शुभ कार्यों आरम्भ में गाये जाने वाले मंगलाचरण या शांतिपाठ से सुस्पष्ट होता है कि मनुष्यमात्र सुखप्राप्ति और दुःखनिवृत्ति के लिए सदा प्रयत्नशील है । दुःख तीन प्रकार के होते हैं और शांतिपाठ का उद्देश्य इन तीनों प्रकार के दुःखों से मुक्त होने का है । इसी से शांतिपाठ के अंत में ‘ॐ’ के बाद ‘शांति’ का उच्चारण तीन बार किया जाता है ।
पूज्य बापू जी के सत्संग-वचनामृत में आता हैः “शांतिपाठ के अंत में बोलते हैं – ॐ शांतिः शांतिः शांतिः । ‘शांति’ 5 बार नहीं बोलते हैं, 2 बार भी नहीं बोलते, 3 बार बोलते हैं । 3 प्रकार की अशांति होती हैः आधिभौतिक, आधिदैविक व आध्यात्मिक ।
गाड़ी में जाना है, गाड़ी नहीं मिल रही है – बड़ी तकलीफ है अथवा व्यक्तिगत या पारिवारिक कुछ समस्या आ गयी है जैसे – शरीर में रोग हो, हार-जीत हो, नौकरी-धंधा नहीं है, खूब भख लगी है और रोटी नहीं है…. यह आधिभौतिक अशांति है । कुछ आँधी-तूफान आ गया, बिनजरूरी बरसात हो गयी, अकाल अतिवृष्टि, प्राकृतिक उथल-पुथल…. यह आधिदैविक अशांति है । मानसिक अशांति, उद्वेग, विकार दुःख-चिंता आदि आध्यात्मिक अशांति है ।
शांतिपाठ के अंत में ‘ॐ’ के बाद पहला ‘शांति’ आधिभौतिक शांति के लिए, दूसरा ‘शांति’ शब्द आधिदैविक शांति के लिए और तीसरा ‘शांति’ आध्यात्मिक शांति के लिए बोला जाता है ।
ये 3 शांतियँ तो आती जाती रहती हैं, सारी जिंदगी खप जाती है लेकिन एक बार भगवत्कृपा से परम शांति मिल जाय तो ये 3 प्रकार की शांतियाँ आयें-जायें, तुम्हारे को कोई फर्क नहीं पड़ेगा, भगवत्शांति इतनी ऊँचाइयों पर ले जाती है ।
यजुर्वेद (अध्याय 36, मंत्र 17) में प्रार्थना हैः-
ॐ द्यौः शांतिरन्तरिक्षँ शांतिः पृथिवी शांतिरापः शान्तिरोषधयः शांतिः ।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्वँ शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधिः ।।
ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः !!!
इसका अर्थ हैः स्वर्गलोक, अंतरिक्षलोक तथा पृथ्वी लोक शांति प्रदान करें । जल शांतिप्रदायक हो । औषधियाँ तथा वनस्पतियाँ शान्तिप्रदायक हों । सभी देवगण शांति प्रदान करें । सर्वव्यापी परमात्मा सम्पूर्ण जगत में शांति स्थापित करें । सब पदार्थ शांतिप्रद हों । और यह लौकिक शांति मुझे आत्मिक शांति का प्रसाद दे । जो शांति मुझे प्राप्त हो वह सभी को प्राप्त हो ।’
तो आत्मिक शांति, परम शांति प्राप्त करें । त्रिविध ताप की निवृत्ति परम शांति से प्राप्त होती है । शांति के सिवाय जो भी प्राप्त होगा वह फँसने की चीज होगी, शांति मुक्तिदायिनी है । शांति के सिवाय जो मिलेगा वह बिछुड़ जायेगा । शांति अपना स्वरूप है । जो अपना स्वरूप है वह शाश्वत है और अपना स्वरूप नहीं है वह मिटने वाला नश्वर है ।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2021, पृष्ठ संख्या 22 अंक 337
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