Monthly Archives: January 2021

परिप्रश्नेन….


साधकः गुरुदेव ! मन को मारना चाहिए या मन से दोस्ती करनी चाहिए ?

पूज्य बापू जीः मन से दोस्ती करेंगे तो ले जायेगा पिक्चर में, ले जायेगा ललना के पास, कहीं भी ले जायेगा मन तो । मन को मारोगे तो और उद्दंड होगा । मन से दोस्ती भी न करो, मन को मारो भी नहीं, मन को मन जानो और अपने को उसका साक्षी मानो । ठीक है ?

साधकः कितना भी प्रयत्न करने पर सुख आने पर उसमें सुखी हो जाते हैं और जब दुःख आता है तो प्रयत्न करने पर भी उसमें दुःखी हो जाते हैं । इससे कैसे बचें ?

पूज्य श्रीः प्रयत्न करने पर भी सुख का प्रभाव पड़ता है, दुःख का प्रभाव पडता है और परमात्मा में विश्रांति नहीं मिलेगी । आईना हिलता रहेगा तो चेहरा ठीक से नहीं दिखेगा । तो जब भी प्रभाव पड़ता है तब वह जानते हैं न अपन ? ‘सुखद अवस्था आयी, यह प्रभाव पड़ रहा है । प्रभाव पड़ रहा है मन, चित्त पर । उसको जानने वाला मैं कौन ?’ यह प्रश्न ला के खड़ा कर दो । दुःख का प्रभाव पड़ता है… गुस्सा आया… तो गुस्सा आया उसको मैं जान रहा हूँ ऐसा सजग रहकर फिर मैं गुस्सा करूँ तो मेरे नियंत्रण में रहेगा । सुख का प्रभाव न पड़े…. सुखी तो हम भी होते दिखते हैं और अभी (चालू सत्संग) में कोई उठ के खड़ा हो जाय तो ‘ऐ ! बैठ जा ।’ ऐसा डाँटकर बोलूँगा । तो दुःखी तो हम भी दिखेंगे लेकिन हम दुःख और सुख – दोनों को जानते हुए सब करते हैं ।

जैसा बाप ऐसा बेटा, जैसा गुरु ऐसा चेला । हमने जैसे युक्ति से पा लिया, अभ्यास कर लिया ऐसे तुम भी अभ्यास करो । यह एक दिन का काम नहीं है – सतर्क रहें, सावधान रहें । सुख में भी सावधान रहें, दुःख में भी सावधान रहें । तो सावधानी, सजगता – एक बड़ी महासाधना होती है ।

साधिकाः हम सभी साधक अनेक व्यक्तियों से मिलते हैं, अनेक परिस्थितियों से, अनेक व्यवहारों से गुजरते हैं । सबकी तरफ से हमें कुछ भी मिले लेकिन हमारी आंतरिक स्थिति मजबूत हो, हम उद्विग्न न हों, हमरे चित्त की रक्षा हो – ऐसा कैसे हो ? कभी-कभी हम फिसल जाते हैं इसमें ।

पूज्य बापू जीः ‘हम फिसले नहीं’ यह भाव बहुत तुच्छ है । फिसलें नहीं तो अच्छा है लेकिन फिसल गये तो फिर उठें । फिसलते-फिसलते भी जो उठने का यत्न करता है वह उठकर अच्छी तरह से पहुँच भी जाता है । फिसलने के डर से चले ही नहीं अथवा फिसले तो फिसल के पड़ा ही रहे, नहीं । फिसलाहट है तो उठ  के भी फिर गिरना हुआ तो पड़े रहे, नहीं । फिसले नहीं तो अच्छा है लेकिन फिसले तब भी ‘हम नहीं फिसलते हैं, मन फिसला है……ॐॐॐ इन्द्रियाँ फिसली हैं, अभी सावधान रहेंगे, मन को बचायेंगे ।’ – इस प्रकार विचार करे । अपने को फिसला हुआ मानने से फिर बल मर जाता है । इन्द्रियाँ, मन फिसलते हैं, उनको फिर उठाओ । ठीक है ?

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2021, पृष्ठ संख्या 34, अंक 337

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

जोंक नहीं, बछड़ा बन !


वासनावान लोगों की स्थिति समझाने के लिए महात्मा आनंद स्वामी अपने जीवन का एक प्रसंग बताते हुए कहते हैं- मैं छोटा सा था । एक गाय थी हमारे घर में । पिता जी ने कहाः “जा, उसे घुमा ला, पानी पिला ला ।”

हमारे गाँव के पास एक तालाब था । गाय उसके किनारे-किनारे घूमने लगी । मैं थोड़ा परे जाकर खेलता रहा । कुछ देर बाद गाय को लेने आय तो देखा कि उसके थनों से चार-पाँच जोंकें चिपटी थीं – बहुत फूली हूई, मोटी-माटी । मैं घबराया कि अब पिताजी मारेंगे । रोता-रोता उनके पास पहुँचा ।

उन्होंने पूछाः “रोता क्यों है ?”

मैंने बतायाः “ये जोंकें सारा दूध पी गयीं । अब गाय दूध कैसे देगी ?”

पिताजी हँसते हुए बोलेः “घबराओ नहीं । ये दूध नहीं पीतीं, केवल लहू पीती हैं ।”

हाय रे दुर्भाग्य ! दूध जैसी अमृत-वस्तु के पास पहुँचकर भी अभागी जोंकों को दूध पीने की नहीं सूझती, केवल लहू पीती हैं । किंतु केवल जोंकें ही तो अभागी नहीं हैं । वासनाओं का रक्त मुँह में लग जाय तो मनुष्य भी जोंकों से कम नहीं । ऐसे मनुष्यों से मेरा यही निवेदन है कि “हे मानव ! अपने लिए दुर्भाग्य पैदा मत कर ! बछड़ा बन, जोंक न बन ! परमात्म-ज्ञान, परमात्म-शांति रूपी अमृतभरा दूध पी, वासनारूपी रक्त-पान न कर !”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2021, पृष्ठ संख्या 25, अंक 337

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

तो 33 करोड़ देवता भी हो जायें नतमस्तक ! – पूज्य बापू जी


मैंने एक पौराणिक कथा सुनी है । एक बार देवर्षि नारद जी ने किसी बूढ़े को कहाः “काका ! इतने बीमार हो । संसार तो संसार है, चलो मैं तुम्हें स्वर्ग में ले चलता हूँ ।”

बूढ़े ने कहाः “नारदजी ! मैं स्वर्ग तो जरूर आऊँ लेकिन मेरी एक इच्छा पूरी हो जाय बस ! मेरे दूसरे बेटे ने खूब सेवा की है । मैं जरा ठीक हो जाऊँ, बेटे का विवाह हो जाय फिर  चलूँगा ।”

नारदजी ने आशीर्वाद दिया व कुछ प्रयोग बताये । काका ठीक हो गया, बेटे का विवाह हो गया । नारद जी आये, बोलेः “काका ! चलो ।”

काकाः “देखो, बहू नयी-नयी है । जरा बहू के घर झूला बँध जाय (संतान हो जाय) फिर चलेंगे ।”

महाराज झूला बँध गया । नारदजी आये, बोलेः “चलो काका !”

काका बोलाः “तुम्हें और कोई मिलता नहीं क्या ?”

नारदजीः “काका ! यह आसक्ति छुड़ाने के लिए मैं आ रहा हूँ । जैसे बंदर सँकरे मुँह के बर्तन में हाथ डालता है और गुड़-चना आदि मुट्ठी में भर के अपना हाथ फँसा लेता है और स्वयं मुठ्ठी खोल के मुक्त नहीं होता । फिर बंदर पकडने वाले आते हैं और डंडा मार के जबरन उसकी मुठ्ठी खुलवाते हैं तथा उसके गले में पट्टा बाँध के ले जाते है । ऐसे ही मौत आयेगी और डंडा मारकर गले में पट्टा बाँध के ले जाय तो ठीक नहीं क्योंकि संत-मिलन के बाद भी कोई व्यक्ति नरक में जाय तो अच्छा नहीं इसलिए पहले से बोल रहा हूँ ।”

“मैं नरक-वरक नहीं जाऊँगा । फिर आना, अभी जाओ ।”

नारदजी 2-4 वर्ष बाद आये, पूछाः “काका कहाँ गये ?”

“काका तो चल बसे, ढाई वर्ष हो गये ।”

नारदजी ने ध्यान लगा के देखा कि वह लालिया (कुत्ता) हो के आया है, पूँछ हिला रहा है । नारदजी ने शक्ति देकर कहाः “क्या काका ! अभी लालिया हो के आये हो ! मैंने कहा था न, कि संसार में मजा नहीं है ।”

वह बोलाः “अरे ! पोता छोटा है, घर में बहू अकेली है, बहू की जवानी है, ये सुख-सुविधाओं का उपभोग करते थक जाते हैं तो रात को रखवाली करने के लिए मेरी जरूरत है । मेरा कमाया हुआ धन मेरा खराब कर देगा, बहू नहीं सँभाल सकेगी  इसलिए मैं यहाँ आया हूँ और तुम मेरे पीछे पड़े हो !”

आसक्ति व्यक्ति को कैसा कर देती है ! नारदजी कुछ वर्षों के बाद फिर आये उस घर में । देखा तो लालिया दिखा नहीं, किसी से पूछाः “वह लालिया कहाँ गया ?”

वह तो चला गया । बड़ी सेवा करता था ! रात को भौंकता था और पोता जब सुबह-सुबह शौच जाता तो उसके पीछे-पीछे वह भी जाता था तथा कभी-कभी पोते को चाट भी लेता था ।”

ममता थी पोते में । मर गया, एकदम तमस में आया तो कौन सी योनि में गया होगा ? नारदजी ने योगबल से देखा, ‘ओहो ! नाली में मेंढ़क हो के पड़ा है ।’

उसके पास गये, बोलेः “मेंढ़कराज ! अब तो चलो ।”

वह बोलाः “भले अब मैं नाली में रह रहा हूँ और मेरे को बहू, बेटा, पोता नहीं जानते लेकिन मैं तो सुख मान रहा हूँ कि मेरा पुत्र है, पोता है, मेरा घर है, गाड़ी है…. यह देखकर आनंद लेता हूँ । तुम मेरे पीछे क्यों पड़े हो ?”

संग व्यक्ति को इतना दीन करता है कि नाली में पड़ने के बाद भी उसे पता नहीं कि मेरी यह दुर्दशा हो रही है । अब आप जरा सोचिये कि क्या हम लोग उसी के पड़ोसी नहीं हैं ? जहाँ संग में पड़ जाता है, जहाँ आसक्ति हो जाती है वहाँ व्यक्ति न जाने कौन-कौनसी नालियों के रास्ते से भी ममता को पोसता है । आपका मन जितना इन्द्रियों के संग में आ जाता है, इन्दियाँ पदार्थों के संग में आ जाती हैं और पदार्थ व परिस्थितियाँ आपके ऊपर प्रभाव डालने लगते हैं उतना आप छोटे होने लगते हैं और उनका महत्त्व बढ़ जाता है । वास्तव में आपका महत्त्व होना चाहिए । हैं तो आप असंगी, हैं तो आत्मा, चैतन्य, अजन्मा, शुद्ध-बुद्ध, 33 करोड़ देवता भी जिसके आगे नतमस्तक हो जायें ऐसा आपका वास्तविक स्वरूप है लेकिन इस संग ने आपको दीन-हीन बना दिया ।

निःसङ्गो मां भजेद् विद्वानप्रमत्तो जितेन्द्रियः । (श्रीमद्भागवतः 11.25.34)

जितना आप निसङ्ग होते हैं, जितना आपका मनोबल ऊँचा है, मन शुद्ध है उतना आपका प्रभाव गहरा होता है । जो उस ब्रह्म को जानते हैं, अपने निःसङ्ग स्वभाव को जानते हैं उनका दर्शन करके देवता लोग भी अपना भाग्य बना लेते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2021, पृष्ठ संख्या 24-25, अंक 337

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ