लेहज्जो की पूर्णता तक पहुंचने की यात्रा आपको उत्साहित कर देगी

लेहज्जो की पूर्णता तक पहुंचने की यात्रा आपको उत्साहित कर देगी


लेहज्जो की पूर्णता तक पहुंचने की यात्रा आपको उत्साहित कर देगी …

गुरुभक्ति योग के अभ्यास से अमरत्व, सर्वोत्तम शांति और शाश्वत आनंद प्राप्त होता है।

गुरू प्रेम और करुणा की मूर्ति है। आपको अगर उनके आशीर्वाद प्राप्त करने हो तो आपको भी प्रेम और करुणा की मूर्ति बनना चाहिए। धन्य है, विनम्र लोगों को धन्यवाद है, विनम्र लोगों को क्योंकि उन्हें तुरंत गुरुकृपा मिल जाती है। जिन्होंने गुरु की शरण ली है ऐसे पवित्र आत्माओं को धन्यवाद है, क्योंकि उनको परमसुख अवश्य प्राप्त होता है।

संत कबीर साहब कहते हैं कि,

*कर्ता करी न कर सके गुरु करे सो होय। गुरु समान दाता नहीं जाचक शिष्य समान । तीन लोक की संपदा सो गुरू दीन्हा दान।*

गुरु के जैसा देने वाला कोई नहीं है । गुरु का अर्थ ही है जो दिए चले जाएं । परंतु वह जो दे रहे हैं वह बड़ा सुक्ष्म है,अगर तुम शूद्र चीजों को मांगने गए हो तो वहां से खाली हाथ लौटोगे,अगर तुम विराट को मांगने गए हो तो भरपूर मिलेगा।

गुरु समान दाता नहीं, लेकिन उनका दान तभी संभव हो सकता है जब शिष्य भिखारी की तरह आए। तुम अगर अकड़े हुए आए तुम अगर ऐसे आए जैसे कि तुम कोई हकदार हो, कि मैंने इतनी साधना की है, इतने अनुष्ठान किए हैं और तुम्हें कुछ मिलना चाहिए, तो तुम चूक जाओगे।

याचक शिष्य समान और शिष्य तो ऐसा हो कि परम भिखारी। शिष्य तो ऐसा हो जैसे उसका हृदय सिर्फ भिक्षा का पात्र हो। परम याचक तो गुरु से मेल बनता है, क्योंकि परम दाता से परम याचक का ही मेल बन सकता है। गुरु उड़ेलते हो और तुम उल्टे घड़े की भांति हो तो सब व्यर्थ चला जाएगा। भिक्षुक का अर्थ है जिसका घड़ा सीधा हो।

चीन में एक ज्ञानी संत हुए लिहज्जो।

लिहज्जो के पास एक शिष्य आया और कुछ पूछा, जिज्ञासा प्रकट की।

लिहज्जो ने कहा, “समय आने पर जवाब देंगे। पूछते तो हो लेकिन लेने की हिम्मत है, दे तो दूंगा, दब तो ना जाओगे उसमें ? और तुम्हें पता भी है, तुम क्या मांगते हो?”

इतना सुनते ही शिष्य थोड़ा डर गया। वो साल भर चुप ही रहा लेकिन शिष्य ने देखा कि, गुरू तो इस प्रश्न का उत्तर ही नहीं दे रहे। सोचा कि शायद इस व्यक्ति को कुछ पता ही नहीं। सालभर बाद गुरु को छोड़कर चला गया। दूसरे गुरू के पास पहुंचा और वहां जाकर कहा कि,

” मैं साल भर लिहज्जो के पास था, कुछ मिला नहीं और इसलिए यहां आया हूं। “

महात्मा ने कहा, “तू अभी यहां से चला जा ,क्योंकि तेरे पास पात्र ही नहीं है। जब लिहज्जो ना भर सके तो मैं तो गरीब आदमी हूं ,मैं तुझे क्या दूंगा लिहज्जो के पास से खाली हाथ लौट आया, पागल तो मेरे पास तो कुछ भी नहीं है।”

ऐसी बातें सुनकर शिष्य फिर लिहज्जो के पास वापस लौटा। उसने कहा कि, “गुरुदेव बड़ी हैरानी की बात है अब मैं क्या करूं? एक दो जगह गया, उन्होंने कहा जब लिहज्जो के पास गए जब उस विराट सरोवर के पास से प्यासे लौट आए, तो हम तो छोटे डबरे है। हम तुम्हारे काम ना पड़ेंगे । इसलिए मैं वापस आया हूं।”

लिहज्जो ने कहा, “सुन जब मैं अपने गुरु के पास आया तो 3 साल तो मेरे गुरु ने मेरी तरफ देखा ही नहीं, तो और कुछ पूछने का सवाल ही न उठा। क्योंकि वह मेरे तरफ देखे ही नहीं वो सबकी तरफ देखें और मुझे छोड़ दे। और वो इस तरह छोड़ दें जैसे वह खाली जगह है। गुरु कृपा से गुरु का संकेत मैं समझ गया कि मुझे खाली जगह की भांति हो जाना चाहिए। इसलिए शायद गुरुदेव मुझे देखते ही नहीं।और यदि तुम होते तो तुम भाग गए होते, तुम्हारे अहंकार को चोट लगती कि मैं आया हूं और मुझे देखा नहीं जा रहा है। 3 साल जब मैं बैठा रहा और धीरे-धीरे राजी हो गया कि ठीक जो गुरुदेव की मर्जी तो एक दिन गुरु जी ने मेरी तरफ देखा, मानो आनंद की वर्षा हो गई , इतना पुलकित हो गया जैसे मैं कभी नहीं था। क्योंकि 3 साल चुपचाप बैठे रहना ऐसे जैसे हूं ही नहीं,वो देखे ही नहीं औरों से बातचीत करें ,पूछे परंतु मेरी तरफ देखे ही नहीं और एक-दो दिन की बात नहीं 3 साल का लंबा वक्त है। परंतु गुरुदेव की उस दृष्टि से मैं पर्याप्त हो गया मैं भर गया। फिर तो फिक्र ही नहीं फिर 3 साल और बीत गए पहले तो उनसे मुझे शून्य होने का संकेत मिला और जब उनकी दृष्टि मेरी तरफ पड़ी तो मैं समझ गया कि उनका इशारा क्या है कि मुझे देखने वाला दृष्टा हो जाना चाहिए। जैसे उन्होंने देखा ऐसे ही अब मैं अपने को देखूं, 3 साल मै अपने को देखता ही रहा।तब फिर एक दिन गुरूजी फिर एक दिन गुरुजी ने नजर मेरी तरफ की और पहली दफा गुरुदेव मुस्कुराए, धन्य मेरे भाग, अब मैं समझ गया उनका इशारा ।

पहले परम शून्य हो जाओ,

दूसरा इशारा दृष्टा हो जाओ, साक्षी हो जाओ,

और अब आनंदित हो जाओ।

यह संकेत मिलते ही मैं अकारण मुस्कुराने लगा और अकारण हंसने लगा और अकारण उत्सव मनाने लगा। अकारण प्रसन्न होने लगा।

समस्त जगत मेरे लिए आनंद स्वरूप हो गया, गुरुमय हो गया। लोग मुझे पागल समझने लगे। फिर गुरुदेव 3 साल बाद मेरे पास आए उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखा उन्होंने कहा, “अब तेरी साधना पूरी हो गई। अब मुझ में और तुझ में कुछ भेद न रहा अब तू जा दूसरों को जगा, तुझे मिल गया अब औरो को दे।”

लिहज्जो ने कहा कि, “और एक तू है जो साल भर यहां बैठा तो जरूर रहा लेकिन क्षण भर को भी शांत ना हुआ , अपने गुरुदेव को निहार न सका और तेरे मन में वही प्रश्न गूंजता रहा कि कब उत्तर मिलेगा? जैसे उत्तर ज्यादा महत्वपूर्ण था और गुरु कम महत्वपूर्ण थे। तुम्हारे प्रश्न तुम्हें बहुत महत्वपूर्ण मालूम पड़ते हैं ,क्यों ? क्योंकि अहंकार के कारण उत्तर चाहिए वो भी अहंकार की ही मांग है। अपने अहंकार को गुरू के स्वरूप में विलय कर दो गुरु के चरणों में विलय कर दो, फिर गुरु से कुछ पूछना ना पड़ेगा। कोई भ्रांति शेष न रह जाएगी, जैसे सूर्य के समक्ष प्रकाश के लिए पूछना नहीं पड़ता। सरोवर के समक्ष शीतलता के लिए… और जल के लिए पूछना नहीं पड़ता।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *