महान संकट की ओर बढ़ रहें थे कदम और बुल्लेशाह अनजान था (भाग-9)

महान संकट की ओर बढ़ रहें थे कदम और बुल्लेशाह अनजान था (भाग-9)


कभी यूँ ही आओ मेरी आँखों में,कि मेरी नजर को खबर ना हो।मुझे एक रात नवाज दे,मगर उसके बाद सुबह ना हो।बुल्लेशाह को उर्स की उस एक रात का शिद्दत से इंतजार था। धड़कनो की सारी इबादत दाँव पर लगी थी। एक-2 श्वास शबरी बन चुकी थी। अगले दिन की सुबह खिल आई। रोजाना सुबह तो रोशनी की चटकते ही बुल्लेशाह गम के कड़वे घोट पीता था। मगर आज, आज सीने में जरा भी दर्द नहीं उठा। बल्कि अंदर एक खुशी की फुदक पड़ी। बुल्लेशाह ने झट कलाई पर बँधे रेशमी धागे को टटोला। बेसब्री से पहली गाँठ खोली। फिर राहत की श्वास ली और खुद से कहा, “40 में से एक दिन कम , 39 दिन।” लेकिन अगले ही पल बैचेनी की फुरेरी सिर से पाँव तलक दौड़ गई। बुल्लेशाह घबरा सा गया । उसमें कैसा एहसास जागा, यह उसने बड़े ही शायराना अंदाज में अपने पहले गंढ़े में दर्ज किया है -*गंढ़ पहलि नु खोल के मैं बैठी बरलावा,**ओढ़त जावन जावना होण में दाज रंगावा।*”जब मैंने पहली गाँठ खोली तो मेरी रूह बिलख उठी। बुल्लेशाह तुझे पी के देश जाना है। चल फौरन कुछ दहेज़ तो जोड़ ले। चुनरियाँ रंगाले , तैयारियाँ करले।”दरअसल सूफ़ी मुरीदों का हमेशा से यही कायदा रहा है- “उन्होंने रूह को एक कुँवारी कन्या माना और क़ाबिल मुर्शिद अर्थात सद्गुरु को इस रूह का ख़सम मतलब पति कहा।”आज बुल्लेशाह भी इसी तालपर गाँठे खोल रहा है। दूसरी और तिसरी गाँठे खोलते हुए उसने इसी काफ़िये को आगे सरकाया। बताया कि वह किस दहेज़ का ज़िक्र कर रहा है। कैसी चुनरियाँ उसको जोड़नी और रँगनी हैं।*दुजी खोलो क्या कहूँ दिन थोड़े रहेन दे,**झल्लवल्ली मैं होई तुम्ब कत्त न जाना।*मैं तो उतावली वे! ऐसी झल्लीवाली सी हो गई हूँ, कि मुझसे चरखे पर धागा तक नहीं काता जा रहा।”कैसा चरखा? कौनसा धागा?””शरीररूपी चरखा और श्वासों की धागा, सोहम की धागा।”श्वासों का धागा कातोगे तभी तो सुमिरन की चुनरी बनेगी। बड़ा ही गहरा इशारा है बुल्लेशाह का। देखिए ये सद्गुरु से मिलने की पूर्व की तैयारी बता रहे हैं बुल्लेशाह। सुमिरन ही नहीं इस अलबेले निक़ाह में, दूसरे तरह के दहेज़ भी जरूरी है। *तीजे खोलहु दुख से रौंदे नैन ना हटदे*अर्थात गुणों-सगुणों की सौगात भी इकठ्ठी होनी चाहिए। तीसरी गाँठ खोलते हुए बुल्लेशाह को यही चिंता है कि दूसरे सतशिष्यों की रूहें तो गुणों का श्रृंगार कर प्यारी-2 दुल्हनें बन गई। सिर्फ़ मेरी रूह बेगुण-बदसूरत रह गई।बुल्लेशाह नाम-सुमिरन और गुणों का दहेज़ जोड़ने में जी-जान से जुट गया। पल-2, छीन-2, साँस-2 में श्रृंगार। दिनों पे दिन गुजरते गये। मगर बुल्लेशाह के लिए हर घड़ी रिस रही थी।*हँसते-2, चलते-2 पूँछा पाँव के छालों ने।* -2*दुनिया कितनी दूर बसाली दिल मे रहनेवालों ने।**चंगी लगदी न ढोला तेरी दूरी,**तैनू तकना है मेरी मज़बूरी।**तेरे बिन जिंद है अधूरी,**ता अँखियों दी ज़िद्द कर पूरी।*आखिर बुल्लेशाह की तपस्या रँग लायी।उसकी तैयारियाँ पूरी हुई।सारा दहेज़ जुड़ गया। 40 वे दिन उसने रूह को दुल्हन सा सजा लिया।*कर बिस्मिल्लाह खोलियाँ मैं गंडा चाली,**जिस आपना आप बजया सो सुर्जनवाली।*ख़ुदा का नाम लेकर उसने 40 वी गाँठ खोली, तब पाया कि अपना आपा अर्थात मैं भाव रहा ही नहीं। आत्मा सुर्जन यानी फ़रिश्ते जैसी रौशन हो चली। *पिया ही सब हो गया अब्दुल्लाह नही!*अब तो इनायत ही इनायत रह गए, सद्गुरु ही सद्गुरु रह गए। बुल्लेशाह का 40 वे दिन खुद का अस्तित्व खो गया। बुल्लेशाह की हस्ती पूरी तरह से खत्म हो चुकी। बस यही मिलन का सबब है। मैं ही की तो दीवार थी। एक शायर ने ख़ूब कहा -*ये कसक दिल की दिल में चुभी रह गई,**जिंदगी में तुम्हारी कमी रह गई।**एक मैं, एक तुम, यही दीवार थी,**जिंदगी आधी-अधूरी बटी रह गई।*सद्गुरु इसी दीवार की ईंट से ईंट बजा देना चाहते हैं। तनकर खड़ी इस दीवार को निस्तानाबूद कर मलबे का ढेर बनाने का मनसूबा रखते हैं सद्गुरु।बुल्लेशाह की दुनिया में इस दीवार की ईंट तो क्या, अब मलबा तक भी न बचा था। वो अन्दुरुनी तौर पर सद्गुरु से इकमिक हो चुका था। फिर बाहरी दूरी भी कबतक बनी रहती। इसलिए आज वे ख़ुशगवार मिलन के लम्हें, उर्स का दिन आ ही गया।आज सुबह से ही कोठे पर खाँसी चहल-पहल थी। लाहौर के कुछ पखावज, सारंगी बजानेवाले गायक और शायर टोलियाँ बना-2 कर तवायफ़खाने पहुँच गए थे। सभी को इकठ्ठे होकर शाम के वक़्त आपा के साथ मज़ार पर जाना था।फ़नकारों ने बुल्लेशाह को देखा तो आदाब फ़रमाते हुए वे उन्हें पहचान गए। सभी फ़नकारों ने मिलकर बुल्लेशाह को काफ़िया सुनाने के लिए जोर दिया। इसीके साथ आपा ने भी सभी फ़नकारों के मुखातिब होकर कहा कि जानते हैं, आज भाईजाँ भी हमारे साथ महफिले उर्स में शरीक होने के लिए जा रहे हैं। क्योंकि वहाँ हजरत शाह इनायत भी मौजूद होंगे।यह सुनते ही एक उस्ताद ने कहा कि , “ख़ुशामुदिद! फिर आज क्या करने की हसरत रखते हैं बुल्लेशाह मियाँ?दूसरे ने कहा, “हाँ-2, कहिये ना मियाँ! उधर इनायत आपके रूबरू होंगे, इधर आपकी तरसती मुरीदी। आहाहा! क्या करेंगे आप?”तीसरे ने तीखे मिजाज से कहा कि, “अरे, क्या ख़ाक करेंगे? सुना है, हजरत ने इन्हें अपनी नजरों से दूर रखने का सख्त हुक़्म दे रखा है।”किसी ने कमान सँभालते हुए कहा, “अरे!मोहब्बत में बेरुखी भी एक मौसम है! मगर यह बारहो महीने थोड़े न रहता है, इनायत रूठे हैं तो मन भी जायेंगे। बुल्ले मियाँ ने जरूर कुछ तरक़ीब सोची होंगी। क्यों मियाँ! बताईये ना, क्या हौसले रखते हैं आप?”इधर -उधर से भी आवाजें आई, “हाँ -2! कहिये ना। चलिए इसी बातपर एक काफ़ी हो जाय।”बुल्लेशाह की आँखे बंद हो गई। बुल्लेशाह काफ़ी गाने लगे कि-*उनके दर पे पहुँचने तो पाए,**ये ना पूछो कि हम क्या करेंगे?**सर झुकाना अगर ज़ुल्म होगा,**हम निगाहों से सिजदा करेंगे।**बात भी तेरी रखनी हैं साकी,**सर्फ़ को भी न रुसवा करेंगे।**जाम दे या न दे आज हमको,**हम मैकदे में सबेरा करेंगे।**इस तरफ अपना दामन जलेगा,**उस तरफ उनकी महफ़िल सजेगी।**हम अँधेरे को घर में बुलाकर,**उनके घर में उजाला करेंगे।**आख़िरी साँस भी हम उनसे,**बेरुखी का न शिक़वा करेंगे।**उनके दर पे पहुँचने तो पाएँ,**ये न पूछो कि हम क्या करेंगे?*खैर! शाम ढल आई। सूरज पश्चिम की घाटी में डूब तो रहा था, मगर बड़ा मन मसोसकर। आँखे तो उसकी उर्स की दरगाह पर ही टिकी थी। तारे और चाँद भी उजाले में ही प्रकट हो आये। भला कौन इस तारीख़ी मंजर का नजारा चखने को बेताब नहीं था? आखिर तनहाइयों के आलम में यह तमाम क़ायनात ही तो बुल्लेशाह की हमदम थी। उन्होंने खुद बुल्लेशाह को कहते सुना था कि-*तरस रहा हूँ मैं एक लम्हाएँ सुकून के लिए,**ये जिंदगी तो नहीं, जिंदगी का मातम है।**तमाम आलमे फ़ानी ने साथ छोड़ दिए,**बस अब सूरज-चाँद ही मेरे हमदम हैं।*इधर ढलते सूरज के साथ आपा के कोठे पर जिंदगी ने रफ़्तार पकड़ ली। तमाम फ़नकार सजने-धजने में मशरूफ़ हो गए। लेकिन यहाँ एक शख़्स ऐसा था, जिसकी महफिले दुनिया फ़क़त उसका पीर, उसका मुर्शिद था। उसीकी निगाहें करम पाने की कोशिश में वह था।*आप की एक मोहब्बत की नज़र है दरकार,**इश्क़ हर दर्द, हर सर्द का इलाज होता है।**फ़क़त आपकी उल्फ़त का मैं दम भरता हूँ,**आप खुश हो तो रजामंद ख़ुदा होता है।*इसलिए बुल्लेशाह सिर्फ अपने हबीब इनायत की नज़रे मोहब्बत पाने के लिए सज रहा था। परन्तु कैसे? कोई नहीं जानता था।बाहर तमाम मण्डली रुख़सत होने की इंतजार में थी। अपने-2 साजो की तारे कस रही थी। आपा भी तैयार हो गई थी। मगर उधर बुल्लेशाह का दरवाजा अब भी चुप्पी साधे बन्द था। सभी बुल्लेशाह के लिए खड़े थे।अब आपा ने धीरे से दरवाजा खटखटाया, अंदर गई। सामने जो नजारा था, उसका चित्र तो कभी उसके सपनों की कलम ने भी नहीं उकेरा था।बुल्लेशाह की आँखों में सुरमा, होठों पे लाली, माथे पे बिंदियाँ और हाथों में चूड़ियाँ सजी थीं। बदन पर सुनहरे सलमे-सितारों से जड़ा गाढ़े हरे रंग का लहँगा था। वह सजा-धजा कमरे के कोने में सिमटासा खड़ा रहा।आपा तो उसे घूरती ही रह गई। इतनी अवाक थी, मानो चेहरे पर लकवा मार गया हो। फिर कुछ देर बाद आपा जोर-2 से हँसने लगी। ख़ूब हँसती ही रही। “भाईजाँ यह क्या हुलिया बना रखा है आपने? आप इस जनाना रँग-ढँग में?”पर सामने बुल्लेशाह गर्दन झुकाया खड़ा रहा। *आँखो में नमी , साँसों में रूमानी नाले,**वो क्या हँसे जिसके लबो पे लगाये इश्क़ ने ताले।*बुल्लेशाह सिलिसी मायूस आवाज में आपा से बोला, “आपा! मैं भी इनायत के लिए नाचूँगा, इसलिए ये सब। क्योंकि मर्दों की पोशाक में वहाँ कोई नाचने की इजाजत तो नहीं देगा।”यह सुनते ही आपा की हँसी बर्फ सी जम गई। हँसती पर बिल्कुल अलग हावभाव के काफिले छा गए। चेहरे पर नए जज्बात आ बिखरे।*सिर यार दे दवारे उत्ते धर लैन दे,**होवे यार जिवें राजी, ओय कर लैन दे।**मेरी शान विच फरक नई पैंदा,**जे नच के मनावा यार नु,**मन्ने यार नत्थी कुछवी नई या रहेंदा।**ते केवे मैं भुलावा यार नु।*बुल्लेशाह काँपती आवाज में फ़रयाद कर उठा, ” आपा! आज मत रोकना मुझे। जिस रस्म से मेरे इनायत रीझ जाए, उसे निभाने दो मुझे। मेरी आन, मेरी शान, मेरी जान , मेरा सबकुछ मेरे सद्गुरु की रज़ा है। अगर आज मैं अपनी शख्सियत को चूर-2 करके उनकी रज़ा को जीत सका, तो यह सौदा भी सस्ता होगा आपा।”यह बात आपा की रूह को छू गई। “माफ करदो भाईजाँ, माफ कर दो। मेरी जैसी बेअक्ल तवायफ़ रूहानी सतशिष्य की रिवायतें क्या जाने? आप तो फ़रिश्ते हैं भाईजाँ, जो इस नापाक दुनिया में पाक मुरीदी की मिसाल कायम करने आये हैं। जमाने को पाकीजा आशिक़ी का सबक सिखाने के लिए खुदा ने आपको चुना है।”*हे खुदा! बज़्म के हर शख्स को दे ऐसा जुनून!**अपने सद्गुरु की इश्क़ में सदा बेखुद, शरसार रहे।* *उसके पैग़ामों,रूहानियत को न कोई भूल पाए,**उसके इशारे से पहले बसर मरने को तैयार रहे।*सच्ची भाईजाँ! मेरी रूह कह रही है। आज अगर मुरीदी हारी, आप की भक्ति हारी तो मेरा ऐतबार सद्गुरु, मुर्शिद और उनकी मुर्शिदगी से उठ जाएगा।”नहीं-2, आपा ! सद्गुरु पर शक करने का कुफ़्र मत करो। उसकी राहे- इश्क़ बड़ी अलबेली होती है। *अगर वह सितम करता है, तो उसका सिला भी देता है।**रूठता है तो मुस्कुराकर अपना भी लेता है।* *अगर ग़मो से नवाज़ता है मुझे, तो ग़मो को सहने का हौसला भी सद्गुरु ही देता है।* *मुझीसे छुपाता है राजे-ग़म सरेशाम, मुझीको आख़िरी शब भी वही सद्गुरु तो बता देता है।”*”अच्छा! अब चलिए। वक़्त गुजर रहा है।”आपा कमरे में से एक बुरखा उठाकर बुल्लेशाह के पास लौटी। “भाईजाँ! आपकी इस मुरीदी के लिबास को दुनियावी आँखे नहीं समझ सकती। दुनिया तो बस मख़ौल कर हौसले गिराना जानती है। बेहतर होगा कि आप अपने इस रूहानी हुस्न को उन्हीं पाक निगाहों के आगे बेपर्दा होने दे, जिसके लिए यह आबाद हुआ है।जो इसकी क़दर जानती हो। अभी फ़िलहाल जमाने के नजरो के सामने तो आप बुरखापोश होकर चले।”बुल्लेशाह आपा का सादिक इशारा और खैरख्वाही समझ रहा था, इसलिए भूरे रँग का वह बुरखा पहन लिया। आपा खुद काले बुरखे में थी। दोनों साथ-2 कोठे से उतरे और बग्गी में बैठ गए।उन्हें देख कुछ फ़नकारों ने टोका, “क्या हुआ? बुल्लेशाह मियाँ नहीं आ रहे?””नहीं, उनकी तबियत नासाज़ है।” कड़े रुख़ में इतना कहकर आपा ने मुँह सील लिये। बग्गियों का कारवाँ अब मज़ार की तरफ कूच करने लगा।

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