बात 16 वी सदी की है जब ब्राह्मण तीर्थाटन करते लोधिराम नगर पहुँचे….

बात 16 वी सदी की है जब ब्राह्मण तीर्थाटन करते लोधिराम नगर पहुँचे….


शिष्य को अपने गुरु के अनुकूल होना और उनसे हिल-मिल जाना चाहिए। अच्छी तरह बर्ताव करना माने अपने गुरु के प्रति अच्छा आचरण करना। गुरु शिष्य के आचरण से उसका स्वभाव तथा उसकी मन की पद्धति जान सकते हैं।बात 16 वीं सदी की है। जब तीन कर्मकांडी ब्राह्मण तीर्थाटन से घूमते-घामते अहमदाबाद शहर का लोधिराम नगर में पहुँचे। वे संत दादू दीनदयाल जी को ढूंढने निकले थे। चलते-2 वे पहुंचे एक गाँव के सुनसान से कोने में जहाँ बाढ़ी से घिरे आँगन के बीचोबीच एक कुटिया बनी थी। ये तीनो ब्राह्मण ताका-झाँकी कर रहे थे कि तभी कुटिया से एक साधारण सा व्यक्ति बाहर आया। उसके सिर पर एक भी बाल नहीं था। उसे देखते ही ब्राह्मणों के माथे पर सिलवटें पड़ गई। धत तेरे की! नाक-मुँह सिकोड़कर वे धिक-2 कर उठे।”अरे! यह टकलू कहाँ से धमक पड़ा ,घोर अपशकुन!” उनमें से एक ब्राह्मण ने कहा।”ये लो, हो लिया जो होना था! कहाँ तो हम दादूजी की तलाश में निकले हैं और कहाँ यह सफाचट खाली मैदान दिख गया। अब तो न मिलनेवाले दादूजी शर्त या बात है। ” दूसरा ब्राह्मण भी अफसोस मनाता हुआ कहा।तिसरे से भी न रहा गया। कानों पर हाथ लगाता हुआ बोल पडा कि, “बड़े-बुजुर्ग कह गए हैं कि शुभ कारज में अगर कोई गंजा दिख जाय तो फिर वह कारज भी उसकी खोपड़िया की तरह बेरंग ही रह जाती है। सच में नीम्बू कट गया सब किये कराये पर। अब तो यह सोचो कि, क्या है कोई इस अपशकुन को टालने का उपाय?तीनो ब्राह्मण विचार करने लगे कि ये अपशकुन कैसे टले। तभी उनमें से एक ने कहा , “है ना उपाय, बिल्कुल है! 1802 पीठाधीश्वर विवेकराज बाणभट्ट स्वामीजी महाराज ने कहा है कि, ऐसे में उसी टकले व्यक्ति के सिर पर ठोंग मारो, तब ईश्वर की दया से बला टल जायेगी। शुभ कार्य में आये हुए अपशकुन टल जायेगा। “सुझाव मिलते ही बाकी के दो ब्राह्मण उस केशहीन भले मानस की ओर दौड़ पड़े। “ओय गंजे! ठहर, ठहर तो जरा!”वह व्यक्ति रुक गया। अब दोनों ब्राह्मणों ने उसके सिर पर 2-3 बार ठोंग मारी। तिसरे ने भी मौका नहीं चूका। ऊँचा उछलकर उस व्यक्ति की टाल पर टकटक ठोंग बजा डाली।उसके बाद वह ब्राह्मण बड़े रौब से उस व्यक्ति से बोला, “बस! बन गया हमारा काम। अब तू जा अपने रास्ते और हम अपने रास्ते।ओय! जाते-2 यह तो बताता जा कि, परम पूजनीय संत दादू दयालजी महाराज कहाँ मिलेंगे? उनका पावन-पुनीत धाम कहाँ पर है?”उस व्यक्ति ने चुपचाप सहज भाव से बाड़ी की ओर उँगली तान दी और अपनी राह चला गया। तीनो ब्राह्मण उल्टे पाँव बाड़ी की तरफ दौड़ पड़े। बड़ी बेसब्री से उन्होंने कुटिया में झाँका। वहाँ कोई नहीं था। इसलिए तीनो बाहर आँगन में ही बैठ गये और संतप्रवर की बाँट जोहने लगे। थोड़े ही देर बाद वही केशहीन व्यक्ति दोबारा लौटा। परन्तु अब की बार उसके साथ एक और व्यक्ति भी था। जो उनके पीछे झुककर हाथ जोड़े हुए चल रहा था।ब्राह्मणों का दिमाग फिर से ठनका। “अरे, वही टकलू! बार-2 अपशकुन के दर्शन हो रहे हैं, इसलिये शायद हमें दादूजी के दर्शन नहीं हो पा रहे हैं। खैर छोड़ो इसे।”यही सोचकर उन्होंने उसके साथ आये हुए दूसरे व्यक्ति से पूछा, “भाईजी! हम पूजनीय दादू दयालजी महाराज जी की प्रतीक्षा कर रहे हैं। वे कब अपनी कुटिया में पधारेंगे?”वह आदमी फुसफुसाया और उस केशहीन पुरुष की ओर इशारा करते हुए बोला, “अरे ,आप ही तो है दादूजी महाराज!”बस! अब तो तीनों के रंग ही उड़ गये। उनके चेहरे लज्जा से लाल हो गये।”महाराज-2 ! क्षमा करें महाराज !” ऐसा कहते हुए तीनों जिज्ञासु दादूजी के चरणों में जा गिरे। कलप-2 कर क्षमा माँगने लगे। साथ ही अपने ही सिर पर ठोंग बजाते गये।यह देख दादू दयालजी ठहाका लगाकर हँस दिये। फिर तीनों को धीरज बंधाते हुए दादूजी ने कहा, “शांत हो जाओ। आप लोगों से कोई अपराध नहीं हुआ है। अरे भाई! जब कोई छोटा सा मिट्टी का घड़ा खरीदता है तो उसे भी भली प्रकार ठोक बजाकर देखता है, टकोरकर जाँचता है कि कहीं वह घड़ा फूटा हुआ तो नही और तुम तो मुझे गुरु बनाने आये हो। अपने जीवन, अपनी आत्मा का सौदा करना चाहते हो। फिर ऐसे में तुम्हारा मुझे ठोंग मारकर, ठोक बजाकर देखना ठीक ही तो है। इसमें कोई भूल नहीं।”इतना कहकर दादूजी आँगन में बिछे एक ऊंचे तख्त पर जा विराजे। तीनों जिज्ञासु भी उनके सामने नीचे जमीन पर बैठ गए। कंधे से कंधा सटाकर संकोच करते हुए उनमें से एक ब्राह्मण ने कहा, “सच है महाराज! आपका तो नाम ही दादू दयाल है। दयालुता आपके नाम से जुड़ी हुई है। आपने हमें माफ कर असाधारण दया की है।”इतने में दूसरा भी बोला, मैंने दूर-2 की कस्बो में सच ही सुना था- *दादू हंस रहे सुखसागर, आये पर उपकार।* “दादू दयालजी सुख के सागर है।उपकार के लिए वह अवतरित हुए हैं।”ब्राह्मणों से स्तुतिगान सुनकर दयामयी दादू मुस्कुरा दिये। फिर उनकी दृष्टि तीनो की हालत की तरफ गई। दरअसल वे तीर्थों, मंदिरों और धामों की यात्रा करके आये थे। इसलिये थकान से उनके शरीर निढाल हो चुके थे, चेहरे पर मायूसी का आलम छाया था, पैरों में मोटे-2 छाले थे। तीर्थयात्रा के दौरान उन्हें किसी ने संत दादूजी के बारे में बताया था। इसलिए अब थक-हारकर वे दादूजी के घाट पर ईश्वरामृत पीने आये थे।जाननहार, अंतर्यामी गुरु ने उनसे सीधा यही सवाल किया, “अच्छा बताओ! क्या तुम्हें उन घाटो या धामों पर ईश्वर मिल गया?””नहीं महाराज! यही तो व्यथा है।””तो जानना नहीं चाहोगे, क्यों नहीं मिला?””वही तो जानने आये हैं आपके पास।”दादूजी ने कहा, “क्योंकि ईश्वर को पाने की राह बाहर नहीं हमारे अंदर है। भीतर के तीर्थ पर ही ईश्वर का मिलन होता है।”*कोई दौड़े द्वारिका, कोई काशी जाही।**कोई मथुरा को चले, साहिब घट ही माही।।*”महाराज! हमने तो त्रिवेणी की घाट पर भी खूब डुबकियाँ लगाई, मगर तब भी सूखे ही रह गए। राम का दर्शन नहीं हुआ।””यही तो समझने की बात है। सच्चाई यही है कि – *शरीर सरोवर राम जल, माहे संजनसार।**दादू सहजे सब गहे, मन के मैल विकार।*”इस शरीर में ही ऐसा दिव्य सरोवर है, जहाँ राम नाम का पानी भरा हुआ है। उसी अंदरूनी सरोवर में डुबकी लगाने पर मन के मैल-विकार कटते हैं। साक्षात राम के दर्शन होते हैं।””महाराज! आपका कहना है कि राम हमारे अंदर ही है! साहिब अंदर के घट पर ही मिलता है। परन्तु महाराज! हमने तो आजतक उस राम, उस प्रभु को अपने भीतर नहीं देखा।”इतना सुनना था कि दादूजी तुरंत उठ खड़े हुए। आँगन में एक तरफ दही की हांडी पड़ी थी। उन्होंने इशारे से एक ब्राह्मण को बुलाया और कहा, “बंधू! क्या इस दही में माखन है?””जी महाराज! बिल्कुल है!””परन्तु कहाँ है? हमें तो दिखाई नहीं दे रहा।””महाराज, यूं न दिखेगा। इस दही को पहले मथना पड़ेगा।”दादूजी मुस्कुराये और आँगन के कोने में बने एक चूल्हे के पास पहुंचे। एक सूखी लकड़ी उठाई ।दूसरे ब्राह्मण से पूछा, “कहो प्यारे! क्या इस लकडी में आग है?””जी महाराज! बिल्कुल है। अन्यथा आँच लगने पर लकड़ी कभी नहीं जलती।””अच्छा! परन्तु हमें तो इसमें कोई आग नहीं दिखती ?””महाराज, ऐसे कैसे दिखेगी? सूक्ष्म है, आँच लगने पर ही चमकेगी।” दादूजी तिसरे ब्राह्मण के पास पहुंचे। धरती पर दो बार जोर-2 से पाँव पटका और फिर पूछ बैठे, “क्या इस जमीन में पानी है?””हाँ महाराज, पानी है। “”परन्तु हमें तो नहीं दिखता?””ऐसे कैसे दिखेगा महाराज! खोदेंगे तभी तो दिखेगा?”*ज्यों महि बिलौवे माखन आवे,**त्यों मन मथिया ते तत पावे।*”जैसे दही के बिलौने से माखन निकलता है, वैसे ही भीतर मथने से वह परम तत्व मिलता है।” *काठ हो तासन रह्या समाई,**त्यों मन माहि निरंजन राहि।*”जैसे लकड़ी में आग समाई है, वैसे ही अंतर आत्मा में निरंजन समाया है। आँच देनेपर ही प्रकट होगा।”*ज्यों अवनी में नीर समाना,**त्यों मन माहे साँच सयाना।*”जैसे धरती में पानी बसा है वैसे ही तेरे मन में साचा साहिब समाया है। भीतर की खुदाई करने पर ही मिलेगा।””परन्तु महाराज, उस सूक्ष्म सत्ता को हम कैसे मथें ? कैसी आँच दें ,जो वे प्रगट हो जाय? किसतरह करें खुदाई कि वह मिल पाये?”*आप आपन में खोजे रहे रे भाई,**बस तू अगोचर गुरु लखाई*”मेरे प्यारों अपने भीतर ही प्रभुसत्ता को खोजो, लेकिन तुम अपने आप यह खोज अभियान पूरा न कर पाओगे। एक सद्गुरु ही तुम्हें उस सूक्ष्म अगोचर अर्थात इन्द्रीयों से परे ईश्वर कोे दिखा सकते हैं। प्रभु का सम्पूर्ण साम्राज्य अपने पूरे साज-बाज के साथ तुम्हारे अपने ही भीतर समाया है।” लेकिन इस अंदुरूनी सत्ता को पाने के लिए,*दादू पाया परम गुर किया एकमकार।*”हमें पूर्ण सद्गुरु चाहिए। सद्गुरु ही हमें अंदर समाये साहिब से एकमकार यानी एक कर देते है।” *कायानगर निधान है माहे कौतिक होये।**दादू सद्गुरु संगी ले भूलि पड़े जिन कोई।।*”कायानगरी में ही वह कृपानिधान बैठा है। अंतर जगत में ही उसकी लीलायें और कौतुक घट रहे हैं। सद्गुरु को संग ले लो तभी यह रहस्य जान पाओगे।”अंत में दादूजी ने सार समेटता आखिरी सूत्र कहा,*काया मह करतार है सो निधि जाने नाहिं।**दादू गुरुमुख पाइये सबकुछ काया माहि।।**काया माहे बास करि रहे निरंतर छाई।**दादू पाया आदिघर सद्गुरु दिया दिखाई।।*”हमारे अंतर जगत में वह करतार बसा है। एक सच्चे गुरु का शिष्य अपने अन्तरघट में सबकुछ पा लेता है। सद्गुरु की कृपा से हर जिज्ञासु अपनी काया में परमात्मा के आदिघर को पा सकता है।उसमें प्रवेश कर प्रभु से मिलन कर सकता है।”अंततः ब्राह्मणों ने दादूजी के श्रीवचन सुनते हुए ऐसा महसूस किया कि उनके समस्त तीर्थों का पुण्यफल उन्हें प्राप्त हो गया और दादूजी ने भी उन्हें शिष्यरूप में स्वीकार कर कृतकृत्य कर दिया।

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