प्रत्येक धर्म (कर्तव्य, सत्कर्म) का इस ढंग से विचार करना चाहिए कि यह हमारे आत्मज्ञान और अविद्या-निवृत्ति में किस रीति से मददगार होता है ।
एक होता है अपनी वासना के अनुसार चलना और एक होता है दूसरी की आज्ञा के अनुसार चलना । जो व्यक्ति बड़ों की आज्ञा का उल्लंघन करता है उसके हृदय में तो अपनी वासना बड़ी प्रबल है । अपनी वासना के प्रबल होने का प्रमाण यही है कि वह शास्त्र की, गुरु की, बड़ों की, भगवान की बात न मानकर अपने मन में जो इच्छा-वासना उठती है उसी के अनुसार करता है और बोलता है कि ‘हम स्वतन्त्र हैं’ । अरे ! वह स्वतंत्र नहीं, अतंत्र है, उच्छृंखल है । संयमी, श्रेष्ठ के काबू में तो तुम हो ही नहीं, अपने अहंकार, वासना के गुलाम – मन के गुलाम मत बनो । जब मन ने तुम्हें वासना, विकारों के गड्ढे में डाला तो गड्ढे में गिर गये । अगर आप गिरते रहते हैं तो उचित नहीं है । भयंकर भविष्य बन रहा है ऐसा समझ के सावधान हो जायें ।
जब मनुष्य अतंत्र हो जाता है तो धीरे-धीरे आदत बिगड़ जायेगी । फिर मन में होगा की ‘यह बात नहीं बोलनी चाहिए’ परंतु बोलोगे, मन में होगा कि ‘इस चीज को नहीं खाना चाहिए’ पर जब वह चीज सामने आयेगी तब खा लोगे । बुद्धि कहेगी कुछ, इन्द्रियों से करोगे कुछ । यह क्यों हुआ ? कि तुमने आज्ञापालन करना नहीं सीखा, मनमानी करना सीखा है । अब तुम अपनी इन्द्रियों के परतंत्र हो । जो गुरुजनों की आज्ञा मान करके चलता है उसका मन अपने अधीन हो जाता है और जो आज्ञापालन नहीं करता उसका मन अपने वश में नहीं रहता । अतः वासना की निवृत्ति के लिए, अंतःकरण की शुद्धि के लिए भगवान, शास्त्र, संत और हितैषियों की आज्ञा का पालन करना आवश्यक है ।
यह जो आज्ञापालन है, वही अंत में तत्त्वज्ञान करा देगा । कैसे ? कि एक दिन वेद की आज्ञा से और गुरु की आज्ञा से तुम्हारी आज्ञाकारिणी बुद्धि तत्त्व को ग्रहण कर लेगी । तुमने यह आज्ञापालनरूप अखंड सम्पत्ति अर्जित की हुई है । आज्ञापालन भी मनुष्य को तत्त्व के द्वार पर पहुँचा देता है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2021, पृष्ठ संख्या 32 अंक 338
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ