समुद्र तथा समुद्र में गिरने वाली नदियों के तट पर, गौशाला में जहाँ बैल न हों, नदी-संगम पर, उच्च गिरिशिखर पर, वनों में लीपी-पुती स्वच्छ एवं मनोहर भूमि पर, गोबर से लीपे हुए एकांत घर में नित्य ही विधिपूर्वक श्राद्ध करने से मनोरथ पूर्ण होते हैं और निष्काम भाव से करने पर व्यक्ति अंतःकरण की शुद्धि और परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति कर सकता है, ब्रह्मत्व की सिद्धि प्राप्त कर सकता है।
अश्रद्दधानाः पाप्मानो नास्तिकाः स्थितसंशयाः।
हेतुद्रष्टा च पंचैते न तीर्थफलमश्रुते।।
गुरुतीर्थे परासिद्धिस्तीर्थानां परमं पदम्।
ध्यानं तीर्थपरं तस्माद् ब्रह्मतीर्थं सनातनम्।।
श्रद्धा न करने वाले, पापात्मा, परलोक को न मानने वाले अथवा वेदों के निन्दक, स्थिति में संदेह रखने वाले संशयात्मा एवं सभी पुण्यकर्मों में किसी कारण का अन्वेषण करने वाले कुतर्की-इन पाँचों को पवित्र तीर्थों का फल नहीं मिलता।
गुरुरूपी तीर्थ में परम सिद्धि प्राप्त होती है। वह सभी तीर्थों में श्रेष्ठ है। उससे भी श्रेष्ठ तीर्थ ध्यान है। यह ध्यान साक्षात् ब्रह्मतीर्थ हैं। इसका कभी विनाश नहीं होता।-वायु पुराणः 77.127.128
ये तु व्रते स्थिता नित्यं ज्ञानिनो ध्यानिनस्तथा।
देवभक्ता महात्मानः पुनीयुर्दर्शनादपि।।
जो ब्राह्मण नित्य व्रतपरायण रहते हैं, ज्ञानार्जन में प्रवृत्त रहकर योगाभ्यास में निरत रहते हैं, देवता में भक्ति रखते हैं, महान आत्मा होते हैं। वे दर्शनमात्र से पवित्र करते हैं। – वायु पुराणः 79.80
काशी, गया, प्रयाग, रामेश्वरम् आदि क्षेत्रों में किया गया श्राद्ध विशेष फलदायी होता है।