जो संपूर्ण भाव से अपनी गुरु की अथक सेवा करता है, उसे दुनियादारी के विचार नहीं आते। इस दुनिया में वह सबसे अधिक भाग्यवान है। बस अपने गुरु की सेवा करो! सेवा करो! सेवा करो! गुरुभक्ति विकसित करने का यह राजमार्ग है।
गुरु माने सच्चिदानंद परमात्मा! पूज्य आचार्य की सेवा जैसी हितकारी और आत्मोन्नति करनेवाली और कोई सेवा नहीं है।सच्चा आराम दैवी गुरु की सेवा में ही निहित है। ऐसा दूसरा कोई सच्चा आराम नहीं है। किसी भी प्रकार के स्वार्थ हेतु के बिना आचार्य की पवित्र सेवा जीवन को निश्चित आकार देती है।
शिष्य ने पूछा कि गुरुदेव! क्या सेवा एक प्रकार की मजदूरी है जो एक शिष्य को करनी जरूरी है।
गुरुदेव ने कहा कि मजदूरी मजबूरी में की जाती है, परन्तु सेवा प्रेम में और प्रेम से की जाती है। फिर दोनों में क्या बराबरी?… एक और बात मजदूरी करके मजदूर मालिक से कुछ लेना चाहता है, परन्तु मालिक देने से कतराता है लेकिन सेवा का तो दस्तूर ही अलग है। गुरु अपने सेवक को देना और देना ही चाहते हैं, परन्तु शिष्य है कि जी-जान से सेवा करके भी कुछ लेने की चाह नहीं रखता।
गुरुदेव! आपकी समीपता पाने के लिए हम क्या करें?
गुरुदेव ने कहा कि पहले तो समीपता की परिभाषा जान लो। गुरु के शारिरीक रूप से निकटता, गुरु से निकटता का मापदंड नहीं है। जो दास जीसस के पास रहकर भी जीसस से दूर रहा, लेकिन शबरी दूर रहकर भी श्रीराम के निकट से निकट रही। इसलिए गुरुदेव की समीपता को पाना है तो उनसे भावतरंगो का रिश्ता स्थापित करो, हृदय से हृदय की तारों को जोड़ो।
गुरुदेव! मुझे कभी-2 अपनी योग्यताओं पर अभिमान हो जाता है।
गुरुदेव ने कहा कि, जो साधक, जो शिष्य अपने गुरु को ही सर्वस्व मानता हो, अपने अस्तित्व को गुरु में विलीन कर दिया हो, ऐसे शिष्य में अभिमान किस बात का?…और अभिमान तभी आता है जब गुरु और शिष्य में निकटता ना होकर दूरी ही बनी रहे। उस दूरी में अभिमान का जन्म होता है। गुरु और अभिमान ये दोनों एक तरह से विपरीत शब्द है, जैसे कि अंधकार और प्रकाश।
एकबार अंधकार ब्रह्माजी के पास शिकायत लेकर पहुंचा। उसने कहा, भगवंत! प्रकाश मेरा जन्म से बैरी है। मैंने उसे कभी कोई हानि नहीं पहुंचाई, लेकिन वह है कि हमेशा मेरे अस्तित्व को खत्म करने पर उतालु रहता है। आप ही उसे समझाये।
ब्रह्माजी ने कहा, तुम चिंता मत करो। मैं अभी उसे बुलाकर दंडित करता हूँ।
प्रकाश को तुरंत उपस्थित होने का आदेश दिया गया। प्रकाश के आने पर जब ब्रम्हाजी ने उसे अंधकार की शिकायत बताई, तो प्रकाश ने कहा कि भगवंत! मैं और अंधकार का बैरी! यह कैसे हो सकता है? मैं तो आजतक उससे मिला ही नहीं।
ब्रह्माजी ने कहा, अभी तुम दोनों का आमना सामना करा देते हैं। अंधकार को बुलाया गया, परन्तु वह आया ही नहीं या यूं कहे की आ ही नहीं पाया।
ठीक ऐसे ही जिस साधक के जीवन में मात्र गुरु और उनकी कृपा की स्मृति रहती है, उसके जीवन में अहंकार आ ही नहीं सकता। अपनी योग्यताओं पर गर्वित ना होकर गुरु की कृपा पर आश्रित रहे,उनकी कृपा की स्मृति सदैव बनी रहे। फिर आप अपने योग्यताओं पर अभिमान नही करेंगे, बल्कि गुरु की कृपा पर स्वाभिमानी बने रहेंगे।
गुरुजी! मोक्ष श्रेष्ठ है या भक्तात्मा बनकर अनेकानेक जन्मों तक गुरु की चरणों की सेवा श्रेष्ठ है।
गुरुदेव ने कहा, यह तो आप पर निर्भर करता है। यदि आप मोक्ष के अभिलाषी है तो आपके लिए मोक्ष श्रेष्ठ है, परन्तु यदि आपकी प्रीति गुरुदेव से है तो उनकी सेवा से बढ़कर आपके लिए और क्या हो सकता है?
मोक्ष प्राप्त कर लेना या गुरुसेवा का अवसर पाना दोनों में अंतर ऐसा है, जैसे कि चीनी बन जाना और चीनी के स्वाद का आनंद उठाना। मोक्ष अर्थात जन्म-मरण के आवागमन से मुक्ति! ईश्वर से मिलन! प्रभु के निराकार रूप से एकाकार होना यानी स्वयं ईश्वररूप हो जाना… और वही दिव्यता जब साकार रूप में गुरु बनकर इस धरती पर उतरती है, तो उनके सान्निध्य का, उनसे स्फुरित होती स्पंदनों का ,उनकी चरणों की सेवा का आनंद लेना चीनी की स्वाद का आनंद लेने जैसा है। अब आप स्वयं ही निर्णय लीजिए कि आप मोक्ष की उपाधि चाहते हैं या साकार का सान्निध्य चाहते हैं।