शरीर की अपवित्रता और भावों की पवित्रता

शरीर की अपवित्रता और भावों की पवित्रता


सभी शास्त्रों ने, आत्मानुभवी महापुरुषों ने इस नश्वर शरीर को अपवित्र बताया है और यह भी कहा है कि इस अपवित्र शरीर में यदि भाव शुद्ध हों तो इसी शरीर से परम पवित्र, शाश्वत आत्मा-परमात्मा का अनुभव भी हो सकता है । इस संदर्भ  शिव पुराण में सनत्कुमारजी भगवान वेदव्यास जी से कहते हैं- “हे महाबुद्धे ! सुनिये, मैं शरीर की अपवित्रता तथा स्वभाव के महत्त्व का संक्षिप्तरूप से वर्णन कर रहा हूँ ।

शरीर अपवित्र कैसे ?

देह शुक्र और रक्त के मेल से बनती है और यह विष्ठा तथा मूत्र से सदा भरी रहती है इसलिए इसे अपवित्र कहा गया है । जिस प्रकार भीतर विष्ठा से परिपूर्ण घट बाहर से शुद्ध होता हुआ भी अपवित्र ही होता है उसी प्रकार शुद्ध किया हुआ यह शरीर भी अपवित्र कहा गया है । अत्यंत पवित्र पंचगव्य एवं हविर्द्रव्य (घी, जौ, तिल आदि हवनीय सामग्री) आदि भी जिस शरीर में जाने पर क्षणभर में अपवित्र हो जाते हैं, उस शरीर से अधिक अपवित्र और क्या हो सकता है ? अत्यंत सुगंधित एवं मनोहर अन्न-पान भी जिसे प्राप्त कर तत्क्षण ही अपवित्र हो जाते है, उससे अपवित्र और क्या हो सकता है ? हे मनुष्यो ! क्या तुम लोग नहीं देखते हो कि इस शरीर से प्रतिदिन दुर्गन्धित मल-मूत्र बाहर निकलता है, फिर उसका आधार (यह शरीर) किस प्रकार शुद्ध हो सकता है ? पंचगव्य एवं कुशोदक से भलीभाँति शुद्ध की जाती हुई यह देह भी माँजे जाते हुए कोयले के समान कभी निर्मल नहीं हो सकती है । पर्वत से निकले हुए झरने के समान जिससे कफ, मूत्र, विष्ठा आदि निरंतर निकलते रहते हैं, वह शरीर भला शुद्ध किस प्रकार हो सकता है ? विष्ठा-मूत्र की थैली की भाँति सब प्रकार की अपवित्रता के भंडाररूप इस शरीर का कोई एक भी स्थान पवित्र नहीं है । अपनी देह के स्रोतों से मल निकालकर जल और मिट्टी के द्वारा हाथ शुद्ध किया जाता है किंतु सर्वथा अशुद्धिपूर्ण इस शरीररूपी पात्र का अवयव होने से हाथ किस प्रकार पवित्र रह सकता है ? यत्नपूर्वक उत्तम गंध, धूप आदि से भलीभाँति सुसंस्कृत भी यह शरीर कुत्ते की पूँछ की तरह अपना स्वभाव नहीं छोड़ता है । जिस प्रकार स्वभाव से काली अपने उपाय करने पर भी उज्जवल नहीं हो सकती, उसी प्रकार यह काया भी भलीभाँति शुद्ध करने पर भी निर्मल नहीं हो सकती है । अपनी दुर्गंध को सूँघता हुआ, अपने मल को देखता हुआ भी यह संसार इससे विरक्त नहीं होता है ।

अहो, महामोह की क्या महिमा है, जिसने इस संसार को आच्छादित कर रखा है ! शरीर के अपने दोष को देखते हुए भी मनुष्य शीघ्र विरक्त नहीं होता है । जो मनुष्य अपने शरीर की दुर्गन्ध से विरक्त नहीं होता, उसे वैराग्य का कौन-सा कारण बताया जा सकता है ? इस जगत में सभी का शरीर अपवित्र है क्योंकि उससे मलिन अवयवों के स्पर्श से पवित्र वस्तु भी अपवित्र हो जाती है ।”

(इस अपवित्र शरीर में रहते हुए भी मनुष्य इस भयंकर संसार-सागर से कैसे पार हो सकता है यह जानने के लिए प्रतीक्षा कीजिये अगले अंक की ।)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2021, पृष्ठ संख्या 20 अंक 341

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