प्राणी के अंतःकरण में जिन दोषों के कारण अशुद्धि या मलिनता है वे दोष कहीं बाहर से आये हुए नहीं हैं, स्वयं उसी के द्वारा बनाये हुए हैं । अतः उनको निकालकर अंतःकरण को शुद्ध बनाने में यह सर्वथा स्वतंत्र है ।
मनुष्य सोचता है और कहता है कि ‘मेरे प्रारब्ध ही कुछ ऐसे हैं जो मुझे भगवान की ओर नहीं लगने देते, मुझ पर भगवान की कृपा नहीं है । आजकल समय बहुत खराब है । सत्संग नहीं है । आसपास का वातावरण अच्छा नहीं है । शरीर ठीक नहीं रहता । परिवार का सहयोग नहीं है । अच्छा गुरु नहीं मिला । परिस्थिति अनुकूल नहीं है । एकांत नहीं मिलता, समय नहीं मिलता आदि…’ इसी प्रकार के अनेक कारणों को वह ढूँढ लेता है जो उसे अपने आध्यात्मिक विकास में रुकावट डालने वाले प्रतीत होते हैं । और इस मिथ्या धारणा से या तो वह अपनी उन्नति के प्रति निराश हो जाता है यह इस प्रकार का संतोष कर लेता है कि ‘भगवान की जैसी इच्छा, वे जब कृपा करेंगे तभी उन्नति होगी ।’ परंतु वह अपनी असावधानी तथा भूल की ओर नहीं देखता ।
साधक को सोचना चाहिए कि जिन महापुरुषों ने भगवान की इच्छा पर अपने को छोड़ दिया है, उनके जीवन में क्या कभी निरुत्साह और निराशा आती है ? क्या वे किसी भी परिस्थिति में भगवान के सिवा किसी व्यक्ति या पदार्थ को अपना मानते हैं ? उनके मन में क्या किसी प्रकार की भोग-वासना शेष रहती है ? यदि नहीं, तो फिर अपने बनाये हुए दोषों के रहते हुए भगवान के इच्छा का बहाना करके अपने मन में झूठा संतोष मानना या आध्यात्मिक उन्नति में दूसरे व्यक्ति, परिस्थिति आदि को बाधक समझना अपने-आपको और दूसरों को धोखा देने के सिवा और क्या है ?
यह सोचकर साधक को यह निश्चय करना चाहिए कि भगवान की प्रकृति जो कि जगत-माता है, उसका विधान सदैव हितकर ही होता है, वह किसी के विकास में रुकावट नहीं डालती वरन् सहायता ही करती रहती है । कोई भी व्यक्ति या समाज किसी के साधन मे बाधा नहीं डाल सकता । कोई भी परिस्थिति ऐसा नहीं है जिसका सदुपयोग करने पर वह साधन में सहायक न हो । भगवान की कृपाशक्ति तो सदैव सब प्राणियों के हित में लगी हुई है । जब कभी मनुष्य उसके सम्मुख हो जाता है, उसी समय उसका हृदय भगवान की कृपा से भर जाता है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2021, पृष्ठ संख्या 10 अंक 341
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ