संत कबीर जी मथुरा की यात्रा के लिये निकले बांके बिहारी के पास कबीर जी को एक आदमी दिखा। कबीर जी ने उसको गौर से देखा तो उस आदमी ने भी कबीर जी को गौर से देखा। कबीर जी की आंखो मे इतनी गहराई। कबीर जी की आत्मा मे भगवान का इतना अनुभव कि वह आदमी उनको देखकर मानो ठगा सा रह गया।
कबीर जी ने पूछा क्या नाम है तुम्हारा कहां से आये हो? उसने कहा मेरा नाम धर्मदास है। मैं माधवगढ़ जिला रीवा मध्य प्रदेश का रहने वाला हूँ। तुम इधर कैसे आये? मै यहाँ भगवान के दर्शन करने आया हूँ। कितनी बार आये हो यहां? हर साल आता हूँ। क्या तुम्हे सचमुच भगवान के दर्शन हो गये? तुमको भगवान नही मिले केवल मुर्ति मिली है।
मेरा नाम कबीर है कभी मौका मिले तो काशी आना। ऐसा कहकर कबीर जी तो चले गए। कबीर जी की अनुभव युक्त वाणी ने विलक्षण असर किया। धर्मदास गया तो था बांके बिहारी के दर्शन करने मंदिर मे जाने का अब मन नही कर रहा था। घर वापस लौट आये। लग गये कबीर जी के वचन अब घर मे ठाकुर जी की पूजा करता तो देखता कि अन्तर्यामी ठाकुर जी के बिना ये बाहर के ठाकुर जी की पूजा भी तो नही होगाी और बाहर के ठाकुर जी की पूजा करके शांत होना है अन्तररूपी आत्मरूपी ठाकुर मे। अब मुझे निर्दुख नारायण के दर्शन करने है और वह सदगुरु की कृपा के बिना नही होते। वे दिन कब आएंगे कि मैं सद्गुरु कबीर जी के पास पहुचूंगा।
एक दिन धर्मदास सब छोड़ छाड़ कर कबीर जी के पास पहुंच गये काशी। कबीर जी के पास जाते ही –
धर्मदास हर्षित मन कीन्हा।
बहुर पुरूष मौहे दर्शन दीन्हा।।
धर्मदास का मन हर्षित हो गया जिनको मथुरा मे देखा था काशी मे फिर उन्ही पुरूष के दर्शन हुए।
मन अपने तब कीन विचारा।
इनकर ज्ञान महा टकसारा।।
कबीर का ज्ञान महा टकसाल है। यहाँ तो सत्य की अशरफियाँ बनती हैं अनंत की गिन्नीया बनती है। मै कहाँ अब तक कीमती तिजोरी मे कंकर पत्थर इक्कठे कर रहा था आपका जीवन और आपका दर्शन सच्चा सुखदायी है ये संत अपने सत्संग से दर्शन से सुख शांति और आनंद की गिन्नीया हृदय तिजोरीयो मे भर देते है।
इतना कह मन कीन विचारा।
तब कबीर उन ओर निहारा।।
तब कबीर जी ने धर्मदास की ओर गहराई से देखा ऐसा लगा मानो बिछड़ा हुआ सत् शिष्य गुरुजी को आकर मिला। हर्षित मन से कबीर जी ने कहा आओ धर्मदास पग धारो। आओ धर्मदास अब काशी मे ही पैर जमाओ। मेरे सामने बैठो। चैहुक चैहुक तुम काहे निहारो। टकुर टकुर क्यो मेरे ओर देख रहे हो? धर्मदास हमने तुमको पहचान लिया तुम सत् पात्र हो , सत् शिष्य हो इसलिए मैंने तुमको यह बात कह दी थी। फिर भी तुमने बहुत दिन के बाद मुझे दर्शन दिये। छः महीने हो गये।
कबीर जी ने थोड़ी धर्मदास जी के उपर अपनी कृपा दृष्टि डाली। सत्संग सुना था धर्मदास गदगद हो गये। धन्य धन्य हो गये। सोचा कि मैने आज तक जो रूपयो पैसो के नाम पर नश्वर चीजे इक्कठी की है मै उन्हे खर्च करने के लिए जाऊंगा तो मेरे को समय देना पड़ेगा व्यवस्थापको को संदेशा भेजा गया जो भी मेरी माल सम्पति खेत मकान है गरीबों मे बांट दो भंडारा कर दो शुभ कार्यो मे लगा दो। मै फकीरी ले रहा हूँ।
संत कबीर जी की टकसाल मे मेरा प्रवेश हो गया है ब्रह्मज्ञानी संत मिल गया है। हृदय मेरे आत्मतीर्थ का साक्षात्कार करूंगा । इस सम्पति को सम्भालने या बांटने का मेरे पास समय नही है। मुनिमो ने तो रीवा जिले मे तो डंका बजा दिया कि जिनको भी जो आवश्यकता है ऐसे गुरबे और सात्विक लोग जो सामान की सेवा करते है आश्रम मंदिर वाले वे आकर धन ले जाये। जुटाने के लिए जीवन भर लगा दिया। लेकिन छोङने के लिए मृत्यु का एक झटका काफी है। अथवा छोड़ना ही है तो भर ले जाओ बस इतना ही बोलना है।
कबीर दास जी के चरणो मे धर्मदास लग गये तो लग गये। और अपने आत्मा और
परमात्मा के पास अपने आत्मा और परमात्मा के परम सुख को पा गये। धर्मदास सन्
1423 मे जन्मे थे और कबीर जी 120 वर्ष तक धरती
पर रहे। कबीर जी का कृपा प्रसाद पाकर लोगो को महसूस कराना है यह राख बन जाने वाले
शरीर के लिए है बाहर का है। असली धन तो सद्गुरु का सत्संग है सत्गुरू ने जो भगवान
का नाम दिया है और भगवान की शांति और प्रीति है। असली धन तो परमात्म प्रसाद है।