जो शिष्य गुरुकुल में रहते हो उन्हें इस नाशवंत दुनिया की किसी भी चीज की तृष्णा न रहे इसके लिए हो सके अपना प्रयास करना चाहिए। जिसने गुरु प्राप्त किए हैं ऐसे शिष्य के लिए ही अमरत्व के द्वार खोलते हैं।
साधकों को इतना ध्यान में रखना चाहिए कि केवल पुस्तकों का अभ्यास करने से या वाक्य रटने से अमरत्व तो नहीं मिलता। उससे तो वे अभिमानी बन जाते हैं। जिसके द्वारा जीवन का कूट प्रश्न हल हो सके ऐसा सच्चा ज्ञान तो गुरु कृपा से ही प्राप्त हो सकता है।
जिन्होंने ईश्वर के दर्शन किए हैं ऐसे गुरु का संग और सहवास ही शिष्य पर गहरा प्रभाव डालता है। तमाम प्रकार की अभ्यास की अपेक्षा गुरु का संग श्रेष्ठ है।
एक बार गुरु मौज में आकर अपनी मस्ती में चल पड़े पीछे पीछे शिष्य चल पड़ा।
यात्रा लंबी थी यात्रा में बीहड़ जंगल, नदी, नाले राहों में बिछे थे। सूफी संत जुन्नैद अल्लाह की धुन में बढ़े जा रहे थे। पीछे पीछे चल रहा था उनका एक शागिर्द अर्थात शिष्य , एक पड़ाव पर नदी आई जुन्नैद तो अपनी नाम धुन मस्ती में मस्त थे वे या अल्लाह.. या अल्लाह.. कहते कहते नदी की लहराती धाराओं पर चलने लगे। गुरू को नदी के लहरों पर चलते देख शिष्य थोड़ा थम सा गया।
फिर शिष्य ने भी गुरु के पद चिन्हों का अनुसरण किया। बस मंत्र बदल दिया। अपने सद्गुरु का नाम उच्चार उठा या जुन्नैद.. या जुन्नैद.. उसके यह कहते ही नदी संगमरमर का फर्श हो गई। शिष्य अपने सद्गुरु का नाम रटता हुआ नदी को सहज में पार कर गया।
यह देख तट बंधो ने उससे पूछा “तेरे मुर्शिद अर्थात गुरु ने तो या अल्लाह जपा फिर तूने याद जुन्नैद अपने मुर्शिद का नाम क्यो रटा ?”
शिष्य बोला “जब आगे आगे जीता जागता खुदा चल रहा हो तो किसी दूसरे खुदा को क्यों पुकारू” ?
सतगुरु के नाम में वह शक्ति है जो समस्त कायनात को एक खिलौना बना कर शिष्य के चरणों में समर्पित कर देती है। सद्गुरु का नाम ही तारक है उद्धारक है अर्थात सतगुरु का सुमिरन उनका चिंतन ही शिष्य को स्वयं समर्थ बना देता है और उसे स्वस्थित कर स्वच्छंदता प्रदान करता है।
भारत के महानतम दार्शनिक भगवान आद्य शंकराचार्य जी गुरु की महिमा गाते हुए कहते हैं कि तीनो ल़ोको मे गुरु का कोई समतुल्य नहीं है यदि पारस मणि की तुलना भी गुरू से की जाए तो पारस मणि केवल लोहे को स्वर्ण में रूपांतरित कर सकता है, दूसरी पारस मणि में रूपांतरित नहीं कर सकता सद्गुरु के चरणों में जो आश्रय लेते हैं। उन्हें गुरु अपने समान ही बना देते हैं इसलिए गुरु निरुपम ही है निरुपम ही नहीं बल्कि अलौकिक है।
गुरू जागृत ईश्वर है जो शिष्य में निद्राधीन ईश्वर को जगा रहे है। सहानुभूति एवं दिव्य दृष्टि के माध्यम से सद्गुरु देखते हैं, कि भगवान स्वयं ही शारीरिक मानसिक एवं आध्यात्मिक स्तर पर दुर्बल मनुष्यों में दुख भोग रहे है। इसलिए गुरू ऐसे लोगों की सहायता करना अपना हर्षप्रद कर्तव्य मानते हैं। वह निराश्रित लोगों में क्षुधा पीड़ित भगवान को भोजन देने का, अज्ञानी लोगों में निद्रीस्त भगवान को जगाने का शत्रुओं में अचेत भगवान से प्रेम करने का तथा लालायित भक्त में अर्धजागृत भगवान को उठाने का प्रयास करते है।
उन्नत साधक मे वह स्पर्श मात्र से लगभग पूर्ण जागृत भगवान को तुरंत जगा देते हैं।
गुरू ही मनुष्यों में सर्वोत्तम दाता है। स्वयं भगवान के समान ही सद्गुरु की उदारता की भी कोई सीमा नहीं होती।