हमारा व्‍यवहार कैसा हो?

हमारा व्‍यवहार कैसा हो?


हम सोचते थे कि कोई कैसा भी व्यवहार करें हमको तो ईश्वर के लिए, गुरु के लिए.. बस कोई कैसा भी करे व्यवहार, हम तो ईश्वर के लिए हैं। यह जरूरी नहीं कि हम घर छोड़ के गुरुद्वार गये अथवा कहीं गये तो सब लोग हमारे मन के अनुकूल चले । यह तो संभव भी नहीं है। ऐसा हम समझते थे, तो फिर कई विघ्न आये और गुरुजी को हमारे लिए कुछ का कुछ बता देते थे और हमको कुछ का कुछ लगा देते थे, जाओ पानी भर के आओ, पहाड़ से, नीचे से पहाड़ पर ले आओ, जाओ पानी भरते आना, सब्जी भी लेते आना । पानी इधर, सब्जी इधर और… दूध भी लेते आना।

          और फिर देर पहुँचे तो गुरु को बोले डेढ़ घण्टा लग गया। फिर एक बार हम बाल्टियाँ लेकर पानी भर के आये और दूध का करमण्डल भी था तो दो बाल्टियाँ, बीच मे दूध का करमण्डल, तो जब पहाड़ी से चलना है तो थोड़े दूध की कुछ बूँदे गिर गयी होगी पानी में।  तो वो पानी की बाल्टी में दूसरा दूध डालकर जाकर गुरुजी को बताया कि देखो ये पानी भर के आया उसमें दूध ढोलकर आया । वो दिन भी गुजर गए।  गुरु तो गुरु होते हैं और कभी-कभार… । अन्तर्यामी हर समय तो ध्यान नहीं लगाते थे।  तो कभी-कभार थोड़ा-सा.. । और बाद में जब पता चलता कि अरे! इसका कसूर नहीं था फिर भी मैने डाँटा और इसके चेहरे पर शिकन नहीं पड़ी तो और उनकी दया बरसती थी, गुरुजी की ।  

एक बार मेरे को कहा कि जाओ, चायना-पीक दिखाकर आओ। और मैंने देखा नहीं था लेकिन गुरूजी ने कहा- दिखा के आओ। नैनीताल के जंगलों में बड़े पहाड़, दिन-भर की यात्रा।

चलनेवाले बोले  – ‘नहीं चलते, बरसात आ रही है’।  

मैंने कहा-  ‘मेरेको आज्ञा हुआ है, दिखाकर आना तो तुमको दिखाकर ही जाऊँगा’।

मौसम बदल गया..  ये हो गया.. और जब वहाँ गए तो मौसम खुल गया। वहाँ से बद्रीनाथ दिखा और केदारनाथ दिखा, दूरबीनों से ।

तो जब लौट के आये तो बोले- ‘साँईं, देखकर आये’।

बोले- ‘कैसे, मौसम तो खराब हो गया?’  

बोले- ‘सब लोग वापस आ रहे थे लेकिन ये आसाराम ने बोला कि हमको आज्ञा हुआ है, ऐसा करके गुरु आज्ञा पालने के बहाने हमको ले गये, ले गये।’

तो बोले- ‘जो गुरु की बात मानता है तो इसकी बात मौसम भी मानेगा, बादल भी मानेंगे’

तो ऐसा होता है।  गुरूगीता में भी लिखा है-

आजन्म कर्म कोटीनां यज्ञ जप तपः क्रिया 

ता सर्वा सुफला देवी गुरू संतोष मात्रेण ।।  

करोड़ों जन्म के यज्ञ-जप-तप तभी सफल हुए जब आत्मज्ञानी गुरु संतुष्ट हुए। गुरू नाराज हो गए तो उसके भाग्य में बाकी बचा क्या? गुरू के हृदय में ठेस लगी अथवा उसका गुरू उससे राजी नहीं है तो इंद्र भी परास्त हो गया। केवल माला का अनादर किया था और गुरू नाराज हो गए थे। गुरू असंतुष्ट हो गए थे तो दैत्यों ने दबा दिया इंद्र को, दर-दर की ठोकर खानेवाला कर दिया और जब दृष्टा प्रजापति का पुत्र विश्वरूपा… उसको रिझाया,  भगवान ने आईडिया दिया और उसपर गुरू संतुष्ट हुए तभी इंद्र फिर चमका। तो सेवा आदि…

और गुरु संतुष्ट कब होंगे?

‘जब हमारी उन्नति होगी’ ।

तो हमारी उन्नति कब होगी?  झाड़ू लगाने से होगी ?

कि हाँ ।  

ये करने से होगी ?

कि हाँ ।  

अपने व्यक्तिगत स्वार्थ छोड़कर ईश्‍वर के लिय काम करते है तो हमारी उन्नति होती है, तो गुरू संतुष्ट होते है। ओम नारायण…  नारायण, नरायण, नारायण….  

 सेवक का दर्जा आफिसर जैसा भी नहीं होता। ऑफिसर को तो प्रमोशन की लालच है। प्रमोशन का बदला है- संसार की सहूलियत। साधक  संसार की सहूलियत के लिए साधना नहीं करता, संसार की सहूलियत के लिए सेवा नहीं करता, वो तो संसार के स्वामी को वश करने के लिए सेवा करता है। अपने बस कर दीनो राम…

हनुमान ने ऐसा सेवा खोजा और ऐसा सेवा किया कि रामजी को वश कर दिया।

कह हनुमंत प्रति उपकार करौं का तोरा।

सनमुख हो न सके मुख मोरा।

हनुमानजी! मैं तुम्हारी सेवा का क्या प्रति उपकार करूँ? रामजी भी लाचार हो जाते है हनुमानजी ने ऐसा सेवा किया।

और ये तो तुमको विदित है कि एक बार सीताजी ने, भरत ने, लक्ष्मणजी ने, शत्रुघ्न ने सारी सेवा अपने-अपने जिम्मे कर दी, हनुमान को सेवा ही नहीं बची।

तो रामजी ने कहा- ‘अच्छा! जो इन्होंने नहीं खोजी हो वो ही करो!’

तो सब सेवा तो हनुमान की छीन ली गई थी तो चुटकी बजाने की सेवा हनुमान ने खोज ली और रात को कहां…

माताजी सेवा करती हो चरणचंपी तो उनके सामने बैठना, पति-पत्नी के बीच ये तो असंभव है सेवक के लिए, तो प्रभू को तो कभी-भी जम्‍हाई आ सकती है तो छत पर चले गए हनुमान और चुटकी बजाना चालू कर दिया तो रामजी का मुँह खुला रह गया।

आखिर सीताजी, कौशल्याजी, भरत, शत्रुघ्न इकट्ठे हुए…’क्या हो गया ठाकुरजी को?’

पता नहीं चला, वसिष्ठ महाराज आए, देखा कि सब है, उनका सेवक कहाँ है हनुमान?

हनुमान जहाँ हो वहाँ से आ जाए…

तो हनुमानजी तो छत पर बैठे-बैठे चुटकी बजा रहे थे कि प्रभु को कभी-भी जम्‍हाई आ सकती  है ।

हनुमान जहाँ हो आ जाए…। जम्‍प मारा, हनुमान.. चुटकी बंद हो गई बजना और रामजी का मुख बंद, जम्‍हाई के एक्शन से रूक गये।

बोले- ‘ऐसा क्या हो गया था?’

बोले प्रभु- ‘वो सेवक चुटकी बजा रहा था, जम्‍हाई न आ जाए तो उसकी चुटकी चालू.. तो मेरेको जम्‍हाई भी चालू रखनी पड़ी’

अपने बस कर दीनो रामा…

हनुमान ने कोई रामजी को क्रूर कपट से वश नहीं किया, दिखावटी सेवा से वश नहीं किया, सच्चे भाव से सेवा किया तो वश हो गये। ये सेवा में बड़ी शक्ति है ।

और कलजुग में तो सेवा-धर्म का बड़ा महात्म्य है। योगसमाधि कलजुग में सब लोग नहीं कर सकते, कोई विरला जोगी… हम तो भाई नहीं कर सकते.. हम नहीं कर सकते योगसमाधि ।  हाँ, ध्यान भजन करते है, आत्म-विचार करते है लेकिन वो समाधि का युग नहीं है। ये तो सेवा, सत्संग, विचार, जप ध्यान ये सब अपना, गाड़ी युग के अनुसार…

हवाई जहाज वाले बताते है कि इस डायरेक्शन में हवाई जहाज चलाना पड़ता है, इतनी ऊँचाई पर जाना पड़ता है।  अगर पूरब से पश्चिम जाते है तो 8000  की ऊँचाई से और पश्चिम से पूरब की तरफ जाते है तो 7000 की ऊँचाई करनी पड़ती है, उत्तर से दक्षिण जाते हैं तो 9000 और दक्षिण से उत्तर जाते हैं तो 10000 करीब करीब… तो इसके भी नियम है। जहाँ कोई सड़क नहीं, कहीं कोई ट्रैफिक नहीं आमने-सामने फिर भी हवाई जहाज के चलाने के भी कुछ नियम होते है, डायरेक्शन होती है, कुछ पाईंट होती है कि भाई यहाँ से यहाँ जाना है तो बीच में ये तालाब आता है, बीच में ये पहाड़ी आती है, बीच में ये आता है, फलानी पहाड़ी यहाँ से 25 किलोमीटर रह जाती है। पहाड़ी तो आती है तो ये जरूरी नहीं की पहाड़ी के सिर पर से चलना है अथवा पहाड़ी के दाएँ से चलना है या बाएँ से चलना… नहीं ।  बाएँ  से तो बाएँ ओर ही पहाड़ी रह जाए, हमें यहीं से जाना है और नक्शे में बताया दायीं ओर पहाड़ी रहेगी और 25 मिलोमीटर दूर रहेगी तो इंदौर से बड़ौदा हवाई जहाज चलेगा, तो पावागढ़ की पहाड़ी 25 मिलोमीटर दूर ही रखकर वो उस ढंग से चलेगा अंदाजन।

हालाँकि वो पहाड़ी की ऊपर से भी तो जा सकता है, और पहाड़ी दाईं ओर न रखकर बायीं ओर रखकर भी तो जा सकता है हवाई जहाज, लेकिन उसमें उसका खर्च ज्यादा होगा, फ्यूल ज्यादा खर्च होगा… ठीक है न।  ये तो नारायण भी जानता है नक्शा-वक्‍शा देखा…। तो जो हवाई जहाज को…जहाँ कोई रोक-टोक नहीं, इधर से उधर घूम सकता है आराम से, फिर भी पायलट, कप्तान लोग जो है, कैप्टन लोग उसी नियम के अनुसार चलाते हैं तो आराम से होता है। अगर नियम का उल्लंघन करके चलाएँ तो फ्यूल खर्च होगा,समय खर्च होगा और नियम का ज्यादा उल्लंघन करने की आदत पड़ गई तो फिर मौत भी हो सकती है ।

          छोटी-सी कथा… जरा-सी लापरवाही आदमी को कितना बर्बाद कर देती है…

कील न लगी, नाल निकला, घोड़ा गिरा, सिपाही मरा और देश हारा। ये बड़ी मशहूर कहावत है।

किसी सिपाही के पास घोड़ा था तो उसको जो नाल लगती है न घोड़े के पैरों में, तो एक नाल में से कीला निकल गया। उसने सोचा- बाकी के तो लगे है, एक कीला ठुकवा दूँगा.. ठुकवा दूँगा.. थोड़ी लापरवाही किया। अपने काम में जो लापरवाही करते हैं ऐसे लोगों के लिए ये घटना है।

शत्रु ने चढ़ाई कर दी। उस सिपाही को कोई खास सूचना लिखकर लिफाफा दिया कि जल्दी से जल्दी वहाँ पहुँचाओ ताकि शत्रु हमारे राज्य पर नियंत्रण कर ले उसके पहले ही हमारी फ़ौज मुकाबला करने लग जाए।

भागा, तेजी से घोड़ा भागा तो जो कील एक निकली हुई थी तो वो कमजोर हिस्से ने दूसरी कीलि‍येां को कमजोर कर दिया और घोड़े के पैर से नाल निकल गई और घोड़ा जो तेजी से भागता था, बुरी तरह गिर पड़ा कि घोड़ा सहित सिपाही मर गया।

अब वो जो चिट्ठी पहुँचानी है कैसे जाए? घोड़ा है नहीं। और घोड़ा मरा… सिपाही गिरा, घोड़ा मरा और वो सिपाही बेचारा लंगड़ाता- लंगड़ाता पहुँचे उसके पहले तो शत्रुओं ने कि‍ले पर कब्जा कर लिया। घोड़ा मरा… सिपाही गिरा,घोड़ा मरा और देश हारा। कील न ठुकवाई, घोड़ा गिरा, घोड़ा मरा और सिपाही गिरा और देश हारा।

कील की तो कीमत चार पैसे भी नहीं होगी। वो चार पैसे की कील जिस समय लगवानी चाहिए थी उस समय लगती तो देश नहीं हारता,घोड़ा नहीं मरता और सिपाही भी नहीं गिरता।

          दूसरा एक आदमी था। शादी,विवाह में गया,  इधर उधर देखा कि जगह नहीं है समय नहीं है, कहाँ सोऊँ? …चलो एक जगह पर अपना लगाकर बिछात सो गया। तो सुबह जब उठा तो उसके पेट पर से चूहा गुजरा। वो आदमी रोया।

किसी ने पूछा-  ‘क्यों रो रहे हो?’

कि- ‘मैं कैसा बेवकूफ! मौत के मुँह में जा रहा था।’

‘कैसे?’

बोले- ‘मैं रसोड़े के दरवाजे के आगे सो गया। रसोई घर में चूहे आते-जाते है, मेरे को पता नहीं और चूहा मेरे पेट पर से गुजरा।’

तो बोले- ‘क्या बड़ी बात हुई?’

बोले- ‘कभी चूहा गुजरा, तो चुहे को पकड़ने के लिए साँप भी तो गुजर सकता है! और मेरा कहीं हाथ-वाथ  लग जाता तो सॉंप काट देता तो मौत भी तो हो सकती थी! तो मैं लापरवाही से जीया। मैं अपनी लापरवाही को रो रहा हूँ कि कहाँ सोना चाहिए, कैसे सोना चाहिए, इस नियम का मैनें उल्लंघन किया।’

ड्रायविंग के नियम का उल्लंघन करता है तो देखो क्या हाल हो जाता है शेष जीवन में.. ।  कुछ नियम है उनको कोई कहे तब पालें? नहीं, अपने आप पालने चाहिए कि हम पर विश्वास रखा है, हमको जो चीज दी है तो हमारी जिम्मेदारी है, हम उसको संभाल के चलाए, संभाल के रखे। हम किसी को पकड़ा दे, वो किसी को पकड़ा दे, ऐसे लोग जीवन में कोई ज्यादा बरकत नहीं ला सकते। अपनी जिम्मेदारी आप समझो और अपना स्वामी आप बनो। जो अपने मन का स्वामी आप नहीं बनता,  ‘अन्नदाता, अन्नदाता’ ऐसा कह दिया तो ठीक है.. लेकिन भटक जाएगा और जब भटकता है तो पता नहीं चलता कि हम भटक गए।

हमेशा दूसरे के गुण देखे,अपना दोष ढूँढकर उखाड़कर फेंक दे। हमको तो हजारों जन्म का काम एक ही जन्म में करना है। हजारों जन्म के वासना के संस्कार, राग-द्वेष के संस्कार, मान-अपमान के संस्कार…  

मान मिलता है तो अच्छा है, अच्‍छा…। मेरे गुरुजी ने उनकी बड़ी श्रद्धा से सेवा करने वाले वीरभान को बड़ी बेइज्जती कर दी लोगों के बीच। और बात भी कोई साधारण थी कि कैसी। तो गुरू तो गुरू होते है। अब जैसे कुम्हार है न तो ठोकता है, अंदर हाथ रखता है। तो किस वक्त शिष्य को क्या जरूरत है, गुरु जानते हैं तो गुरुजी ने..।  

जाना-माना था मेरा गुरु भाई, लोगों के बीच उठ-बैठ कराते और बहुत फटकारा । समय आया, जब गुरू बड़े प्रसन्न थे उस दिन।

बोला- ‘अकेले में मेरेको फटकारते या उठ-बैठ कराते तो ….’  

बोले- ‘वाह-वाही लोगों के बीच होती है तो अकेले में फटकार की क्या कीमत?’

जय रामजी की!

वाह-वाही लोगों के बीच होती है तो घड़ा भर जाता है अहं का। तो गलती होती है तो फिर लोगों के बीच फटकारते तब ध्यान देते, नहीं तो खड़िया पलटन जैसी। चलो गुरुजी ने कह दिया, माफी माँग ली, कान पकड़ ले,जरा-सा कर दिया और ये रूटीन हो गया। चलो,भूल हो जाएगी, माफी माँग लेंगे, भूल हो जाएगी, ये कर लेंगे। ऐसा थोड़े ही है कि गुरु की उदारता हो गई तो अपन भूल करते रहो, कान पकड़ लिए, जरा दण्ड बैठक कर लिए, जरा फटकार सह ली, ऐसा नकटा होने के लिए नहीं कह रहे।  गुरू जब सजा देते हैं तो उसका मतलब है कि हम कितने अपने कार्य से, अपने कर्तव्य  से कितने गिर गए । गुरू को सजा देनी पड़ती है या फटकारना पड़ता है, तो सावधान होने के लिए फटकार है।

ऐसा व्यवहार करें कि फटकार न मिले ।  हमारा शत्रु भी हमारा व्यवहार देखे तो उसको भी मन में मान आ जाए । जैसे रामजी के व्यवहार से रामजी के शत्रु को भी आदर हो जाता था। रामजी के व्यवहार से रामजी के शत्रुओं को भी रामजी के लिए आदर हो जाता और कुछ मूर्ख लोग ऐसा व्यवहार करते हैं कि अपने गुरु भाईयों को ही नफरत हो जाए, अपने मित्रों को ही नफरत हो जाए, अपने कुटुम्बियों को ही अपने व्यवहार से नफरत हो जाए। अपने व्यवहार से अपने स्नेही को, अपने मित्रों को, अपने कुटुम्बियों को, अपने गुरु भाईयेां को नफरत हो जाए.. कुछ ऐसे बेवकूफ लोग होते हैं और कुछ ऐसे बुद्धिमान होते हैं कि अपने व्यवहार से अपने तो खुश होते है लेकिन जो अपने निंदक है उनका भी दिल झुक जाता है। जैसे गांधीजी का ऐसा व्यवहार था कि गांधीजी की क्रिटिसाइज लिखनेवाले अखबार भी उनकी प्रशंसा लिखे बिना नहीं रहते थे।

रामजी का ऐसा स्वभाव कि रावण मरते समय भी उनकी प्रशंसा किए बिना नहीं जा रहा है। तभी तो वो श्रीराम है! मेरा उनके चरणों मे प्रणाम है। 

लक्ष्मण ने कहा कि रामजी आँसू बहा रहे हैं तुम्हारे इस भूमंडल से जाने पर। रामजी कह रहे है- ‘बड़ा योद्धा इस संसार से जा रहा है! परस्त्रीहरण जैसा उसका एक अपराध है बाकी उसमें बहुत सारे गुण है!’ रामजी ऐसा विचार करके आँसू बहा रहे हैं, लक्ष्मण ने जाकर कहा।

तो वो दशानन ने कहा, शरीर की स्थिति तो लाचार थी, सिर कटे हुए थे नाभि में बाण चुभे हुए थे। अब मृत्यु की साँसे गिन रहा है और हाथ घसीट के कैसे उसने मिलाए होंगे, कैसे हाथ जोड़े होंगे! तो वो तो रणवीर जाने! उस वीर ने हाथ जोड़े, रावण ने।

बोले बापू वो तो दुष्ट था फिर भी आप ‘वीर वीर’ कह रहे हैं।

रामजी कह रहे है, हमने कह दिया तो क्या है?

रामजी कह रहे है..एक वीर धरती से जा रहा है, योद्धा जा रहा है। बहुत सारे उसमें गुण है। तो रामजी को शत्रु के भी गुण दिखते थे। तो शत्रु को भी मजबूर होकर रामजी के गुणों पर नजर उसकी पड़ ही जाती। अपने व्यवहार से शत्रु को भी… 

शत्रु पर विजय पाने का क्या तरीका है? कि उसको मार दें, उसकी निंदा करें तो विजय पाया, नहीं उससे तो शत्रु पुष्ट हो जाएगा। उसकी निंदा करोगे तो उसकी शत्रुता पुष्ट हो जाएगी। और आपके अन्तःकरण में उसकी शत्रुता गहरी हो जाएगी। शत्रु नष्ट कैसे होता है? कि उसको मार डाला, गोली मार दिया अथवा विश्वासघात करके उसको मार दिया तो शत्रु नष्ट होगा? नहीं! दूसरे जन्म में सवाया बदला लेगा। तो शत्रु नष्ट कैसे हो?

शत्रु नष्ट कैसे हो, युधिष्ठिर और रामजी के व्यवहार जैसे! युधिष्ठिर शत्रु के दोषों को ध्यान में नहीं रखते, उनके गुणों पर नजर! और अपने शत्रु के प्रति भी श्री रामचन्द्रजी या युधिष्ठिर कभी कटुवचन नहीं बोलते थे। दुर्योधन को युधिष्ठिर महाराज सूर्योधन कहते थे… हालाँकि उसका नाम था दुर्योधन, युधिष्ठिर उनको सूर्योधन कहते। रामजी रावण को दुष्ट रावण नहीं कहते कभी, लंकेश ।

तो कभी भी अपने शत्रु के प्रति भी क्रूर वचन, कटु वचन नहीं बोलने चाहिए।

वाणी ऐसी बोलिए जो मनवा शीतल होय।

औरन को शीतल करे आपही शीतल होय।।

तुच्‍छड़ा व्यवहार करनेसे, तुच्‍छड़ा व्यवहार, तुच्‍छड़ी वाणी अपना करा-कराया सब चौपट करा देती है और उससे तन्दुरुस्ती भी खराब हो जाती है। जब हम कटु वाणी बोलते है न तो हमारे रक्त के कण खराब हो जाते है और बार-बार बीमार हो जाएँगे हम लोग। मधुर वाणी और मधुर मन से हमारे रक्त के कण भी सुंदर सुहावने होते हैं, आरोग्यता में मदद मिलती है। जो आदमी हँसमुख है, प्रसन्नचित्त है, मधुरभाषी है वो ज्यादा बीमार नहीं होगा और जो कटुभाषी है, जरा-जरा बात में भड़क जाए वो आदमी आपको बीमार मिलेगा,जाँच करके देखिए! अब शिवलाल काका है, इतनी उमर है लेकिन ज्यादा बीमार शिवलाल को आपने नहीं सुना होगा। हालाँकि बुढ़ापे की जो बीमारी है उस पर भी इनकी प्रसन्नता काम कर लेती है और कई लोग जवानी में महामरीज हो जाते है और उन लोगों को-सज्जनों को समझाया भी जाता है – भाई स्वभाव में बदलाहट लाओ…  नहीं ला पाते हैं तो फिर बेचारे भोगते है। तो हम लोगों को स्वभाव बदलने पर भी ध्यान देना चाहिए। तुच्‍छड़ा स्‍वभाव … मूल में दो-चार व्यक्ति तुच्‍छड़े होते है न तो फिर पूरा नीचे का वातावरण तुच्‍छड़ा हो जाता है।ऐसा नहीं होना चाहिए! किसी का भी दोष हममें न आए। हमारा गुण चाहे कोई ले ले लेकिन हमारे में किसी का दोष न आए ये हमारी जिम्मेदारी, सावधानी है।

मेरे गुरुदेव ने गुलाब का फूल दिखाया मेरेको ।

बोले- ‘जाओ इसको दुकान पर रखो, किराने की दुकान पर, आटे पर, दाल पर, चावल पर, गुड़ पर, घी पर, सब जगह रखो, फिर लाकर गटर पर रखो, फिर सब्जी मंडी में ले जाओ, अलग-अलग सब्जियों पर रखो और बाद में गुलाब के फूल को सूँघोगे तो सुगंध किसकी आएगी?’

मैंने कहा- ‘गुरूजी, गुलाब की ही आएगी।’

‘ऐसे ही! तू गुलाब होकर महक तुझे जमाना जाने!’

गुलाब किसीकी बू नहीं लेता, अपनी सुगंध देता है। ऐसे ही मनुष्य को अपनी सुगंध, साधना की सुगंध, सेवा की सुगंध, सदाचार की सुगंध, ईश्वरप्रीति की सुगंध, गुरुभक्ति की सुगंध महकाना चाहिए। दूसरों की निगुरापने की या और कोई दोष-दृष्टि की या निंदकों की या औरों की बातों को सुनकर अथवा सोचकर अपनी सुगंध बिगाड़ना नहीं चाहिए। नारायण… नारायण… नारायण…

‘तू गुलाब होकर महक तुझे जमाना जाने!’- ऐसा मन को रोज कहा करो।

पिस्तौल-बंदूक से रक्षा नहीं होती! सदाचार के विचारों से ही अपने चित्त की रक्षा होती है। नारायण.. नारायण…  

मान पचाने की भी शक्ति होनी चाहिए, अपमान पचाने की भी शक्ति होनी चाहिए। अपना दोष निकाल के उखाड़ के फेंकने की भी शक्ति होनी चाहिए। तो दूसरे के दोष भी निकालने में वो समर्थ हो जाएगा, वो गुरू बन जाएगा। अपने मन का एक बार स्वामी हो जाये तो दुनिया का स्वामी हो जायेगा।  

अपना साक्षी आप है निज मन माहिं विचार

नारायण जो खोट है उनको तुरंत निकाल

हमने अच्छा क्या किया? उधर हम अगर देखते रहेंगे तो हमारी उन्नति नहीं होगी। हम इससे भी बढ़िया कर सकते हैं कि नहीं कर सकते… अच्‍छा और हमारी गलतियाँ कौनसी है ?

एक शिष्य ने बड़ी सुंदर आकृति गुरूजी को दिखाई, पास करने को कि चित्र कैसा, आकृति कैसी है?

गुरूजी ने देखा कि मैं भी ऐसा चित्र नहीं खींच सकता। ‘बहुत सुंदर,बहुत सुंदर! शाबास!’

वो शिष्य रोने लगा। गुरू ने बोला कि क्यों रोता है? बोला- ‘अब मेरे उन्नति का मार्ग रुक गया। मेरी गलती बताने वाले गुरुदेव भी मेरी प्रशंसा कर देंगे, कमी कहाँ है ..जो गुरू हमारी कमी ढूँढकर निकालने के लिए हमारी कमियों पर नजर रखते है वो ही हमारी उन्नति कर सकते है। अब वो कमियों पर नजर रखने वाले हमारी प्रशंसा कर रहे हैं तो हमारे गुणों पर नजर डालकर प्रशंसा करेंगे तो हम कमियाँ कहाँ से निकलवाएँगे?

गुरू बनना कोई मजाक की बात नहीं है। वाह-वाही करके मस्का मारकर अपने को बड़ा कहला लेना अलग बात है लेकिन बड़ी जिम्मेदारी है गुरुदेव की.. बहुत जिम्मेदारी है, गुरू को तो… कभी-कभार  लगेगा शिष्य को कि गुरू हमारे शत्रु है। हम इतना करते है और कोई कदर ही नहीं है! फिर गुरू कहेंगें -‘बेटा! तू कदर करवाने को आया कि ब्रह्म बनने को आया? कदर करवानी है तो जा फुटपाथ पर, थोड़ा-सा कुछ काम कर, लोग ‘वाह भाई वाह’ कर देंगे। गुरू कदर क्या करते है..गुरूजी तो ऐसी कदर करते है कि करोड़ों जन्म के माता और पिता और मित्र नहीं कर पाएँगे, ऐसी  कदर करते है कि हमको ब्रह्म देखना चाहते है! हमारे लिए ब्रह्म सोचते है। ब्रह्म हो जाएँ! जो वास्तविक में मुक्त हो जाए.. दुबारा किसी गर्भ में न पड़े! ऐसी बड़ी कदर और कोई दुनिया में कर ही नहीं सकता! गुरू जितनी कदर करते हैं और जहाँ पहुँचाना चाहते है ऐसा तो दूसरा सोच भी नहीं सकता क्योंकि ऐसा ब्रह्म स्वरूप ईश्वर तो दूसरे में देखा ही नहीं तो क्या सोचेगा उसके लिए?

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