यात्रा की कुशलता व दुःस्वप्न-नाश का वैदिक उपाय

यात्रा की कुशलता व दुःस्वप्न-नाश का वैदिक उपाय


जातवेदसे सुनवाम सोमरातीयतो न दहाति वेदः ।

स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा नावेव सिंधुं दुरितात्यग्निः ।।

‘जिस उत्पन्न हुए चराचर जगत को जानने वाले और उत्पन्न हुए सर्व पदार्थों में विद्यमान जगदीश्वर के लिए हम लोग समस्त ऐश्वर्ययुक्त सांसारिक पदार्थों का निचोड़ करते हैं अर्थात् यथायोग्य सबको बरतते हैं और जो अधर्मियों के समान बर्ताव रखने वाले दुष्ट जन के धन को निरंतर नष्ट करता है वह अनुभवस्वरूप जगदीश्वर जैसे मल्लाह नौका से नदी या समुद्र के पार पहुँचाता है, वैसे हम लोगों को अत्यंत दुर्गति और अतीव दुःख देने वाले समस्त पापाचरणों के पार करता है । वही इस जगत में खोजने के योग्य है ।’ (ऋग्वेदः मंडल 1, सूक्त 99, मंत्र 1)

यात्री उपरोक्त मंगलमयी ऋचा का मार्ग में जप करे तो वह समस्त भयों से छूट जाता है और कुशलपूर्वक घर लौट आता है । प्रभातकाल में इसका जप करने से दुःस्वप्न का नाश होता है ।

(वैदिक मंत्रों का उच्चारण करने में कठिनाई होती हो तो लौकिक भाषा में केवल इनके अर्थ का चिंतन या उच्चारण करके लाभ उठा सकते हैं ।)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 33 अंक 335

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