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दशरथ की सभा में छलका जनक जी के दूतों का ज्ञानामृत


जब राजर्षि जनक के दूतों ने महाराज दशरथ को भगवान श्रीरामचन्द्र जी द्वारा शिव-धनुष टूटने का समाचार सुनाया तब भाव से उनका हृदय भर आया और अत्यधिक स्नेह के कारण वे अपने पद की गरिमा भूल गये और दूतों को पास बैठाकर कहने लगेः

″भैया कहहु कुसल दोउ बारे ।

भैया ! क्या मेरे दोनों नन्हें पुत्र कुशल हैं ?″

जनकपुर के दूत चकित होकर सोचने लगे, ‘इन्होंने कैसी विलक्षण दृष्टि पायी है – जिन्होंने धनुष तोड़ दिया वे इन्हें नन्हें-से बालक दिखाई दे रहे हैं ! आश्चर्य हैं ! पत्र में पढ़ चुके हैं, फिर भी कुशल पूछ रहे हैं ।’

दूत मौन हैं । दूतों की चुप्पी से दशरथ जी को संदेह हुआ कि ‘इन लोगों को पत्र दे दिया होगा, जिसे लेकर चले आये होंगे । शायद राम को देखा या नहीं ?″ फिर एक शब्द और जोड़ दियाः ″अच्छा, देखा है तो क्या अपनी आँखों से देखा है ? अगर अपनी आँखों से देखा है तो अच्छी तरह से देखा कि नहीं  ?″

जब दूत कुछ बोले नहीं तो स्वयं बताने लगे कि ″मेरा एक पुत्र तो साँवले और दूसरा गोरे रंग का है । वे धनुष-बाण लेकर चलते हैं । विश्वामित्र जैसे मुनि के साथ हैं ।″

दूत मौन ही हैं इसलिए उन्होंने आगे कहाः ″अगर पहचानते हैं तो

पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ ।

दूर से तो कोई भी चर्चा सुन लेता है पर स्वभाव का पता तो पास जाकर ही चलता है ! तो क्या आप उनके स्वभाव को जानते हैं ?″

राजा दशरथ प्रेम से बार-बार इस प्रकार पूछने लगे । फिर भी दूत नहीं बोले तो उन्होंने प्रश्न कियाः ″यह प्रश्न मेरे दिल में इसलिए बहुत उठ रहा है क्योंकि मैंने सुना है जनक विदेह हैं, देह की भावना से ऊपर हैं, फिर ऐसे विदेह (जनक) ने उन्हें कैसे जाना ?

कहहु विदेह कवन विधि जाने ।″

ये प्रेमभरे वचन सुनकर दूत मुस्कराये और कहाः ″हे राजाओं के मुकुटमणि ! सुनिये, आपके समान धन्य और कोई नहीं है, जिनके राम-लक्ष्मण जैसे पुत्र हैं, जो दोनों विश्व के भूषण हैं । आपके पुत्र पूछने योग्य नहीं हैं ।

पुरुषसिंघ तिहु पुर उजिआरे ।।

‘वे पुरुषसिंह तीनों लोकों के प्रकाशस्वरूप हैं ।’ (श्री रामचरित. बा.कां. 291.1)

महाराज ! आप यह कह रहे हैं लेकिन आपके पुत्र जो हैं वे प्रकाश में देखने के लिए नहीं हैं अपितु स्वयं प्रकाशित करने के लिए हैं । सारे संसार में जो दिखाई दे रहा है, उनके प्रकाश से ही दिखाई दे रहा है ।″

बड़ा दार्शनिक सूत्र देते हुए उन्होंने आगे कहाः ″अँधेरे में कोई वस्तु खो जाये और न मिले तो कहा जाता है कि ‘अब तो प्रकाश की आवश्यकता है, दीया जलाकर ढूँढ लो ।’ पर क्या सूर्योदय के बाद कोई यह कहता है कि ‘जरा दीपक लेकर देखो कि सूरज निकल आया कि नहीं ?’ यह तो उलटी बात होगी, कारण कि सूरज निकलने के बाद यही कहा जाता है कि ‘अब दीपक की क्या आवश्यकता है, इसे बुझा दो ।’

तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे ।

देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे ।।

हे नाथ ! उनके लिए आप क्या कहते हैं कि ‘उन्हें कैसे पहचाना ?’ क्या सूर्य को हाथ में दीपक लेकर देखा जाता है ?″ (श्री रामचरित. बा. कां. 291.1.2)

सीधा-सा तात्पर्य है कि बुद्धि ही दीपक है और संसार की वस्तुओं को देखने के लिए बुद्धि के दीये को जलाने की आवश्यकता है । पर परम प्रकाशक जब स्वयं प्रकट हो जायें, उस समय बुद्धि के प्रकाश की कोई आवश्यकता नहीं है ।

फिर दूत आगे कहते हैं- ″आपके बड़े राजकुमार अत्यंत शीलवान और विनयवान हैं । उनमें कोमलता है तथा छोटे राजकुमार अत्यंत तेजस्वी हैं, जिन्हें देखकर ही जो बुरे राजा हैं वे काँपने लगते हैं । आपने जो पूछा कि ‘अपनी आँखों से देखा कि नहीं और विदेह ने कैसे जाना ?’ तो महाराज ! हमें तो आपकी बात कुछ उलटी दृष्टि आ रही है । इनको विदेह ही जान सकते हैं ! जो मात्र ‘देह’ देखने वाले हैं वे क्या जानें ! वे तो उनको भी एक देह में घिरा हुआ मान लेंगे । आपने जब यह कहा कि ‘भली प्रकार देखा कि नहीं ?’ तो उनको देखने के बाद अब दिखाई देना ही बंद हो गया ।

देव देखि तब बालक दोऊ ।

अब न आँखि तर आवत कोऊ ।।

‘हे देव ! आपके दोनों बालकों को देखने के बाद अब आँखों के नीचे कोई आता ही नहीं (हमारी दृष्टि पर कोई चढ़ता ही नहीं) ।″ (श्री रामचरित. बा. कां. 292.3)

जब रोम-रोम में रमने वाला सर्वव्यापी राम ज्ञानचक्षु से भली प्रकार से दिखाई देता है तो फिर और कुछ नहीं दिखाई देता, पूरा दृश्य-प्रपंच भी चैतन्यस्वरूप परमात्मा का आनंद-उल्लास जान पड़ता है । जनक जी के दूतों के ज्ञान की मधुरता छलकाते वचन सुनकर सभारहित राजा दशरथ प्रेम में मग्न हो गये ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 24, 25 अंक 344

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जब रघुराई बने ‘सेन नाई’ – पूज्य बापू जी


‘भक्तमाल’ में एक कथा आती हैः

बघेलखंड के बांधवगड़ में राजा वीरसिंह का राज्य था । वीरसिंह बड़ा भाग्यशाली रहा होगा क्योंकि भगवन्नाम का जप करने वाले, परम संतोषी एवं उदार सेन नाई उसकी सेवा करते थे । सेन नाई भगवद्भक्त थे । उनके मन में मंत्रजप निरंतर चलता ही रहता था । संत-मंडली ने सेन नाई की प्रशंसा सुनी तो एक दिन उनके घऱ की ओर चल पड़ी । सेन नाई राजा साहब के यहाँ हजामत बनाने जा रहे थे ।

मार्ग में दैव योग से मंडली ने सेन नाई से ही पूछाः ″भैया ! सेन नाई को जानते हो ?″

सेन नाईः ″क्या काम था ?″

संतः ″वह भक्त है । हम भक्त के घर जायेंगे । कुछ खायेंगे, पियेंगे और हरिगुण गायेंगे । क्या तुमने सेन नाई का नाम नहीं सुना है ?″

सेन नाईः ″दास आपके साथ ही चलता है ।″

संतों को छोड़कर वे राजा के पास कैसे जाते ? सेन नाई संत-मंडली को घर ले आये । घर में उनके भोजन की व्यवस्था की । सीधा-सामान आदि ले आये । संतों ने स्नानादि करके भगवान का पूजन किया एवं कीर्तन करने लगे । सेन नाई भी उसमें सम्मिलित हो गये ।

तन की सुधि न जिनको, जन की कहाँ से प्यारे…

सेन नाई हरि कीर्तन में तल्लीन हो गये । हरि ने देखा कि ‘मेरा भक्त तो यहाँ कीर्तन में बैठ गया है ।’ हरि ने करुणावश सेन नाई का रूप लिया और पहुँच गये राजा वीरसिंह के पास ।

सेन नाई बने हरि ने राजा की मालिश की, हजामत की । राजा वीरसिंह को उनके करस्पर्श से जैसा सुख मिला वैसा पहले कभी नहीं मिला था । राजा बोल पड़ाः ″आज तो तेरे हाथ में कुछ जादू लगता है !″

″अन्नदाता ! बस ऐसी ही लीला है ।″ कहकर हरि तो चल दिये । इधर संत-मंडली भी चली गयी तब सेन नाई को याद आया कि ‘राजा की सेवा में जाना है ।’ सोचने लगेः ‘वीर सिंह स्नान किये बिना कैसे रहे होंगे ? आज तो राजा नाराज हो जायेंगे कोई दंड मिलेगा या तो सिपाही जेल में ले जायेंगे । चलो, राजा के पास जाकर क्षमा माँग लूँ ।’

हजामत के सामान की पेटी लेकर दौड़ते-दौड़ते सेन नाई राजमहल में आये ।

द्वारपाल ने कहाः ″अरे, सेन जी ! क्या बात है ? फिर से आ गये ? कंघी भूल गये कि आईना ?″

सेन नाईः ″मजाक छोड़ो, देर हो गयी है । क्यों दिल्लगी करते हो ?″

ऐसा कहकर सेन नाई वीरसिंह के पास पहुँच गये । देखा तो राजा बड़ी मस्ती में । वीरसिंहः ″सेन जी ! क्या बात है ? वापस क्यों आये हो ? आप थोड़ी देर पहले तो गये थे, कुछ भूल गये हो क्या ?″

″महाराज ! आप भी मजाक कर रहे हैं क्या ?″

″मजाक ? सेन, तू पागल तो नहीं हुआ है ? देख यह दाढ़ी तुमने बनायी, तूने ही तो नहलाया, कपड़े पहनाये । अभी तो दोपहर हो गयी है, तू फिर से आया है, क्या हुआ ?″

सेन नाई टकटकी लगा के देखने लगे कि ‘राजा की दाढ़ी बनी हुई है । स्नान करके बैठे हैं ।’ फिर बोलेः ″राजा साहब ! क्या मैं आपके पास आया था ?″

राजाः ″हाँ, तू ही तो था लेकिन तेरे हाथ आज बड़े कोमल लग रहे थे । आज बड़ा आनंद आ रहा है । दिल में खुशी और प्रेम उभर रहा है । तुम सचमुच भगवान के भक्त हो । भगवान के भक्तों का स्पर्श कितना प्रभावशाली व सुखदायी होता है इसका पता तो आज ही चला ।″

सेन नाई समझ गये कि ‘मेरी प्रसन्नता और संतोष के लिए भगवान को मेरी अनुपस्थिति में नाई का रूप धारण करना पड़ा ।’ वे अपने-आपको धिक्कारने लगे कि ‘एक तुच्छ सी सेवापूर्ति के लिए मेरे कारण विश्वनियंता को, मेरे प्रेमास्पद को खुद आना पड़ा ! मेरे प्रभु को इतना कष्ट उठाना पड़ा ! मैं कितना अभागा हूँ ।!″

वे बोलेः ″राजा साहब ! मैं नहीं आया था । मैं तो मार्ग में मिली संत-मंडली को लेकर घर वापस लौट गया था । मैं तो अपना काम भूल गया था और साधुओं की सेवा में लग गया था । मैं तो भूल गया किंतु मेरी लाज रखने के लिए परमात्मा स्वयं नाई का रूप लेकर आये थे ।″

‘प्रभु !… प्रभु !….’ करके सेन नाई तो भावसमाधि में खो गये । राजा वीरसिंह का भी हृदय पिघल गया । अब सेन नाई तुच्छ सेन नाई नहीं थे और राजा वीरसिंह अहंकारी वीरसिंह नहीं  था । दोनों के हृदयों में प्रभुप्रेम की, उस दाता की दया-माधुर्य की मंगलमयी सुख-शांतिदात्री…. करुणा-वरुणालय की रसमयी, सुखमयी, प्रेममयी, माधुर्यमयी धारा हृदय में उभारी धरापति ने । दोनों एक दूसरे के गले लगे और वीरसिंह ने सेन नाई के पैर छुए और बोलाः ″राज-परिवार जन्म-जन्म तक आपका और आपके वंशजों का आभारी रहेगा । भगवान ने आपकी ही प्रसन्नता के लिए मंगलमय दर्शन देकर हमारे असंख्य पाप-तापों का अंत किया है । सेन ! अब से आप यह कष्ट नहीं सहना । अब से आप भजन करना, संतों की सेवा करना और मेरा यह तुच्छ धन मेरे प्रभु के काम में लग जाये ऐसी मुझ पर मेहरबानी किया करना । कुछ सेवा का अवसर हो तो मुझे बता दिया करना ।″

भक्त सेन नाई उसके बाद वीरसिंह की सेवा में नहीं गये । थे तो नाई लेकिन उस परमात्मा के प्रेम में अमर हो गये और वीरसिंह भी ऐसे भक्त का संग पाकर धनभागी हो गया ।

कैसा है वह करुणा-वरुणालय ! अपने भक्त की लाज रखने के लिए उसको नाई का रूप लेने में भी कोई संकोच नहीं होता ! अद्भुत है वह सर्वात्मा और धन्य है उसके प्रेम में सराबोर रहकर संत-सेवा करने वाला सेन नाई !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 344

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कष्ट-मुसीबतों को पैरों तले कुचलने की कला


कष्ट-मुसीबतें और प्रतिकूलताएँ तो सभी के जीवन में आती हैं, संत-महापुरुषों व अवतारों के जीवन में तो प्रतिकूल परिस्थितियों की खूब अधिकता देखने में आती है किंतु सामान्य व्यक्ति और उनके जीवन में इतना ही अंतर देखने में आता है कि उन परिस्थितियों में मन की विचारधारा और बुद्धि की निष्ठा दोनों की अलग-अलग होती है । इसका प्रभाव यह होता है कि जहाँ सामान्य व्यक्ति विषमता, शोक की खाई में गोते लगाता है वहीं वे महापुरुष समता और सद्ज्ञान की गहराई में सहज ही चले जाते हैं । समान परिस्थिति में फल इतना विपरीत होने का एकमात्र कारण गुरुज्ञान है । कैसे ? आईये जानते हैं गुरुज्ञान को मात्र शाब्दिक रूप से नहीं अपितु अनुभवरूप से आत्मसात् किये हुए पूज्य बापू जी के श्रीमुख से प्रवाहित उन्हीं के जीवन-प्रसंगों सेः

गुरुज्ञान ही काम आया

सन् 1974-1975 के आसपास की बात होगी । अहमदाबाद आश्रम की गौशाला में एक बछड़े को साँड बनाना था तो उसे गायों से अलग रखते थे । वह घूमने जाता तो हम कभी-कभी उसके सींग पकड़ के उसके साथ जरा विनोद करते थे । बात तो साधारण है पर ज्ञान बिल्कुल टनाटन है ।

गर्मियों के दिनों में हम हिमालय जाते । महीने-दो-महीने वहाँ जरा सामान्य दिनों से अल्प खान-पान, यह-वह सब करते । एक बार हम जब हिमालय से लौटे तो हमारा शरीर थोड़ा कृश हो गया था और वह साँड घूमघाम के बारिश की मस्ती लेकर तगड़ा हो गया था । जब वह घूम रहा था तब हम भी घूमने गये । तो हमारी पुरानी दोस्ती थी, वह हमारे नजदीक आया । मैंने उसके सींग पकड़े तो वह आगे-पीछे हुआ और साँड-तो-साँड है, उसने दे मारा धक्का । धड़ाक-धूम…. हाथ के बल ऐसे गिरे कि दायाँ हाथ तो उसके सींगों में रहा और बायें हाथ पर मेरा बल और उसका बल तो वह बायाँ हाथ उलटा हो गया, कोहनी से घूम गया ।

साँड तो चला गया लेकिन पहले क्षण तो ऐसी पीड़ा हुई कि ओ हो…. पैरों तले धरती निकल गयी, अँधेरा सा छा गया । पहले मिनट में इतनी पीड़ा हुई, इतनी पीड़ा हुई कि जिसको वैसा लगा हो उसी को पता चले ।

मेरे असंख्य भक्त थे और दर्जनों डॉक्टर मेरे शिष्य थे । करोड़ों रुपये मेरे लिए खर्चने वाले भक्त भी थे । परंतु उस समय उनके करोड़ों रुपये, दर्जनों डॉक्टर मेरे काम नहीं आये । सद्गुरु का सुना हुआ ज्ञान काम में आया कि ‘पीड़ा हो तो किसको पीड़ा हो रही है ध्यान से देखना !’

यह बात आपके लिए बड़ी कीमती है । गुरु का ज्ञान काम आया कि ‘यह हाथ टूट गया है, पीड़ा हो रही है कोहनी में, बाकी का शरीर ठीक है । कोहनी को, हाथ को पीड़ा हो रही है, उसको देखने वाला मैं अलग हूँ ।’ अपने आत्मा का, पीड़ा-दुःख से अलग होने का विचार आते ही बुद्धि, तन और मन नियंत्रित हुए । मैंने धीरे से हाथ को पकड़ा, सँभाला और उठ खड़ा हुआ । आश्रमवासियों को बोलाः ″हाड़वैद्य को बुलाना है जरा ।″

बोलेः ″किसके लिए ?″

″काम है ।″

″कहाँ भेजना है ?″

″कहीं भेजना नहीं है, जरा हाथ में लग गया है तो पट्टा-वट्टा बँधवाना है । यह हाथ थोड़ा घूम गया था, अभी मैंने ठीक कर दिया है ।″

″ऐं…. बापू ऐसा नहीं हो सकता !″

″है ।″

फिर गाड़ी-वाड़ी मँगायी । अहमदाबाद में दिल्ली दरवाजा क्षेत्र है, वहाँ हाड़वैद्य रहता था, उसके पास गये । जैसे ही वह दूसरे रोगियों को हाथ लगाता तो वे चिल्लाते थे – ऐसी पीड़ा होती है हड्डी टूटने की । परंतु जब वह इधर-उधर खूब घुमाकर मेरे हाथ की हड्डी बैठा रहा था तो मैं जोर से हँस पड़ा । वह घबराया कि ‘ये कैसे महाराज हैं ! हाथ इतना मुड़ गया, अब सीधा कर रहे हैं तो (इतने दर्द में भी ये) हँस रहे हैं !’

मैंने कहाः ″जैसी पीड़ा दूसरों को होती है वैसी इसको हुई लेकिन अब मैं समझता हूँ कि ‘इसको पीड़ा हुई, मैं पीड़ा को देखने वाला हूँ ।’ इस खुशी में हँस रहा हूँ ।″

वह हाड़वैद्य मुसलमान था, उसकी मेरे में श्रद्धा नहीं थी परंतु वह मेरी हँसी देखकर ऐसा भगत बन गया कि पट्टा बाँधने का एक पैसा भी नहीं लिया । उसने बोलाः ″गजब के फकीर हैं ! ऐसे फकीर की सेवा का मौका तो मिल जाये ।″

मैं इसलिए बता रहा हूँ कि आपके शरीर को कभी पीड़ा हो तो आप उसे अपने मन में घुसने न दीजिये, मन में अगर घुस भी जाये तो जोर-जोर से ‘हरि ओऽम्म… हरि ओऽम्म… हरि ॐ…’ ऐसा उच्चारण करके सोचें कि पीड़ा तो हाथ को, पैर को, पेट को, सिर को हुई है, मैं स्वस्थ हूँ ।’ इससे आधी पीड़ा का प्रभाव ऐसे ही टूट जायेगा, बाकी छोटे-मोटे इलाज से आप स्वस्थ हो जायेंगे । कभी यह न सोचना कि ‘मैं स्वस्थ हुआ हूँ ।’ शरीर स्वस्थ हुआ है । ‘मैं पहले भी स्वस्थ था, अब भी स्वस्थ हूँ और मरने के बाद भी ‘स्व’ में स्थिति होने की यात्रा करने वाला ‘स्व’ स्थ रहूँगा । हरि ओऽम्म…’

आत्मज्ञान कितनी रक्षा करता है !

विकट परिस्थितियों में गुरुज्ञान ही है एकमात्र आश्रय

अपना हौसला बुलंद हो तो असम्भव कुछ भी नहीं है, सब सम्भव है ।

हार कब होती है ? जब व्यक्ति भीतर से अपनी हार मानता है या भीतर से गिरता है । जीत कब होती है ? जब व्यक्ति भीतर से हौसला बुलंद रखता है और जीत मानता है ।

सन् 1998 की बात है, हम ओड़िशा पहुँचे । कटक में सत्संग हुआ । आसपास के आदिवासी इलाके में 10-15 हजार गरीब लोगों में भंडारा, अन्न-वस्त्र वितरण आदि सेवा हुई, उनके लिए वही सत्संग था । फिर ब्रह्मपुर में सत्संग करके कालाहांडी के आदिवासी इलाके में हम जाने वाले थे । पर वहाँ के कुछ नेताओं को भ्रांति हो गयी कि बापूजी आयेंगे तो शायद हम हार जायेंगे । अतः मेरे चार्टर प्लेन को उतरने की अनुमति देने में उन्होंने लीला की, आखिरी समय में जिलाधिकारी ने न बोल दिया । मुझे कार द्वारा 12 घंटे की मुसाफिरी करके वहाँ जाना पड़ा । फिर गरीबों को अन्न-वस्त्र बाँटने थे तो उन लोगों ने पूरी कोशिश की कि न बँटें और हमने पूरी कोशिश की बँट जायें तो हमारी कोशिश भगवान ने सफल कर दी ।

10-12 घंटे आने के, 10-12 घंटे भण्डारे में, 2-5 घंटे उन्होंने रोके रख तो शरीर की भी अपनी सीमा होती है । शरीर की थकान, भूख-प्यास…. फिर फालसीपेरम मलेरिया के मच्छरों ने  शरीर पर भंडारा चालू कर दिया तो फालसीपेरम मलेरिया हो गया । वह मलेरिया भीतर काम करता रहा और हम बाहर सत्संग-कार्यक्रम करते रहे । भीतर खून को पानी बनाने वाला वह मलेरिया बहुत तेजी से फैल गया । हीमोग्लोबिन 14-15 g/dl था तो 7 g/dl हो गया ।

बीमारी ने कोटा (राज.) में जोर पकड़ा फिर भी फरीदाबाद व गुड़गाँव का सत्संग करने को हम वहाँ से चल पड़े पर शरीर को फालसीपेरम मलेरिया ने इतना तोड़ दिया कि शरीर ने कहा कि ‘अब भाई लाचार हैं !’

फरीदाबाद में 2-3 दिन इलाज हुआ परंतु सब उलटा ही हो रहा था । मुझे सचमुच बड़ी खुशी होती थी कि ‘शरीर की ऐसी स्थिति होने पर भी चित्त में दुःख नहीं । वाह मेरे गुरुदेव ! आपके ज्ञान की महिमा !!’

फिर चौथे दिन शाम को हम अहमदाबाद पहुँचे । एलोपैथिक इलाज से रोग चला गया परंतु वह बड़ा दुष्प्रभाव दे गया । बकरी तो निकल गयी पर ऊँट घुस गया ।

बुखार उतर गया परंतु फिर न हो जाय इसलिए डॉक्टरों ने 6 गोली का कोर्स दे दिया । हमें तो एक गोली ही बड़ी खतरनाक लगी । मजे की बात थी कि कुछ भी लेता तो मेरा हृदय प्रेरणा करता था कि ‘यह लो, यह न लो ।’ उस गोली को लेता तो हृदय हिचकता था तो मैंने बोलाः ″नहीं-नहीं ।″

डॉक्टर बोलेः ″बापू जी ! इतनी तो हमारी मानो ।″ रोते गये ।

मैंने कहाः ″लाओ भाई ! शिवजी जब विष पी गये तो गोलियाँ पीने में क्या लगता है ?″

मैंने 5 गोलियाँ ले लीं तो उन गोलियों ने जो किया उसका मजा निराला था ।

एक दिन के बाद आ हा हा… शरीर में आग-आग… जैसे तवे की रोटी चिपक जाय ऐसे जीभ तालू को चिपक जाय, सूख जाय । बुखार तो नहीं था पर मत्थे पर घी लगायें तो गायब ! चुल्लू भर-भर के पैरों पर घी लगायें तो गायब !

मिश्री खाकर पानी पियो तो वह कहाँ गया कुछ पता न चले ! 6 रात, 6 दिन एक मिनट भी नींद नहीं ! फिर गुरु की कृपा का आनंद जो आ रहा था वह अब भी है ।

फिर मैंने अंग्रेजी दवा वालों को बोलाः ″भाई ! अब तुम्हारी हीं-हीं नहीं चलेगी, हाथाजोड़ी मत करो । अब हम अपने ढंग से उपचार करेंगे ।″

अंग्रेजी दवाओं ने इतना दुष्प्रभाव दिखाया कि मेरी आँखें तिरछी हो गयी थीं, कान, यकृत व गुर्दे खराब हो गये थे । जो डॉक्टर लगे थे वे इंजेक्शन लगा के जाकर रोते थे कि ‘हमारे हाथ से ये केस गया हुआ है ।’

सम्भव ही नहीं था कि विज्ञान के बल से आँखें ठीक हो जायें । इतना दुष्प्रभाव कि बैठ नहीं सकें, सो नहीं सकें, लेट नहीं सकें, छटपटायें । पीड़ा ऐसी कि उसके आगे प्रसूति की पीड़ा भी कुछ नहीं है । चिड़िया चें करे तो मानो एक तलवार लग गयी ऐसी पीड़ा होती थी ।

ऐसी पीड़ा में भी जरा सा याद करते कि ‘दुःख किसको हो रहा है ? शरीर को हो रहा है, हम तो उससे न्यारे हैं ।’ तो बड़ी हँसी आती थी । मन (कराहते हुए) कहता हैः ″ऐं… ऐं… ऐं…″

मैंने कहाः ″ऐं-ऐं करता है रो ?″ तो फिर हँसी आती । फिर थोड़ी देर बाद बोलताः ऊँ… ऊँ…. ऊँ…″

मैंने कहाः ″ऊँ… ऊँ… ऊँ… क्यों करता है ?″

बोलेः ″शरीर को आराम मिलता है ।″

मैंने कहाः ″अच्छा, कर लेकिन तू ‘ऊँ ऊँ… ‘ कर मैं देखता हूँ ।″

बोलेः ″फिर नहीं होगा ।″

तो इसका भी मजा मैंने लिया । ″मैं चैतन्य देखता है और करता है मन व शरीर । तो ऐसी सत्संग की बात चलते-फिरते भी पक्की रखो । दुःख, पीड़ा, आपत्ति भगवान (साक्षीस्वरूप परमात्मा) के आगे कोई मायना नहीं रखते ।

फिर हम कमरे में बंद हो गये । सेवक को बोला किः ″सुबह कमरा खोलना और ऐसे  समाधि कर देना । कोई आडम्बर नहीं करना ।″ मैंने प्राणायाम करके प्राण को ऊपर खींच के झटका मारा ताकि ब्रह्मांडव्यापिनी यात्रा पूरी हो जाय, एक-दो बार प्रयास किये । ‘मौत आकर मारे उसके पहले हम ब्रह्म में आ रहे हैं ।’ तो हो नहीं रहा था । फिर हमने इष्ट में शांत होकर बोलाः ″क्या मर्जी प्रभु आपकी ? रखना है तो डॉक्टरों व दवाइयों के वश का नहीं है और लेना है तो फिर यहाँ रुकावट क्यों आ रही है ?″

अंदर से आवाज आयीः ″रहना है ।″

″रहना है तो फिर  अब यह सब कैसे ठीक होगा ?″

बोलेः ″नारायणो वैद्यो जाह्नवी औषधिः ।″

तब से वैद्य मेरे नारायण हैं और गंगा जी औषधि हैं । फिर जैसी प्रेरणा मिलती गयी, खाते-पीते गये । और ये वैद्य बेचारे थोड़ा-बहुत आयुर्वेदिक ढंग से उपचार करते रहे तो मेरा यकृत, गुर्दे, आँख ठीक हो गये और बीमारी के पहले जो शरीर था उससे भी अच्छा हो गया, फुर्तीला हो गया ।

किसी ने घर पर, किसी ने आश्रम में तो किसी ने कहीं – कई बच्चे-बच्चियों ने, कई शिष्यों ने जप किया कि ‘हे भगवान ! बापू ठीक हो जायें ।’ वह तुम्हारा संकल्प भी काम करता है ।

सर्व रोग-व्याधिनाशक शक्ति का स्रोत

जब मेरी माँ की उम्र करीब 86 वर्ष की थी तब उनका शरीर काफी बीमार हो गया था । यकृत (लिवर), गुर्दे (किडनी), जठर, प्लीहा (सप्लीन) आदि खराब हो गये थे तथा और भी कई जानलेवा बीमारियों ने घेर लिया था । डॉक्टरों ने कह दिया था कि ‘अब 24 घंटे से ज्यादा नहीं निकाल सकती हैं ।’

23 घंटे हो गये । मैंने अपने 7 दवाखाने सँभालने वाले वैद्य को कहाः ″महिला आश्रम में माता जी हैं । तू कुछ तो कर भाई !″

वह गया और थोड़ी देर बाद मुँह लटकाये आया, बोलाः ″अब माता जी एक घंटे से ज्यादा नहीं निकाल सकती हैं । नाड़ी विपरीत चल रही है ।″

मैं गया । मेरी माँ मुझे पुत्र के रूप में नहीं देखती थीं वरन् जैसे कपिल मुनि की माँ उनको भगवान के रूप में, गुरु के रूप में मानती थीं वैसे ही मेरी माँ मुझे मानती थीं । माँ ने कहाः ″प्रभु ! अब मुझे जाने दो ।″

उनकी श्रद्धा का मैंने सात्त्विक फायदा उठाया ।

मैंने कहाः ″मैं नहीं जाने दूँगा ।″

″मैं क्या करूँ ?″

″मैं मंत्र देता हूँ आरोग्यता का ।″

उनकी श्रद्धा और मंत्र भगवान का प्रभाव… माँ ने मंत्र जपना चालू किया । मैं आपको सत्य बोलता हूँ कि एक ही घंटे बाद स्वास्थ्य में सुधार होने लगा । फिर तो 1 दिन, 2 दिन… एक सप्ताह… एक महीना… ऐसा करते-करते 72 महीने तक उनका स्वास्थ्य बढ़िया रहा । कुछ खान-पान की सावधानी, कुछ औषध का भी उपयोग किया गया ।

अमेरिका का डॉक्टर पी.सी. पटेल (एम.डी) भी आश्चर्यचकित हो गया कि ’86 वर्ष की उम्र में माँ के लीवर, किडनी कैसे ठीक हो गये ?’ तो मानना पड़ेगा कि सर्व व्याधिविनाशिनी शक्ति, रोगहारिणी शक्ति मंत्रजप में छिपी हुई है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 13 से 17, अंक 344

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