गुरुभक्तियोग दिव्य सुख के द्वार खोलने के लिए गुरू चाबी है, गुरुभक्तियोग के अभ्यास से सर्वोच्च शांति के राजमार्ग का प्रारम्भ होता है । सदगुरु के पवित्र चरणों में आत्म-समर्पण करना ही गुरुभक्ति की नींव है, गुरू की संपूर्णताः शरणागति लेना गुरुभक्ति की अनिवार्य शर्त है जो गुरू मुक्तात्मा हैं, उनके कार्य को अश्रद्धा से या संदेह से नहीं देखना चाहिए ।
ईश्वर, मनुष्य एवम् ब्रह्माण्ड के विषय में सच्चा ज्ञान गुरू से लिया जाता है । भक्तिमति रुक्मणि और उनके पति विट्ठलपंत दोनों के जीवन में सत्य और भक्ति के अलावा किसी दूसरी चीज का महत्व ना था इसलिए समाज से बाहर निकाले जाने पर उन्हें ज्यादा फर्क नहीं पड़ा । विट्ठलपंत अपनी चारों संतानों की आध्यात्मिक उन्नति देखकर बहुत प्रसन्न होते थे ।
निवृतिनाथ ने तो गुरू गहनीनाथ द्वारा ईश्वर साक्षात्कार कर लिया था और अब वही ज्ञान ज्ञानदेव को भी दे रहे थे, लेकिन उनकी संतानों को भी उनके कारण सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ रहा था, जिसकी चिंता विट्ठलपंत और रुक्मणि को सता रही थी, इस कारण से बच्चों का जनेऊ-संस्कार यज्ञोपवीत नहीं हो पा रहा था ।
उस समय की मान्यता के अनुसार एक ब्राह्मण के लिए जनेऊ-संस्कार अति आवश्यक कर्म था जैसे एक सैनिक हथियार के बिना अधूरा समझा जाता है, ऐसे ही एक ब्राह्मण जनेऊ-संस्कार के बिना अधूरा समझा जाता था । अपने बच्चों के भविष्य की चिंता करते हुये विट्ठल ने बार-2 ब्राह्मण वर्ग से अनुरोध किया कि वे कम से कम बच्चों के ऊपर से सामाजिक बहिष्कार हटा दें और उनका जनेऊ-संस्कार होने दें, लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी ब्राह्मणों का दिल नहीं पिघला ।
उन्होंने हर बार यही जवाब दिया कि शास्त्रों में तुम्हारे अपराध के लिए कोई क्षमा प्रायश्चित ही नहीं है, इसका दंड तो पूरे परिवार को ही भुगतना पड़ेगा । तुम्हारे बच्चे सन्यासी के बच्चे हैं, उनकी हमारे समाज में कोई जगह नहीं, बार-2 ना सुनने पर भी विट्ठलपंत ने अपने प्रयास नहीं छोड़े । एक दिन फिर से वह ब्राह्मण समाज से इसी बारे में याचना कर रहे थे कि क्या किसी प्रकार उनके इस अपराध का प्रायश्चित संभव है इस बार समाज के प्रतिष्ठित, मगर अहंकारी ब्राह्मणों ने उनसे कहा कि इस कलंक का प्रायश्चित तो बस देहांत प्रायश्चित ही है ।
विट्ठल ने सोचा यदि उन्होंने देहांत प्रायश्चित नहीं किया तो उनकी चारों संतानों का भविष्य अंधकार-मय हो जायेगा, ब्राह्मण उन्हें कभी स्वीकार नहीं करेंगे और उनका जनेऊ-संस्कार नहीं होगा । उनके बच्चों को भी पूरा जीवन बहिष्कृत होकर ना जीना पड़े, इसलिए विट्ठल ने देहांत प्रायश्चित करने का निर्णय ले लिया, उनके इस निर्णय में रुक्मणि भी सहभागी बनी ।
एक रात उन दोनो ने अपनी संतानों को उस असीम परमात्मा के हाथों में सौंप कर नदी में जल-समाधि लेकर अपने प्राण त्याग दिए । देहांत प्रायश्चित के साथ विट्ठल, रुक्मणि की संसार रूपी रंगमंच पर खेली जाने वाली भूमिका पूरी हुई और उन्होंने रंगमंच से विदा ले ली । दोनों ने संत संतानों के अभिभावक की भूमिका पूरी तरह निभाई, उन्होंने अपनी संतानों के साथ जितना समय बिताया, उसमें बहुत बड़ा कार्य संपन्न किया ।
उन्होंने इन महान विभूतियों को जन्म देकर बचपन से ही सच्चे अध्यात्म का सार समझाया और दुख में भी खुश रहने की कला सिखाई । उस समय चारों बच्चों की आयु बड़ी ही छोटी थी, इस आयु में जब बच्चों को मां-बाप की सबसे ज्यादा आवश्यकता होती है वे चारों बच्चे अनाथ हो गए, मगर ऐसा प्रायश्चित करवाकर भी निर्दयी समाज को अनाथ बच्चों पर दया नहीं आयी ।
बच्चों को समाज में सम्मान तो नहीं मिला, उल्टा उनके सिर से अपने मां-बाप का साया भी हट गया । हम कल्पना कर सकते हैं कि वह समय कितने अभाव और कष्टों से गुजारा होगा । अपने संत स्वभाव के माता-पिता के इस तरह अकारण ही देहांत प्रायश्चित करने से बालक ज्ञानदेव के मन में अनेक सवाल खड़े हुए कि आखिर उनकी गलती क्या थी उन्हें किस बात का प्रायश्चित करना पड़ा, इन सवालों को धीरे-2 उनके गुरुदेव श्री निवृति नाथ जी ने सुलझाया ।
विट्ठल नाथ से गुरू के साथ महा कपट करने का अपराध हुआ था जिसका फल उनके सामने देहांत प्रायश्चित के रूप में आया । हर कर्म बंधन बांधता है अच्छा है तो अच्छा फल, बुरा कर्म है तो बुरा फल, ये कुदरत के स्वचलित नियम हैं जैसे इंसान के विचार होते हैं, जैसे उसके कर्म होते हैं वैसे ही उसके जीवन में आगे की घटनाएं आती रहती हैं कुदरत में यह सब कुछ स्वचलित और स्वघटित होता जाता है ।
विट्ठल के कपट के कारण देहांत प्रायश्चित की घटना सामने आयी और देहांत प्रायश्चित की घटना से चारों बच्चों के जीवन को नया मोड़ मिला । आध्यात्मिक और सज्जन होते हुए भी माता-पिता के देहांत प्रायश्चित के कारण ज्ञानदेव के मन में अनेकों सवाल खड़े हुये, इन सवालों से उनके मन में मानव समाज को ज्ञान की आंख देकर उनकी चेतना बढ़ाने के भाव बीज पड़े और उस महान कार्य को करने की ऊर्जा और राह मिली उनके गुरुदेव के द्वारा जिसे करने के लिए पृथ्वी पर आए थे ।
इस तरह समाज के उद्धार में अपना उच्चतम योगदान देकर विट्ठल, रुक्मणि ने संसार से विदा ली । अब ज्ञानदेव और उनके भाई, बहन की दिव्य योजना का अगला चरण शुरू हुआ, जिनमे उन्हें अपने जीवन से लोगों के सामने सवाल खड़े करने थे कि जब ये बच्चे इतने अभावों के साथ भी सत्य के मार्ग पर चल सकते हैं तो हम क्यूं नहीं चल सकते ।
जब लोगों को सत्य की राह पर चलने के लिए कहा जाता है तो उनके पास बहानों की लंबी सूची होती है, अभी तो इन बातों के लिए छोटी उम्र है, अभी कहां ये सब बड़ी बातें समझ में आएंगी, पहले यह तो हो जाए, वह हो जाए उसके बाद ही संभव है ऐसे बहानों के सामने संत ज्ञानेश्वर जैसे उदाहरण खड़े किए जा सकते हैं कि यह बच्चे कर गए तो हम भी कर सकते हैं अपने माता-पिता की मृत्यु देखकर बालक ज्ञानदेव व्याकुल हो उठे ।
उनके मन में सदैव यही प्रश्न रहता कि ईश्वर की भक्ति में लीन रहते थे माता-पिता तो फिर समाज द्वारा उनको ऐसा कठिन दंड क्यूं दिया गया । ज्ञानदेव की सवाल उठने और जवाब देने की पात्रता तैयार हुई तो उन्हें जवाब देने वाले सदगुरु, निवृतिनाथ जी के रूप में, घर में ही उपलब्ध हो गए । गुरुदेव ने ज्ञानदेव को समझाया कि दोष समाज का नहीं बल्कि समाज के अज्ञान का है, समाज के पास वह ज्ञान ही नहीं पहुंच पा रहा जो उसकी गलत मान्यताओं और सोच को हटा सके।
जो उसे सत्य का दर्शन करा सके, ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि ज्ञान की किताबें जिस भाषा, संस्कृत भाषा में हैं वह जनसामान्य की भाषा नहीं है । जनसामान्य उस ज्ञान को समझ नहीं पा रहा है जो कुछ चुनिंदा लोग समझ पा रहे हैं वे उसे अपने जीवन में उतार नहीं पा रहे । कई लोग उस ज्ञान को अपने फायदे के लिए भोली-भाली आम जनता तक नहीं पहुंचने दे रहे, उन्होंने इस ज्ञान को अपनी दुकान चलाने का जरिया बना लिया है।
और उसे अपनी सुविधा अनुसार तोड़-मरोड़कर समाज के आगे प्रस्तुत किया है इसलिए उन्होंने ऐसे नियम भी बना दिए कि ब्राह्मणों के अलावा कोई और वेद पाठ नहीं कर सकता, स्त्रियां वेद पाठ नहीं कर सकती, बिना जनेऊ-संस्कार के कोई ज्ञान पाने और बांटने का अधिकारी नहीं । जब समाज को उसी की भाषा में ज्ञान मिलेगा तो वह ज्ञान उनके जीवन में उतरेगा, जीवन में उतरेगा तो उसकी गलत मान्यतायें टूटेंगी, जिससे व्यक्ति को सही गलत में फर्क पता चलने लगेगा, उसकी चेतना बढ़ेगी और फिर वह स्वयं ही सही उत्तर खोज लेगा कि बेहतर क्या है।
ऐसे ही अनादिकाल से हम देखते सुनते आ रहे हैं कि सदगुरु सदैव अपने सतशिष्य को कोई-ना-कोई निमित्त बना कर जनसाधारण में भेजते ही आये हैं ताकि अन्य पतित जनों का भी कल्याण हो, जैसे ज्ञानदेव को उनके सदगुरु निवृति नाथ जी ने प्रेरित किया, स्वामी विवेकानंद को उनके सदगुरु रामकृष्ण जी ने प्रेरित किया, छत्रपति शिवाजी को उनके गुरुदेव समर्थ स्वामी ने प्रेरित किया, साईं लीलाशाह महाराज जी को स्वामी केशवानंद जी ने प्रेरित किया और हमारे पुज्यश्री को जैसे हमारे दादागुरु ने प्रेरित किया ।
आगे की कहानी कल की पोस्ट में दी जाएगी…..