सब कुछ बदल गया, नरेंद्र को अब रामकृष्ण परमहंसजी न तो देखते, न बात ही करते…

सब कुछ बदल गया, नरेंद्र को अब रामकृष्ण परमहंसजी न तो देखते, न बात ही करते…


गुरु में श्रद्धा गुरुभक्तियोग की सीढ़ी का प्रथम सोपान है। गुरु में श्रद्धा दैवी कृपा प्राप्त करने के लिए शिष्य को आशा एवं प्रेरणा देती है। गुरु में सम्पूर्ण विश्वास रखो। तमाम भय, चिंता और जंजाल का त्याग कर दो। बिल्कुल चिंतामुक्त रहो। गुरुवचन में श्रद्धा अखूट बल, शक्ति एवं सत्ता देती है। संशय मत कर। हे शिष्य! आगे बढ़।

जब नरेंद्र पक्के शिष्य बन गये तो सब बदल गया। पहले तो रामकृष्ण परमहंस हमेशा उनका इंतजार करते रहते थे और हर एक से पूछते रहते कि नरेंद्र आया या नहीं। लेकिन अब सब उल्टा हो गया था। जब नरेंद्र ने रामकृष्ण परमहंस की परीक्षा लेनी बंद कर दी, तो गुरु ने अर्थात ठाकुर ने नरेंद्र की परीक्षा लेनी शुरू कर दी।

अब जब नरेंद्र उनके पास आकर बैठते तो रामकृष्ण परमहंस उनकी तरफ देखते तक नहीं और न ही पहले की तरह उन्हें भजन गाने के लिए कहते थे। हर दिन आश्रम में कई गतिविधियाँ होती, लेकिन नरेंद्र की तरफ कोई ध्यान ही नहीं देता। जब कोई चर्चा होती तो सारे शिष्य रामकृष्ण परमहंस के पास आकर बैठ जाते। वे सभी से सवाल-जबाब करते, लेकिन नरेंद्र से कोई बात नहीं करते।

इस तरह करीब एक महीना बीत गया और रामकृष्ण परमहंस का नरेंद्र के प्रति यह व्यवहार जारी रहा। नरेंद्र भी जैसे हमेशा आया करते थे वैसे ही आते रहे। करीब एक और महीना बीतने के बाद ठाकुर ने उनसे पूछा, “अरे! इतने दिनों से मैंने तुमसे बात तक नहीं की, तुम्हारी तरफ देखा तक नहीं, फिर भी तुम क्यों आते हो।”

नरेंद्र ने कहा, “मैं आपकी बाते सुनने थोड़े ही आता हूँ। मैं तो आपको देखने आता हूँ, आपके दर्शन करने आता हूँ।”

उनकी बात सुनकर रामकृष्ण परमहंस समझ गये, कि अब वे शिष्य से भक्त बन चुके है।रामकृष्ण परमहंस यह सोचकर बहुत खुश हुए कि चलो, अब नरेंद्र कम से कम आगे बढ़ने के लिए तैयार तो हुआ।

इसके बाद भी ठाकुर ने नरेंद्र की परीक्षा ली। ठाकुर को पता था कि ईश्वर की खोज के साथ हर धर्म में क्या-2 चलता है। उन्होंने तो सभी साधनाएँ की थी और हर धर्म व पंथ हिंदू- मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई आदि का अभ्यास भी किया था।

एक दिन ठाकुर ने नरेंद्र से कहा, “साधनाएँ करते हुए मुझे कुछ सिद्धियाँ प्राप्त हुई है और अब मैं वे सिद्धियाँ तुम्हें देना चाहता हूँ।”

यह नरेंद्र के लिए बड़ी परीक्षा थी।
घोर परिश्रम से मिलने वाली चीज मुफ्त में मिल रही थी तो वे ना कैसे कहते ? नरेंद्र ने ठाकुर से पूछा, “ये सिद्धियाँ पाने के बाद क्या होगा?”

ठाकुर ने बताया कि, ” ज्ञान पा लेने के बाद सिद्धियाँ तुम्हारी अभिव्यक्ति के काम आयेगी। यह तुम्हारा वैभव बनेगी।”

यह सुनकर नरेंद्र और ज्यादा दुविधा में पड़ गया। क्योंकि यदि आगे ये सिद्धियाँ काम आ सकती है, तब तो ना कहना बड़ा मुश्किल है। कुछ सोचकर उन्होंने फिर से पूछा, “ठाकुर! क्या सिद्धियाँ प्राप्त करने से ईश्वरप्राप्ति में मदद मिलेगी?”

ठाकुर ने कहा, “नहीं।”

तब नरेंद्र ने झट से कहा, “अगर ऐसा है तो मुझे ये सिद्धियाँ नहीं चाहिए। पहले ईश्वरप्राप्ति तो हो, बाद में सिद्धियों के बारे में सोचेंगे।”

नरेंद्र ऐसे लाजवाब शिष्य थे, जिन्हें स्वअनुभव, अंतिम सत्य से कम कुछ और स्वीकार ही न था। वे सिर्फ वही पाना चाहते थे, जिसकी उन्हें प्यास थी।

ठाकुर नरेंद्र से कहते थे, तुम जिस भी रूप में ईश्वर को पुकारते हो, उसका ध्यान करते रहो, वह करते रहो। अगर तुम ईश्वर को अपने तरीके से स्वीकार करना चाहते हो तो उसी तरह ध्यान और प्रार्थना करते रहो। जिस दिन वह प्रार्थना पूरी हो जाएगी, उस दिन से तुम्हारी आस्था उसी स्वरूप में हो जाएगी। तुम उसीको मानने लगोगे।

इसलिए नरेंद्र ने सिद्धियों के प्रस्ताव को सुनकर कहा, मुझे ऐसी सिद्धियाँ नहीं चाहिए, जिनमें मैं अटक और भटक सकता हूँ। मुझे उनकी कोई जरूरत नहीं है।

ठाकुर के कई और शिष्य भी थे। एक दिन उन्होंने तय किया कि उन सभी को संन्यास की दीक्षा दी जानी चाहिए। ठाकुर ने कुछ शिष्यों को बुलाया और फिर नरेंद्र से कहा, ” नरेंद्र तुम इनके नेता हो। यह भगवा वस्त्र पहनो और भिक्षा मांगने जाओ।”

कहा तो नरेंद्र आत्मगौरव से भरपूर और ठाकुर उनसे भिक्षा मांगने को कह रहे हैं। “नरेंद्र क्या तुम यह कर पाओगे?”

नरेंद्र ने हाँ में जबाब दिया और नरेंद्र ने जाकर भिक्षा मांगी।गुरुआज्ञा में नरेंद्र सफल हुए।

दरअसल गुरु ऐसे लाजवाब शिष्य चाहते हैं, जो ईश्वर से कम कुछ नहीं चाहता। उनकी चाहत उस परम अवस्था को पाने की होती है। स्वामी विवेकानंद ऐसे ही लाजवाब शिष्य थे, जो गुरु की आज्ञा पर चलते हुए उस परम गति को उपलब्ध हुए।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *