Monthly Archives: July 2021

परिप्रश्नेन – भय लगे तो क्या करें ?



प्रश्नकर्त्रीः बापू जी ! मुझे अकसर बहुत भय लगता है, पता नहीं
क्यों ?
पूज्य बापू जीः पता नहीं क्यों तुमको भय लगता है ? वास्तव में
भय तुमको कभी लगा ही नहीं है । जब भी भय लगता है तो मन को
ही लगता है, भय तुमको छू भी नहीं सकता । अब तुम मन के साथ
जुड़ जाने की गलती छोड़ दो, भय लगे तो लगे । कुत्ते की पूँछ को भय
लगा, दब गयी तो तेरे बाप का क्या जाता है ! जब भी भय लगे तो
सोच कि ‘कुत्ते को भय लगा और पूँछ दब गयी तो मेरा क्या ?’ घर में
कुत्ता आया फिर अपनी पत्नी, बहू-बेटों को भी लाया तो घर का मालिक
हो गया क्या ? ऐसे भय आया मन में तो तेरा मालिक हो गया क्या ?
आता है – जाता है ।’ भय क्यों लगता है, कैसे लगता है ?’ मरने दे
इसको, महत्त्व ही मत दे । भय को तू जानती है न ! तो चिंतन कर कि
‘भय को जानने वाली मैं निर्भय हूँ । भय मन को लगता है, चिंता चित्त
को लगती है, बीमारी शरीर को लगती है, दुःख मन को होता है… हम हैं
अपने-आप, हर परिस्थिति के बाप ! हम प्रभु के, प्रभु हमारे,
ॐ…ॐ…ॐ…ॐ… आनंद ॐ माधुर्य ॐ ।’ जब भी भय लगे बस ऐसा
ॐ…ॐ…ॐ… हा हा हा (हास्य प्रयोग करना)… फिर ढूँढना-‘कहाँ है भय
? कहाँ तू लगा है देखें बेटा ! कहाँ रहता है बबलू ! कहाँ है भय ?’ तो
भय भाग जायेगा । भय को भगाने की चिंता मत कर, प्रभु के रस में
रसवान हो जा ।

साधिकाः बापू जी ! मेरी साधना में कुछ समय से बहुत गिरावट
आ रही है, मन-बुद्धि संसार में बहुत विचलित होते हैं तो क्या करूँ
जिससे साधना में उन्नति हो ?
पूज्य श्रीः संत कबीर जी बोलते हैं-
“चलती चक्की देख के दिया कबीरा रोय ।
दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय ।।
दिन रात, सुख-दुःख, अऩुकूलता-प्रतिकूलता, उतार-चढाव देखकर मैं
रो पड़ा फर गुरु के ज्ञान से प्रकाश हुआः
चक्की चले तो चालन दे, तू काहे को रोय ।
लगा रहे जो कील से तो बाल न बाँका होय ।।”
यह गिरावट, उत्थान-पतन आता जाता है फिर भी जो आता-जाता
नहीं है, ॐऽऽऽऽ… ॐकार के उच्चारण में प्रथम अक्ष ‘अ’ और आखिरी
अक्षर ‘म’ के बीच में निःसंकल्प अवस्था है, उसमें टिकने का प्रीतिपूर्वक
प्रयत्न करो, सब मंगलमय हो जायेगा ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2021, पृष्ठ संख्या 34 अंक 343
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संत की युक्ति से भगवदाकार वृत्ति व पति की सद्गति… पूज्य बापू जी


संत की युक्ति से भगवदाकार वृत्ति व पति की सद्गति… पूज्य बापू जी
एक महिला संत के पास गयी और बोलीः “बाबा जी ! मेरे पति मर गये । मैं उनके बिना जी
नहीं सकती । मैं जरा सी आँख बंद करती हूँ तो मुझे वे दिखते हैं । मेरे तन में, मन में जीवन
में वे छा गये हैं । अब मेरे को कुछ अच्छा नहीं लगता । मेरे पति का कल्याण हो ऐसा भी करो
और मेरे को भी कुछ मिल जाये कल्याण का मार्ग । लेकिन मेरे पति का ध्यान मत छुड़ाना ।”
संत ने कहाः “नहीं छुड़ाऊँगा बेटी ! तेरा पति तुझे दिखता है तो भावना कर कि पति भगवान की
तरफ जा रहे हैं । ऐसा रोज अभ्यास कर ।”
माई 2-5 दिन अभ्यास हुआ । करके संत के पास गयी तो उन्होंने पूछाः “अब क्या लगता है
बेटी ?”
“हाँ बाबा जी ! भगवान की तरफ मेरे पति सचमुच जाते हैं ऐसा लगता है ।”
संत ने फिर कहाः “बेटी ! अब ऐसी भावना करना कि ‘भगवान अपनी बाँहें पसार रहे हैं । अब
फिर तेरे पति उनके चरणों में जाते हैं प्रणाम करने के लिए ।’ प्रणाम करते-करते तेरे पति एक
दिन भगवान में समा जायेंगे ।”
“अच्छा बाबा जी ! उनको भगवान मिल जायेंगे ?”
“हाँ, मिल जायेंगे ।”
माई भावना करने लगी कि ‘पति भगवान की तरफ जा रहे हैं । हाँ, हाँ ! जा रहे हैं… भगवान
को यह मिले… मिले… मिले!’ और थोड़े ही दिन में उसकी कल्पना साकार हुई । पति की
आकृति जो प्रेत हो के भटकने वाली थी वह भगवान में मिलकर अदृश्य हो गयी और उस माई
के चित्त में भगवदाकार वृत्ति बन गयी ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2021, पृष्ठ संख्या 21 अंक 343
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मृतक की सच्ची सेवा



एक माता जी ने स्वामी शरणानंद जी को बहुत दुःखी होकर कहाः
“महाराज जी ! कुछ समय पहले ही मेरे पति का अचानक देहावसान हो
गया है । ऐसा क्यों हुआ ? अब मैं क्या करूँ ?”
शरणानंदजी ने उन्हें जीवन का रहस्य बताया कि “हिन्दू धर्म के
अऩुसार स्थूल शरीर के न रहने पर भी सूक्ष्म तथा कारण शरीर उस
समय तक रहता है जब तक कि प्राणी देहाभिमान का अंत कर समस्त
वासनाओं से पूर्णतया मुक्त न हो जाय । ऐसी दशा में मृतक प्राणी के
प्रति जो कर्तव्य है, उस पर ध्यान देना चाहिए ।
स्वधर्मनिष्ठा पत्नी अपने पति की आत्मशांति के लिए बहुत कुछ
कर सकती है । वैधव्य धर्म सती धर्म से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है । सती
तो अपने शरीर को भौतिक अग्नि में दग्ध करती है और फिर पतिलोक
को प्राप्त करती है किंतु विधवा (ब्रह्मवेत्ता संत-महापुरुष के सत्संग
अनुसार जीवन-यापन कर) अपने सूक्ष्म कारण तथा कारण शरीर दोनों
को ज्ञानाग्नि में दग्ध करके जीवन में ही मृत्यु का अनुभव कर सकती
है, स्वयं जीवन्मुक्त होकर पति की आत्मा को भी मुक्त कर सकती है

देखो माँ ! पत्नी पति की अर्धांगिनी है । अतः पत्नी की साधना से
पति का कल्याण हो सकता है । इस समय आपका हृदय घोर दुःखी है
परंतु हमें दुःख से भी कुछ सीखना है । दुःख को व्यर्थ जाने देना या
उससे भयभीत हो जाना भूल है । दुःख हमें त्याग का पाठ पढ़ाने आता
है । अतः जब-जब पति देव के वियोग की वेदना उत्पन्न हो तब-तब
उऩकी आत्मा की शांति के लिए सर्वसमर्थ प्रभु से प्रार्थना करो । मृतक
प्राणी का चिंतन करने से उसे विशेष कष्ट होता है, कारण कि सूक्ष्म

शरीर कुछ काल तक उसी वायुमंडल में विचरता है जहाँ-जहाँ उसका
संबंध होता है । जब-जब वह अपने प्रियजनों को दुःखी देखता है तब-तब
उसे बहुत अधिक दुःख होता है । अतः आपका धर्म है कि आप उऩ्हें
दुःखी न करें । उनके कल्याणार्थ साधन अवश्य करें । पर मोहजनित
चिंतन न करें ।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2021, पृष्ठ संख्या 25 अंक 343
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