परमात्मा की प्रतिष्ठा नहीं करनी है

परमात्मा की प्रतिष्ठा नहीं करनी है


वन में एक विशाल और सुंदर शिव-मंदिर था । उस निर्जन मंदिर में बहुत से जंगली कबूतर बसेरा लेते थे । उन कबूतरों की बीट धीरे-धीरे इतनी वहाँ भर गयी कि उस बीट से मंदिर में स्थापित शिवलिंग ढककर छिप गया । घूमते हुए एक महात्मा उधर से निकले । उतना विशाल और सुंदर मंदिर किंतु मूर्ति उसमें दिखती नहीं थी । महात्मा के मन में आया कि ‘इसमें शिवलिंग स्थापित करवा दूँ ।’ जब वे इसका उद्योग करने लगे तो किसी वनवासी ने बतायाः “मंदिर में शिवलिंग तो पहले से स्थापित है । वह कबूतरों की बीट से ढक गया है । बीट हटाकर स्वच्छ करवा दीजिये ।”

महात्मा ने मंदिर स्वच्छ कराया । बीट हटाते ही बड़ा सुंदर शिवलिंग प्रकट हो गया । इसी प्रकार तुम्हारे अंतःकरण में जो अविद्या-कल्पित मल है, उसके कारण वहाँ पहले से ही विद्यमान ‘स्व’ (अपने आत्मशिव) का दर्शन नहीं होता है । उस परमात्मा की प्रतिष्ठा नहीं करनी है । कहीं से उसे लाना नहीं है । केवल अंतःकरण में जो कूड़ा-मल भरा है, उसे स्वच्छ करना है ।

पूज्य बापू जी कहते हैं- “सत्संग के साथ-साथ यदि साधक के जीवन में सेवा का समन्वय हो तो फिर ज्यादा परिश्रम की आवश्यकता भी नहीं होती । सेवा से अंतःकरण शुद्ध होता है और शुद्ध अंतःकरण में परमात्मा का प्रकाश शीघ्र होता है ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 6 अंक 335

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