‘कल्याणी या अतिकल्याणी?’….

‘कल्याणी या अतिकल्याणी?’….


ईमानदारी के सिवाय गुरूभक्तियोग में बिल्कुल प्रगति नहीं हो सकती।

महान योगी गुरू के आश्रय में उच्च आध्यात्मिक स्पन्नदनोंवाले शान्त स्थान में रहो। फिर उनकी निगरानी में गुरूभक्तियोग का अभ्यास करो। तभी आपको गुरूभक्तियोग में सफलता मिलेगी।

ब्रह्मनिष्ठ गुरू के चरणकमल में बिनशर्ती आत्मसमर्पण करना ही गुरूभक्तियोग का मुख्य सिद्धान्त है।

दयानन्द सरस्वती गुरु विराजनन्दजी के आश्रम में विद्याध्ययन करते थे । उनका गुरुभाई सदाशिव आलसी एवं उदण्ड था ।

एक दिन गुरुदेव ने प्रवचन में समझाया : “समय का सम्मान करो तो समय तुम्हारा सम्मान करेगा । समय का सदुपयोग ही उसका सम्मान है । जो सुबह देर तक सोते है, पढ़ाई के समय खेलते हैं तथा आलस्य, निद्रा और व्यर्थ के कामों में समय बर्बाद करते हैं, समय उनसे प्रतिशोध लेता है ।”

एक दिन मंदिर के प्रांगण में दयानन्दजी और सदानन्द ने 2 समान मूर्तियां देखी । लेकिन एक के हाथ मे लोहे का दंड था वो नीचे लिखा था ‘अतिकल्याणी’ तथा दूसरी के नीचे लिखा था ‘कल्याणी’ । आकर गुरुजी से उनका रहस्य पूछा तो बोले : “ये मूर्तियां काल की स्वामिनी 2 देवियों की हैं। ‘कल्याणी’ उनका कल्याण करती है जो समय का सम्मान करता है। तथा ‘अतिकल्याणी’ उसका कल्याण करती है जो समय का सम्मान नहीं करता ।

परन्तु तुम्हें अतिकल्याणी का उपासक नहीं बनना है ।”

सदाशिव ने सोचा, ‘कल्याण ही करना है तो अतिकल्याणी से भी हो जाएगा।’

उसमें कोई सुधार नही हुआ, फलतः उसे आश्रम से निकाल दिया गया ।

समय बीता। दयानन्द जी गुरुज्ञान के प्रचार हेतु भारत भ्रमण कर रहे थे । मथुरा के निकट एक गाँव मे उनकी दृष्टि सिर पर तसला और कंधे पर फावड़ा रखे तेजी से जा रहे एक व्यक्ति पर पड़ी ।

“सदाशिव!”

“ओह, दयानन्द ! तुम तो बड़े महंत बन गए हो !”

“लेकिन तुमने क्या हाल बना रखा है ?”

“गुरु विरजानन्द के पाखंड का फल भोग रहा हूँ ।”

“क्या मतलब?”

“उन्होंने कहा था कि अतिकल्याणी उसका भी कल्याण करती है जो समय का सम्मान नहीं करता । मेरा कल्याण कहाँ हुआ ?”

“मथुरा में मेरा प्रवचन है, आ सकते हो?”

“बिल्कुल फुर्सत नहीं है फिर भी देखूँगा।”

प्रवचन शुरू हुआ। श्रोताओं में सबसे पीछे सदाशिव बैठा है।

दयानन्द जी ने प्रवचन की दिशा बदली और उन मूर्तियों वाला पूर्व प्रसंग और गुरदेव का बताया हुआ उसका अर्थ दोहराया।

फिर बोले : “मूर्ख समझता है कि समय का सम्मान किये बिना भी उसका कल्याण सम्भव है तो समयशील क्यों बने?

मनमुख यह नईं सोचता कि अतिकल्याणी के हाथ मे कौन सा दंड है और वह क्यों है ? ‘

वह है ‘काल-दण्ड’ और उसे कल्याण मार्ग पर जबरन चलाने के लिए ईश्वर की कृपापूर्ण व्यस्था है। समझदार व्यक्ति गुरु के उपदेश मात्र से समय का महत्व जान लेता है और मूर्ख अतिकल्याणी के कठोर दण्ड से दंडित होकर ! दण्ड पाकर भी जो उसके लिए गुरु को दोषी ठहराता है वह तो महा मूर्ख है, मन्दमति

है । अतः कालदण्ड से बचो।”

सदाशिव को अपनी भूल का अहसास हो गया ।

जो समय बर्बाद करता है समय उसे बर्बाद कर देता है।

ब्रह्मवेत्ता महापुरुष के वेदांत से सराबोर सत्संग का श्रवण – मनन

उनकी दैवी सत्प्रवृत्तियों में सहभाग, भगवद-स्मृति, प्रीति व शांति – विश्रांति में समय लगाना ही उसका सदुपयोग है ।

-स्वामी दयानंद सरस्वती

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