बिना उनकी सहायता के ही अपनी देखभाल कर लेंगे। अतः उन्होने कहा कि,” यही मार्ग पकड़कर सीधे चलते जाओ जब तक गाँव ना आ जाए।” वे स्त्रियाँ वहाँ से चली गयी। स्वामी राम ने चलने का प्रयास किया परन्तु कुछ ही मिनिट में मूर्छित होकर जमीन पर गिर पडे़।उन्होने मन ही मन कहा कि, “मेरा जीवन समाप्त हो गया और वह अपने गुरुदेव को याद करते हुए सोचने लगे कि गुरुदेव आपने मेरा पालन-पोषण किया। मेरे लिए सबकुछ किया किन्तु आज मैं बिना आत्म अनुभूति के ही मर रहा हूँ। आपकी समस्त मेहनत को मैंने पानी में मिला दिया।”सहसा बंगाली बाबा वहाँ प्रगट हो गये। राम ने सोचा कि शायद उनका मन उनके साथ धोखा दे रहा है, उनका भ्रम है। वे बाबा से बोले,”क्या आप सही में यहाँ पर हैं? मैं तो सोच रहा था कि आपने मुझे त्याग दिया है। शायद आप मुझे भूल गये हैं।”बाबा ने कहा,”तुम चिंतित क्यों हो रहे हो? तुम्हे कुछ भी नहीं होगा।मैंने तुमको वचन दिया था कि मैं तुम्हारी इस घड़ी में सहायता करुँगा। क्या तुम्हे याद नहीं कि ज्योतिषियों के द्वारा बहुत पहले बताया गया तुम्हारी मृत्यु का यही दिन और समय है? इसके बाद तुम्हे अब कभी भी मृत्यु का सामना नहीं करना पड़ेगा। अब तुम पूर्णतया ठीक हो जाओगे।”स्वामी राम में धीरे-2 चेतना का संचार हुआ। बाबा कुछ पत्तियां लाकर, उन्हे कुचलकर राम के घावपर रख दिये और उन्हे एक पार्श्ववर्ती गुफा में ले गये और वहाँ कुछ लोगो को उनकी देखभाल करने को कह दिया।बाबा बोले कि,”यहां तक कि मृत्यु को भी टाला जा सकता है, शिष्य के कल्याणार्थ!” यह कहकर वहाँ से वे चले गये। दो सप्ताह में स्वामी राम के पेट का घाव ठीक हो गया।इस अनुभव से स्वामी राम लिखते हैं कि,”उन्हे ज्ञात हुआ कि किस प्रकार एक सच्चे, समर्थ एवं स्वार्थरहित गुरू दूर रहकर भी अपने शिष्य का ख्याल रखते हैं।उन्हे यह साक्षात अनुभव हुआ कि गुरू और शिष्य के बीच का संबंध एक उच्चतम एवं पवित्र संबंध होता है। यह संबंध अवर्णनीय है।”