गुरु के चरणकमलों में आत्मसमर्पण करना यह शिष्य का आदर्श होना चाहिए। गुरु महान है। विपत्तियों से डरना नहीं। हे वीर शिष्यों! आगे बढ़ो!गुरुकृपा अणुशक्ति से अधिक शक्तिशाली है। शिष्य के ऊपर जो आपत्तियां आती हैं वे छुपे वेश में गुरु के आशीर्वाद के समान होती है। गुरु के चरणकमलों में आत्मसमर्पण करना, यह सच्चे शिष्य का जीवनमंत्र होना चाहिए।
संत एकनाथ जी महाराज सद्गुरु स्तुति करते हुए लिखते हैं कि, हे सद्गुरु परब्रह्म! तुम्हारी जय हो! ब्रह्म को ब्रह्म यह नाम तुम्हारे ही कारण प्राप्त हुआ है। हे देवश्रेष्ठ गुरुराया! सारे देवता तुम्हारे चरणों में प्रणाम करते हैं। हे सद्गुरु सुखनिधान! तुम्हारी जय हो! सुख को सुखपना भी तुम्हारे ही कारण मिला है। तुमसे ही आनंद को निजानंद प्राप्त होता है और बोध को निजबोध का लाभ होता है। तुम्हारे ही कारण ब्रह्म को ब्रह्मत्व प्राप्त होता है। तुम्हारे जैसे समर्थ एक तुमही हो! ऐसे श्रीगुरु आप अनंत हो। आप कृपालु होकर अपने भक्तों को निजात्म स्वरूप का ज्ञान प्रदान कराते हो। अपने निजस्वरूप का बोध कराकर देव भक्त का भाव नहीं रहने देते हो। जिस प्रकार गंगा समुद्र में मिलनेपर भी उसपर चमकती रहती है, उसी प्रकार भक्त तुम्हारे साथ मिल जानेपर भी तुम्हारे ही कारण तुम्हारा भजन करते हैं। अद्वैत भाव से तुम्हारी भक्ति करने से तुम्हें परम संतोष होता है और प्रसन्न होनेपर आप शिष्य के हाथों में आत्मसंपत्ति अर्पण करते हो।
हे गुरुराया! शिष्य को निजात्म स्वरूप दान में गुरुत्व देकर आप उसे महान बनाते हो। यह आपका अतिशय विलक्षण चमत्कार है, जो वेद-शास्त्रों की समझ में नहीं आता। जिसके लिये वेद रात और दिन वार्ता कर रहे हैं, वह आत्मज्ञान आप सतशिष्य को एक क्षण में कर देते हो। करोड़ो वेद एवं वेदांत का पठन करने पर भी आपके आत्मोपदेश की शैली किसीको भी नहीं आ सकती। अदृष्ट वस्तु ध्यान में आना संभव नहीं है। आपकी कृपायुक्ति का लाभ होनेपर ही दुर्गम सरल होता है। हे गुरुराया! जिसप्रकार माँ दही को मथकर उसका मक्खन निकालके बालक को देती है। उसी प्रकार आपने यह किया है।
भगवान श्रीकृष्ण का उपदेश सुनकर उधोजी ज्ञानसंपन्न हो गये। इससे अत्याधिक ज्ञातृत्व हो जाने के कारण ज्ञान अभिमान होने की संभावना हुई। सारा संसार मूर्ख है और एक मैं ज्ञाता हूं ऐसा जो अहंकार बढ़ता रहता है, वही गुण-दोषों की सर्वदा और सर्वत्र चर्चा कराता है। जहाँ गुण-दोष का दर्शन होता है वहाँ सत्य-ज्ञान का लोप हो जाता है।
साधकों के लिए इतना ज्ञान-अभिमान बाधक है। ईश्वर भी यदि गुण-दोष देखने लगे तो उनको भी बाधा आएगी। इसप्रकार गुण-दोषों का दर्शन साधक के लिए पूरी तरह घातक है। इसलिए प्रश्न किये बिना ही श्रीकृष्ण उद्धव को उसका उपाय बताते हैं। जिसप्रकार बालक को उसका हित समझ में नहीं आता। अतः उसकी मां ही निष्ठापूर्वक उसका ख्याल रखती है। उसी प्रकार उधो के सच्चे हित की चिंता श्रीकृष्ण को थी।
उद्धव का जन्म यादव वंश में हुआ था और यादव तो ब्रह्मशाप से मरनेवाले थे। उनमें से उद्धव को बचाने के लिए श्रीकृष्ण उसे संपूर्ण ब्रह्मज्ञान बता रहे हैं। जहां देहातीत ब्रह्मज्ञान रहता है, वहां शाप का बंधन बाधक नहीं होता। यह जानकर ही श्रीकृष्ण ब्रह्मज्ञान का उपदेश देने लगे।
श्रीकृष्ण कहते हैं, हे उद्धव! संसार में मुख्यरूप से तीन गुण है। उन गुणों के कारण लोग भी तीन प्रकार हो गये हैं। उनके शांत, दारुण और मिश्र ऐसे स्वभाविक कर्म हैं। उन कर्मों की निंदा या स्तुति हमें कभी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि एक के भलेपन का वर्णन करने से उन्हीं शब्दों से दूसरों को बुरा बोलने जैसा हो जाता है। संसार परिपूर्ण ब्रह्मस्वरूप है, इसलिए निंदा या स्तुति किसी भी प्राणी की कभी भी नहीं करनी चाहिए।
हे उधो! सभी प्राणियों में आत्माराम है, इसलिए प्राण जानेपर भी निंदा या स्तुति नहीं करे। हे उधो! निंदा-स्तुति की बात सदा के लिए त्याग दो। तभी तुम्हें परमार्थ साध्य होगा और निजबोध से निजस्वार्थ प्राप्त होगा। हे उधो! समस्त प्राणियों में भगवद्भाव रखना। यही ब्रह्मस्वरूप होने का एक मार्ग है। इसमें कभी भी धोखा नहीं है। जहां से अपाय अर्थात खतरे की संभावना हो। यदि वही भगवदभावना दृढ़ता से बढ़ाई जाय तो जो अपाय है, वहीं अपाय हो जायेंगे। इस स्थिति को दूर छोड़ जो मैं ज्ञाता हूं, ऐसा अहंकार करेगा और निंदा-स्तुति का आश्रय लेगा वह साधक अनर्थ में पड़ेगा।