इस घटना के बाद अब, सब कुछ उन नन्हें योगियों का बदल जाने वाला था (भाग-2)

इस घटना के बाद अब, सब कुछ उन नन्हें योगियों का बदल जाने वाला था (भाग-2)


कल हमने सुना कि साधु स्वभाव के माता-पिता के देहांत के बाद संत ज्ञानेश्वर के मन में कई सवाल उठने लगे, तब उनके गुरुदेव श्री निवृतिनाथ ने उन्हें प्रेरित किया कि यह दोष समाज का नहीं समाज की अज्ञानता का है । समाज को अज्ञानता और कुरीतियों से मुक्त करना है, तो उन्हें उन्हीं की सरल भाषा सीख अर्थात शास्त्र ज्ञान देना होगा । विट्ठल और रुक्मणि के देहांत प्रायश्चित के बाद भी समाज चारों बच्चों को किसी भी तरह का सहयोग करने के लिए तैयार नहीं था ।

जिस शुद्धिकरण और जनेऊ-संस्कार के लिये उनके माता-पिता ने अपना जीवन त्याग दिया, निवृति नाथ को उसकी जरूरत ही नहीं महसूस होती थी । वह अपने अनुभवों से यह स्पष्ट देख पा रहे थे कि वह तो पहले से ही शुद्ध हैं और उन्हें किसी के प्रमाण-पत्र की आवश्यकता ही नहीं, लेकिन सभी की सोच थी कि इस शुद्धि-पत्र से ही वे चारों इस समाज में लोगों के साथ मिलकर लोक-कल्याण का कार्य कर पायेंगे । निवृतिनाथ ने नियति की इच्छा पूरी करने हेतु आलंदी के ब्राह्मणों के पास जाकर उनसे शुद्धि-पत्र देने के लिए अनुरोध किया ।

ब्राह्मणों ने उनसे कहा कि शास्त्रों से आगे जाकर हम कोई भी निर्णय नहीं दे सकते, क्योंकि यह हमारे अधिकार क्षेत्र से बाहर है लेकिन पैठण की धर्म-पीठ के पास यह अधिकार है वहां धर्म से संबंधित गलत आचरण पर विचार करके उस पर स्वतंत्र निर्णय दिया जा सकता है, अतः तुम पैठण जाकर वहां के धर्म-पीठ से शुद्धि-पत्र के लिए अनुरोध करो । ब्राह्मणों के इस सुझाव को स्वीकार करते हुये ज्ञानदेव और निवृतिनाथ ने उनसे निवेदन पत्र लिया और पैठण की ओर रवाना हो गये ।

जब चारों भाई-बहन वहां पहुंचे तो जो धर्म संकट आलंदी के ब्राह्मणों के सामने आया था, वही पैठण की धर्म-पीठ के सामने भी आकर खड़ा हो गया । उन्होंने भी इस विषय पर काफी चर्चा की, अंत में निर्णय हुआ, क्योंकि यह चारों बच्चे बड़े तेजस्वी और ज्ञानी हैं एवम् इनके माता-पिता देहांत प्रायश्चित भी कर चुके हैं, अतः इनसे कुछ प्रतिज्ञायें करवाकर इन्हें ब्राह्मण समाज में शामिल कर लिया जाये । धर्म-पीठ ने बच्चों से कुछ प्रतिज्ञायें करने के लिये कहा, जैसे वे आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करेंगे, सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलेंगे आदि-2 ।

इन प्रतिज्ञाओं को बच्चों ने सहर्ष मंजूर कर लिया, प्रतिज्ञाओं में से एक प्रतिज्ञा यह भी थी कि वे समाज के जातिवाद के नियमों का सम्मान करेंगे । ब्राह्मण के अतिरिक्त अन्य किसी को भी वेद-शास्त्र आदि ज्ञान नहीं सिखायेंगे, मगर संत ज्ञानेश्वर को यह प्रतिज्ञा मंजूर नहीं थी, इसी बात पर उनकी अन्य ब्राह्मणों से बहस हो गई । संत ज्ञानेश्वर का कहना था कि प्रत्येक जीव में उसी गुरूतत्व, उसी परम-चैतन्य ईश्वर का वास है, सभी समान हैं इंसानों में तो भेद की बात छोड़िये, जानवर एवम् किसी अन्य जीव में भी कोई भेद नहीं है ।

यह बात सुनकर वहां उपस्थित सभी ब्राह्मण आग-बबूला हो गये और उनका घोर विरोध करने लगे, तभी वहां से एक भैंसा जा रहा था ब्राह्मणों ने संत ज्ञानेश्वर को चुनौती दी कि यदि इस भैंसे की और तेरी आत्मा एक ही है तो इससे भी अपनी तरह बुलवा कर दिखा ।

इस पर संत ज्ञानेश्वर ने चुनौती को स्वीकार करते हुए भैंसे के आगे वेद-मंत्र बोलने शुरू किये, सबकी आंखें उस समय खुली की खुली रह गईं, जब भैंसे ने भी उन मंत्रों को दोहराना शुरू कर दिया ।

यह चमत्कार देखकर वहां उपस्थित सभी लोग बालक ज्ञानदेव के आगे नतमस्तक हो गये । कुछ जगहों पर यह कथा भी सुनने को मिलती है कि उस भैंसे को चाबुक से मारा गया और उसके निशान संत ज्ञानेश्वर के शरीर पर दिखाई दिये । इस घटना से सभी ब्राह्मणों का अहंकार चूर-2 हो गया, वहां उपस्थित कई ब्राह्मणों को अपने व्यवहार पर पश्चाताप हुआ और वे सभी ज्ञानदेव के सामने समर्पित हो गये । इस तरह कुछ ही क्षणों में पूरा माहौल प्रेम और भक्तिभाव से भर गया, इसके बाद सभी ब्राह्मणों ने चारों बच्चों को आसन देकर आदरपूर्वक उन्हें शुद्धि-पत्र भी दिया ।

इस घटना की कीर्ति चारों ओर फैल गई, उन बच्चों को न केवल समाज में मान्यता मिली, बल्कि सम्मान भी मिलने लगा, इसके बाद बालक ज्ञानदेव संत ज्ञानेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हो गए । संत ज्ञानेश्वर और उनके भाई-बहनों की कीर्ति हवा से भी तेज गति से फैल रही थी, चारों दिशाओं से कई लोग इन चार विद्वान बालकों को देखने के लिए आ रहे थे । इतनी कम आयु में उनका ज्ञान और विद्वता देखकर सभी बहुत प्रभावित हुये, वे सरल और लोक-भाषा में जन-सामान्य को सत्य का श्रवण करा रहे थे , जिससे हर वर्ग और जाति का इंसान उनसे सहजता से जुड़ पा रहा था ।

हर कोई उनसे एक ही निवेदन कर रहा था कि वे उन्हें कुछ मार्गदर्शन दें, उपदेश दें कि संसार के बंधनों से मुक्ति कैसे संभव है मोक्ष प्राप्ति का मार्ग क्या है, लोग उनके संदेशों को सुनने भी लगे । अपनी बातों से वे ना सिर्फ ज्ञान और भक्ति का प्रचार, प्रसार करने लगे बल्कि समाज में फैले अज्ञान, भेदभाव, गलत मान्यताओं का भी डटकर विरोध करने लगे । इस तरह उन्होंने समाज के जागरण का जो उत्तम लक्ष्य ठाना था उसकी शुरुआत हो चुकी थी ।

यह महापुरुषों की करुणा ही होती है कि पतित समाज में पदार्पण कर वे उन्हें पतितपावन करते हैं, इसलिए स्वामी शिवानंद जी कहते हैं कि जिसने गुरू प्राप्त किये हैं ऐसे शिष्य के लिए ही अमृत्व के द्वार खुलते हैं । जिन्होंने ईश्वर के दर्शन किये हैं ऐसे गुरू का संग और सहवास ही शिष्य पर गहरा प्रभाव डालता है ।

तमाम प्रकार के अभ्यास की अपेक्षा गुरू का संग श्रेष्ठ है, गुरू का सत्संग शिष्य का पुनर्जन्म करने वाला मुख्य तत्व है, वह उसे दिव्य प्रकाश देता है और उसके लिए स्वर्ग के द्वार खोल देता है ।

साधकों को इतना ध्यान में रखना चाहिए कि केवल पुस्तकों का अभ्यास करने से या वाक्य रटने से अमृत्व नहीं मिलता, उससे तो वे अभिमानी बन जाते हैं जिसके द्वारा जीवन का कूट प्रश्न हल हो सके ऐसा सच्चा ज्ञान तो गुरू कृपा से ही प्राप्त हो सकता है केवल बुद्धिमान व्यक्ति के रूप में एक व्यक्ति की कोई अहमियत नहीं है उसे वास्तविकता का ज्ञान नहीं है किन्तु जब वह व्यक्ति गुरू के संपर्क में आता है तब उसमें सच्चा ज्ञान, सच्ची शक्ति और सच्चा आनंद प्रकट होता है वे गुरू भी ऐसे हों, जिन्होंने परमात्मा के साथ तादात्मय स्थापित किया हो ।

आगे की कहानी कल की पोस्ट में दी जाएगी….

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