अनेक में एक

अनेक में एक


◆ वेदांत के ज्ञान की महिमा अमाप है। वेदांत का ज्ञान सुनने से जितना पुण्य होता है उतना पुण्य चांद्रायण व्रत रखने से या पैदल यात्रा करके पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से या अश्वमेध यज्ञ करने से भी नहीं होता है।

◆ किसी आश्रम में कोई नया साधक गुरुजी के दर्शन-सत्संग के लिए आ पहुँचा। उस साधक ने अपनी शंका का समाधान पाने के लिए गुरुजी से पूछाः “गुरुजी ! कोई कहता है कि भगवान मंदिर में रहते हैं और कोई कहता है कि भगवान अपने हृदय में रहते हैं तो सचमुच में भगवान कहाँ रहते हैं ?”

◆ गुरुजी ने कहाः “इतनी सी बात है न ! वह तो तू मेरे पुराने शिष्य से ही पूछकर समझ ले।” साधक ने शिष्य के पास जाकर वही बात दुहराई कि ʹभगवान कहाँ रहते हैं ?ʹ

◆ शिष्य ने उसकी शंका का समाधान करते हुए कहाः “भगवान सर्वत्र हैं, सर्वव्यापक हैं। वे एक-के-एक अनेक रूपों में दिखत हैं। जैसे आकाश एक है फिर भी घट में आया हुआ आकाश घटाकाश, मठ में आया हुआ आकाश मठाकाश, मेघ में आया हुआ आकाश मेघाकाश और खुला आकाश महाकाश कहलाता है, वैसे ही भगवान परमात्मा एक हैं लेकिन जिस रूप में आते हैं वैसे दिखते हैं।

◆ अनेक रूपों में बसे हुए वे एक-के-एक सच्चिदानंद परमात्मा ही मेरा आत्मा है, ऐसा ज्ञान जिसे हो जाता है उसका जीवन सफल हो जाता है।”

◆ शिष्य की बात समझने की कोशिश करता हुआ वह साधक अपनी शंका का कुछ तो समाधान पा रहा था लेकिन उसे पूर्ण संतोष नहीं हुआ था। शिष्य और साधक की बातों को गुरु जी सुन रहे थे। गुरु जी ने उसी बात को और स्पष्ट रूप से समझाते हुए कहाः “बेटा ! सुनो। एक हजार घट लेकर उसमें पानी भरकर चंद्रमा का प्रतिबिम्ब देखो तो साफ (शुद्ध) पानी में प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखेगा और मैले पानी में प्रतिबिंब साफ नहीं दिखाई देगा। वैसे ही परमात्मा का प्रतिबिंबरूप जीवात्मा अनेक अंतःकरणों में अलग-अलग स्वरूप में दिखाई देता है।.

◆ जैसे, विद्युत शक्ति तो एक ही होती है लेकिन टयूबलाईट में ज्यादा प्रकाश देती है, बल्ब में उसके रंग के अनुरूप प्रकाश देती है, माईक्रोफोन में आवाज बनाती है, हीटर में से गर्मी देती है, फ्रीज में बर्फ बनाती है, रेकोर्डिंग में उसका उपयोग होता है तो आवाज टेप करती है। एक ही विद्युत शक्ति अनेक रूपों में अलग-अलग कार्य करती दिखाई देती है। स्थूल भौतिक शक्ति भी यदि अनेक रूपों में कार्य करती हुई दिखती है तो वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म चैतन्य परमात्मा अनेक रूपों में एक ही दिखाई दें इसमें क्या आश्चर्य है ?”

◆ मूलतः एक-का-एक परमात्मा कार्य-कारण की भिन्नता से अलग-अलग रूपों में दिखाई देता है।

◆ अनुभवी महापुरुषों के ग्रंथों के, शास्त्रों के, भगवान श्रीकृष्ण, भगवान श्रीराम, याज्ञवल्क्य, अष्टावक्र, राजा जनक जैसे ब्रह्मवेत्ताओं के वचनों के लिए अलावा ऐसा दिव्य ज्ञान कहीं सुनने को नहीं मिलता है। सब लोग इसे नहीं सुन पाते हैं। कई लोग सुनना भी चाहते हैं तो अभागे अश्रद्धालु लोग उनकी श्रद्धा को डगमगाते हैं, कई तरह के बहाने बताकर उस आध्यात्मिक रास्ते पर चलने से रोक लेते हैं। जो ईश्वर के मार्ग से किसी को दूर करते हैं ऐसे लोग महापाप के भागी बनते हैं।

◆ किसी व्यक्ति ने मुझसे कहाः “बापू ! आपके गुरु लीलाशाहजी महाराज ने तो आत्मसाक्षात्कार किया था न ? वे आये थे हमारे गाँव। उनके दर्शन से मुझे बहुत आनंद आया और श्रद्धा भी हुई लेकिन उनकी बातों पर मुझे विश्वास नहीं हुआ।”

◆ मुझे आश्चर्य हुआ। मैं उसे देखता ही रह गया कि ʹजिसे मेरे गुरुजी की बात पर विश्वास नहीं हुआ, उसे मेरी बात पर विश्वास कैसे आयेगा ?ʹ

◆ मैंने पूछाः “मेरे गुरुजी की कौन सी बात पर विश्वास नहीं आया ?”

◆ उसने कहाः “लीलाशाहजी बापू कहते थे कि अपना आत्मा ही परमात्मा है और वही आत्मा सबमें बस रहा है।”

◆ उसने कहाः “बापू ! अभी कुछ समय पहले मेरी माँ मर गई। सबमें एक ही आत्मा है तो हम सब भी मर जाने चाहिए थे न ?”मैंने कहाः “ऐसा कोई जरूरी नहीं है।”उसने पूछाः “यह कैसे हो सकता है ?”

◆ मैंने कहाः “भाई ! दस घड़ों में पानी भरकर रखो, उनमें पूनम की रात को चंद्रमा का प्रतिबिंब देखो तो दस चंद्रमा दिखेंगे कि नहीं ?”“हाँ।”

◆ “उनमें से एक घड़ा फोड़ डालो तो नौ प्रतिबिंब दिखेंगे कि नहीं ?”“हाँ, दिखेंगे।”

◆ “बाकी नौ को भी फोड़ डालो तो असली चंद्रमा रहेगा कि नष्ट हो जायेगा ?”“असली तो रहेगा।”

◆ “जैसे एक घड़ा फूट जाय या उसका पानी ढुल जाये तो उससे दूसरे प्रतिबिंब या असली चंद्रमा को कुछ हानी नहीं होती। वैसे ही यह देहरूपी घड़ा फूट जाये तो उससे शाश्वत आत्मा को कुछ हानि नहीं होती। वह अमर आत्मा ही परमात्मा है। सबके हृदय में वही है।”

◆ उसने फिर से पूछाः “बापू ! सबके हृदय में सुख का अनुभव होता है तब सबको सुख होना चाहिए और मुझे दुःख का अनुभव होता है तब सबको दुःख होना चाहिए। यह नहीं होता है। क्यों ?”

◆ “क्योंकि जैसे दस घड़ों को ठी पर रखेंगे तो उनमें भरा हुआ पानी उबलेगा लेकिन उसमें आया हुआ प्रतिबिंब उबलेगा क्या ? उसे ताप लगेगा क्या ?”“नहीं।”

◆ जैसे, भट्ठी पर रखने से घड़ा भी तपेगा, घड़े का पानी भी तपेगा, पर उससे चन्द्रमा के प्रतिबिंब पर या चंद्रमा पर कोई असर नहीं होगा। वैसे ही हरेक मनुष्य के अंतःकरण अलग-अलग होते हैं, उनमें सुख-दुःख का अनुभव तो होता है परंतु उन सबसे परे सबका साक्षी, चैतन्य परमात्मा सुख-दुःख से परे होने के बदले अपने में उसका अनुभव करने लगते हैं।

◆ शरीर को ʹमैंʹ मानने के बजाय अपने को आत्मा मान लो और आत्मा-परमात्मा एक जान लो तो समस्त सुख-दुःख के लिए पार हो जाओगे।

◆ स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 1997, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 57

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