साधकः गुरुदेव ! मन को मारना चाहिए या मन से दोस्ती करनी चाहिए ?
पूज्य बापू जीः मन से दोस्ती करेंगे तो ले जायेगा पिक्चर में, ले जायेगा ललना के पास, कहीं भी ले जायेगा मन तो । मन को मारोगे तो और उद्दंड होगा । मन से दोस्ती भी न करो, मन को मारो भी नहीं, मन को मन जानो और अपने को उसका साक्षी मानो । ठीक है ?
साधकः कितना भी प्रयत्न करने पर सुख आने पर उसमें सुखी हो जाते हैं और जब दुःख आता है तो प्रयत्न करने पर भी उसमें दुःखी हो जाते हैं । इससे कैसे बचें ?
पूज्य श्रीः प्रयत्न करने पर भी सुख का प्रभाव पड़ता है, दुःख का प्रभाव पडता है और परमात्मा में विश्रांति नहीं मिलेगी । आईना हिलता रहेगा तो चेहरा ठीक से नहीं दिखेगा । तो जब भी प्रभाव पड़ता है तब वह जानते हैं न अपन ? ‘सुखद अवस्था आयी, यह प्रभाव पड़ रहा है । प्रभाव पड़ रहा है मन, चित्त पर । उसको जानने वाला मैं कौन ?’ यह प्रश्न ला के खड़ा कर दो । दुःख का प्रभाव पड़ता है… गुस्सा आया… तो गुस्सा आया उसको मैं जान रहा हूँ ऐसा सजग रहकर फिर मैं गुस्सा करूँ तो मेरे नियंत्रण में रहेगा । सुख का प्रभाव न पड़े…. सुखी तो हम भी होते दिखते हैं और अभी (चालू सत्संग) में कोई उठ के खड़ा हो जाय तो ‘ऐ ! बैठ जा ।’ ऐसा डाँटकर बोलूँगा । तो दुःखी तो हम भी दिखेंगे लेकिन हम दुःख और सुख – दोनों को जानते हुए सब करते हैं ।
जैसा बाप ऐसा बेटा, जैसा गुरु ऐसा चेला । हमने जैसे युक्ति से पा लिया, अभ्यास कर लिया ऐसे तुम भी अभ्यास करो । यह एक दिन का काम नहीं है – सतर्क रहें, सावधान रहें । सुख में भी सावधान रहें, दुःख में भी सावधान रहें । तो सावधानी, सजगता – एक बड़ी महासाधना होती है ।
साधिकाः हम सभी साधक अनेक व्यक्तियों से मिलते हैं, अनेक परिस्थितियों से, अनेक व्यवहारों से गुजरते हैं । सबकी तरफ से हमें कुछ भी मिले लेकिन हमारी आंतरिक स्थिति मजबूत हो, हम उद्विग्न न हों, हमरे चित्त की रक्षा हो – ऐसा कैसे हो ? कभी-कभी हम फिसल जाते हैं इसमें ।
पूज्य बापू जीः ‘हम फिसले नहीं’ यह भाव बहुत तुच्छ है । फिसलें नहीं तो अच्छा है लेकिन फिसल गये तो फिर उठें । फिसलते-फिसलते भी जो उठने का यत्न करता है वह उठकर अच्छी तरह से पहुँच भी जाता है । फिसलने के डर से चले ही नहीं अथवा फिसले तो फिसल के पड़ा ही रहे, नहीं । फिसलाहट है तो उठ के भी फिर गिरना हुआ तो पड़े रहे, नहीं । फिसले नहीं तो अच्छा है लेकिन फिसले तब भी ‘हम नहीं फिसलते हैं, मन फिसला है……ॐॐॐ इन्द्रियाँ फिसली हैं, अभी सावधान रहेंगे, मन को बचायेंगे ।’ – इस प्रकार विचार करे । अपने को फिसला हुआ मानने से फिर बल मर जाता है । इन्द्रियाँ, मन फिसलते हैं, उनको फिर उठाओ । ठीक है ?
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2021, पृष्ठ संख्या 34, अंक 337
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