वीर गुरुभक्त बसन्तलता की महान दास्तान (भाग-1)

वीर गुरुभक्त बसन्तलता की महान दास्तान (भाग-1)


गुरु के उपदेश में अविचल और अविरत श्रद्धा सच्ची भक्ति का मूल है। गुरु सदैव अपने शिष्य के हॄदय में बसते है। कबीर जी कहते है-

*गुरु और गोविंद दोनों मेरे समक्ष खड़े है तो मैं किसको प्रणाम करुं??* धन्य है वे गुरुदेव जिन्होंने मुझे गोविंद के दर्शन करवाये । केवल गुरु ही अपने योग्य शिष्य को दिव्य प्रकाश दिखा सकते हैं।

हर रोज सेवा का प्रारम्भ करने से पहले शिष्य को मन में निश्चय करना चाहिए कि पूर्व की अपेक्षा अब अधिक भक्ति भाव से एवं अधिक आज्ञाकारिता से गुरु की सेवा करूँगा।

श्री गुरुगोविंद सिंह जी का दरबार मात्र एक दरबार भर नहीं था। वह तो एक ऐसी सुंदर बगिया थी जहां नित नए भक्तो की निराली कलियां फूल बनती थी और उनकी खुशबू पूरी दुनिया मे फैल जाया करती थी। वह दरबार बलिदानों की एक ऐसी भट्टी भी था जहां वीर गुरुभक्त लकड़ियां नही बल्कि अपनी हड्डिया जलाकर उसे प्रचंड रखते थे। उस रूहानी दरबार की ऐसी ही एक विलक्षण भक्त थी बसन्तलता। बचपन से ही बसन्तलता गुरु घर में रहकर सेवा करने लगी थी। सेवा करते-करते वह कब बचपन की दहलीज़ पार कर गयी उसे पता ही नही चला अब बसन्तलता के पास विवेकपूर्ण सुलझी हुई सोच थी।बचपन से ही गुरु घर की सेवा करने से उसका मन इतना पवित्र हो चुका था उसमें विकारों की दुर्गंध के लिए कोई स्थान नही था। दुर्लभ होते हैं ऐसे मृग जो शिकारी के संगीत पर अपना मन न्यौछावर नही करते। बसन्तलता भी ऐसी ही थी जिसके अंदर संसार के राग रागनियों की कोई आहट नही थी वह पूरी निष्ठा से गुरु दरबार मे सेवा करती और माता साहिब कौर के साथ उन्ही के भवन में रहती।

फिर अचानक समय ने करवट बदली गुरुदेव की पावन छत्र छाया में जो आनंदपुर का किला हर पल दिवाली की तरह जगमगाता रहता था, उसे एक दिन मुगलो ने चारों तरफ से घेर लिया। बाहर से खाना पानी जाना भी बंद कर दिया इसके पीछे उनकी सोच यह थी कि जब किले के अंदर पशु तथा इंसानों के लिए खाने का अकाल पड़ जायेगा तो सबको बाहर आना ही पड़ेगा उस समय वे सभी का सिर कलम कर देंगे।परन्तु रेशम के धागे से आजतक कोई बहते दरिया के बहाव को नही बांध सका है। उधर किले के बाहर मुगल तथा पहाड़ी राजाओं के नापाक इरादे थे इधर किले में गुरुभक्तों की सुंदर भावनाएं थी।

मुगलो के जुल्म की इस भट्टी में गुरुमहाराज जी का छोटे से छोटा तथा बड़े से बड़ा शिष्य भक्ति के नूर से और चमक रहा था। बूढ़े शरीरों में भी जोश तथा जज्बा वेगवान हो उठा। गुरु के सिंह हर समय अस्त्र शस्त्र से सजे तैयार रहते। इस गम्भीर स्थिति में बसन्तलता भी योद्धाओं वाले वस्त्र धारण कर हाथ मे नंगी तलवार ले दुश्मनों से लोहा लेने को तैयार रहती। माता साहिब कौर के भवन की सुरक्षा की जिम्मेदारी बसन्तलता की थी। परन्तु अन्न पानी की कमी से सभी गुरुभक्तों के पेट रीड की हड्डी से चिपक गए लेकिन उनके हौसले कम नही हुए। जब मुगलो को यह बात पता चली तो उन्होंने एक चाल चली किले में फरमान भिजवा दिया कि- हमे पाक कुरान की कसम हम कोई खून खराबा नही चाहते बस हमे किले पर कब्जा चाहिए यदि गुरुदेव अपने सिंहों समेत किला छोड़ दे तो हम उन्हें कुछ नही कहेंगे। इसका प्रभाव यह हुआ कि कुछ सिक्ख चाल में फंस गए और गुरुदेव को किला छोड़ने के लिए कहने लगे वही ज्यादातर सिक्खों का कहना था कि उन्हें किला नही छोड़ना चाहिये चाहे सब भूख की वेदी पर स्वाहा क्यों न हो जाये। परन्तु हालात ऐसे बने गुरूसाहेब ने किला छोड़ने का निर्णय ले लिया अपनी पूरी लश्कर समेत गुरुजी सायंकाल किले से बाहर आ गए सूरज छिपने जा रहा था शायद आने वाले भयानक तथा दिल दहलाने वाली मंजर का गवाह बनने की शक्ति उसमे न थी।

बसन्तलता माता साहीब कौर, माता गुजरी जी, माता सुंदरी जी को पालकी में बिठाकर साथ-साथ चल रही थी उसके हाथ मे चमचमाती तलवार थी। वाह!! गुरुदेव की कृपा देखिए जिस उम्र में लड़कियों की बाहें चूड़ियों का भार भी मुश्किल से सहन कर पाती है उन्ही कलाइयों से बसन्तलता धरती से भी भारी गुरु परिवार की इज्जत का भार उठा रही थी। बसन्तलता रात के समय गुरु परिवार के साथ-साथ सरसा नदी के किनारे चलती जा रही थी अंधेरे के कारण दूर-दूर तक कुछ भी दिखाई नही दे रहा था। थोड़ी ही देर में घोड़ो की दगड-दगड करती आवाजे सुनाई देने लगी। बसन्तलता चौकन्नी हो गई उसे समझते देर न लगी कि मुगल कसम खाकर मुकर गए है। देखते ही देखते मुगलो ने हो हल्ला करते हुए सिक्खों पर चढ़ाई कर दी। हमला होते ही तेज बारिश तथा आंधी चलने लगी ऐसा लग रहा था कि मुगल फौजो के हमले के साथ ही कुदरत ने भी अपना भयानक रूप धारण कर लिया हो परन्तु अब क्या हो सकता था?? अचानक हुए इस हमले ने सिक्खों को सम्भलने का मौका ही नही दिया सिक्खों ने जी जान से मोर्चा सम्भालने की कोशिश की परन्तु अफसोस कि बहुत देर हो चुकी थी….। इससे पहले गुरुदेव की फौज अपनी ढाले सम्भालती दुश्मनों की तलवारे उनका कत्लेआम करने लगी।अचानक उठे इस तूफान, बारिश तथा गुप अंधेरे में बन्दों को बन्दा नज़र नही आ रहा था कौन किसके साथ लड़ रहा है यह पहचानना भी मुश्किल हो गया था जब या अल्लाह की आवाज आती तब पता चलता कि कोई मुगल मौत की खाई में गिरा है और जब सद्गुरु सद्गुरु कराहती हुई आवाज आती तो अपने आप ही निर्णय हो जाता कि किसी सिक्ख ने शहादत का जामा पहना है। परंतु अफसोस या अल्लाह की चीखें बहुत कम थी और शहादत की सैर पर निकलने वाली आवाजे कई गुना ज्यादा थी। दुख की इस घड़ी में गुरु सेवको के आगे एक और परीक्षा आ गयी सरसा नदी में आई बाढ़ के कारण पुल टूट गया अब इस काली अंधियारी, तूफानी रात में नदी को पार करना बड़ा मुश्किल हो गया मुगल सेनाओं ने इस बात का फायदा उठाया और इसी दौरान मुगल फौजो ने गुरु परिवार के जत्थे पर हमला बोल दिया।

आगे की कहानी कल की पोस्ट में दी जाएगी…..

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *