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पुरुषार्थी पुरु – पूज्य बापू जी


पुरुषार्थ करना चाहिए । इस लोक में सफल होने के लिए और आत्मा-परमात्मा को पाने में सफल होने के लिए भी पुरुषार्थ चाहिए ।

पुरु नाम का एक लड़का बेचारा महाविद्यालय पढ़ने के दिन देख रहा था । 16 वर्ष की उम्र हुई और एकाएक उसके पिता को हृदयाघात हो गया, वे मर गये । बेटे और माँ पर दुःखों का पहाड़ आ पड़ा । पुरु को एक भाई और एक बहन थी । बड़ा दुःख आ गया, पुरु सोचने लगाः ″अब कौन कमायेगा, घर का खर्चा कैसे चलेगा ? 12वीं अभी पूरी भी नहीं हुई, नौकरी तो मिलेगी नहीं ! क्या करें ?’ पुरु की माँ सत्संगी थी, पति की अंत्येष्टि करवायी । लोग बोलतेः ″तुम अब कैसे जियोगे, क्या खाओगे ?″

बोलेः ″परमेश्वर है ।″ पुरु की माँ ने पुरु को सांत्वना दी और पुरु ने अपनी माँ को ढाढस बँधाया । दो भाई-बहन और तीसरा पुरु, चौथी माँ । माँ घर पर ही थोड़ा बड़ी-पापड़ आदि बनाती । उनमें लगने वाली चीज वस्तु साफ सुथरी, सस्ती व अच्छी लाती । पहले तो पड़ोसी लोग मखौल उड़ाने लगे लेकिन बाद में पड़ोसी भी उनसे ही चीजें खऱीदने लगे । पुरु भी नौकरी की तलाश करता रहा, पढ़ता रहा । डाक विभाग से एक विज्ञापन निकला कि कोई 11वीं पढ़ा हुआ होगा तो उसको यह नौकरी मिल सकती है – क्लर्क को सहायक क्लर्क चाहिए । पुरु  ने उस नौकरी हेतु प्रपत्र (फॉर्म) भर दिया और घर बैठे पढ़कर बी.ए. करने का निश्चय किया । साक्षात्कार (इन्टरव्यू) हुआ, नौकरी मिली । वह जो काम मिले उसको पहले समझता फिर अच्छी तरह तत्परता से लगकर पूरा करता । ऐसा करते-करते उसने डाकघर के प्रधान अधिकारी और वरिष्ठ साहब का भी विश्वास सम्पादन कर लिया । एक तरफ पढ़ता गया, दूसरी तरफ ईमानदारी की सुंदर सेवा से सबका विश्वास सम्पादन करता गया । समय बीतता गया, स्नातक (ग्रेजुएट) हुआ और आगे चल के डाकघर का प्रधान अधिकारी हो गया फिर उससे भी आगे की पदोन्नति हुई ।

लोगों ने कहा कि ‘पुरु तो एक साधारण विधवा का बेटा और इतना आगे !’

पुरु ने कहाः ″भगवान ने आगे बढ़ने के लिए धरती पर जन्म दिया लेकिन कमाकर आगे बढ़ गये तो कई बड़ी बात नहीं है, इस कमाई का सदुपयोग करके सत्यस्वरूप परमात्मा का पाने में भी आगे बढ़ने के लिए मनुष्य जन्म मिला है ।″

″ऐ पुरु ! तुम पोस्ट ऑफिस विभाग के श्रेष्ठ अधिकारी ही नहीं बल्कि एक श्रेष्ठ नागरिक भी हो ।″

पुरु ने कहाः ″श्रेष्ठ नागरिक बनने के लिए श्रेष्ठ सीख चाहिए और वह मुझे सत्संग से, भगवन्नाम के जप और भगवान के ध्यान से मिली है । श्रेष्ठ व्यक्ति वही है जो श्रेष्ठ-में-श्रेष्ठ परमात्मा में विश्रांति पाता है ।″

पुरु वेदांत का सत्संग और आत्मविश्रांति का अवलम्बन लेते हुए आध्यात्मिक जगत में भी बड़ी ऊँचाई को उपलब्ध हुए ।

बड़े-बड़े धनाढ़य, बड़े-बड़े सत्तावान अपने जीवन से नीरसता मिटाने के लिए शराब-कबाब, दुराचार आदि की शऱण लेते हैं । वे मनुष्य धनभागी हैं जो संत-महापुरुषों का सत्संग श्रवण कर आत्मिक उन्नति की कुंजियाँ जान के अपने जीवन को रसमय बना लेते हैं । इससे उनके जीवन में लौकिक उन्नति तो होती ही है, साथ-साथ आध्यात्मिक उन्नति भी होती है । वे देर-सवेर अपनी साक्षीस्वरूप परब्रह्म-परमात्मा का साक्षात्कार कर लेते हैं, अपने ‘सोऽहम्’ स्वभाव में जग जाते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 344

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परिप्रश्नेन


प्रश्नः भगवत्कृपा, संतकृपा और गुरुकृपा क्या है ?

पूज्य बापू जीः भगवत्कृपा है कि तुम्हें संसार फीका लगने लगे और भगवद्-शांति, भगवद्-ज्ञान, भगवद्-रस में सार दिखने लगे । कैसी भी मुसीबत में से निकलने का रास्ता दे देते हैं ।

भगवान कहते हैं-

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।

जो मुझे जिस भाव से, जैसा भजता है मैं उसको उसी भाव से फल देता हूँ । यह भगवत्कृपा है पर संतकृपा इससे कुछ विलक्षण है । भगवान को तो जिस भाव से भजो, जितना भजो उस भाव से उतनी कृपा देंगे परंतु संत को भजो चाहे न भजो, उनकी दृष्टि में आ जाओ और तुम्हारे को जो जरूरत है, तुम जो माँगो, वह तो ठीक है लेकिन तुम्हारे को धीरे-धीरे फुसला के, पटा के, रेलगाड़ी चलाकर, प्रसाद फेंक के…. कैसे भी करके संत तुमको चिन्मय सुख की तरफ ले जायेंगे । जिससे भगवान भगवद्-रस में तृप्त हैं, तुमको उस रसस्वरूप में पहुँचा देंगे । पिता की कृपा में अनुशासन होता है, माता की कृपा में ममता होती है किंतु माँ दया, कृपा करती है तो ममता से करती है, पिता कृपा करता है तो अनुशासन करके अपने काम-धंधे के योग्य बनाने की कृपा करता है और भगवान की कृपा में जो जैसा भजता है उसको वैसा ही फल मिलता है परंतु संत व सद्गुरु की कृपा में ऐसा होता है कि आप कृपा न चाहो तो भी वह बरसती रहती है । जितना भी ले सकता है ले और नहीं लेता है तो लेने योग्य बनाते जाते हैं ।

संत की कृपा में प्रेम होता है, उदारता होती है क्योंकि संत भुक्तभोगी होते हैं – जहाँ तुम रहते हो वहीं से संत आये हैं तो संसार के दुःखों को, आपाधापी, संसार में कैसा पचना होता है, कैसी फिसलाहट होती है – इन सबको वे जानते हैं । इसलिए कैसा भी साधक हो… चलो, चलो, चलो – डाँटकर, प्यार करके, कुछ पुचकार के, न जाने क्या-क्या करके उठाते हैं और पहुँचा भी देते हैं । अब तुम जैसा भजो वैसा फल देने को संत नहीं तौलेंगे । ‘तुम कैसे भी हो, हमको जो मिला है वह तुमको कैसे मिले’ इस प्रयोजन से सारा आयोजन करेंगे, करायेंगे । यह संतकृपा ऐसी ऊँची होती है । मैं कभी सोचा नहीं था कि मेरे सद्गुरु जी मेरे को इतना ऊँचा पहुँचायेंगे ।

गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मङ्गलम् ।

मैं गुरु जी के पास गया तो मैं आशाराम बनूँ या मुझे ब्रह्मसाक्षात्कार हो ऐसा तो सोचा ही नहीं था । बचपन से भगवान की तड़प तो थी लेकिन समझता था कि ‘शिवजी आयेंगे, दर्शन देंगे और बोलेंगेः ‘क्या चाहिए ? मैं बोलूँगाः ‘कुछ नहीं चाहिए ।’ तो शिवजी प्रसन्न हो जायेंगे । हम समझते थे कि इसी को बोलते हैं भगवत्प्राप्ति । बाद में पता चला कि ‘अरे, यह तो कुछ भी नहीं । इतनी मेहनत करो और भगवान आये, दिखे फिर चले गये तो अपन वैसे के वैसे ।’ गुरु जी ने ऐसी कृपा की कि पता चला शिवजी जिससे शिवजी हैं, विष्णुजी जिससे विष्णुजी हैं, ब्रह्मा जी जिससे ब्रह्मा जी हैं और दुनिया जिससे चेतना पाती है वही मेरा आत्मदेव है, यह सब मेरे आत्मदेव का ही विस्तार है ।’ मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था ऐसी ऊँची अवस्था में गुरु जी ने रख दिया । यह है गुरुकृपा !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 34 अंक 344

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तीन सच्चे हितैषी – पूज्य बापू जी


सच्चे हितैषी तीन ही होते हैं-

1. संयमी, सदाचारी, शांत मन हमारा हितैषी है । जो मन में आया वह करने लगे या मन के गुलाम बने तो वह मन हमारा शत्रु है । जो मन संयमित है, शांत है वही हमारा हितैषी है । असयंमित, अशांत मन तबाही देता है ।

2. इष्टदेव हमारे हितैषी हैं । ब्रह्मवेत्ता गुरु मिलने के पहले जिनको भी इष्ट माना है वे हमारे हितैषी होते हैं । वे इष्ट ही हमारी प्रेरणा करते हैः ‘जाओ लीलाशाहजी के पास या फलाने ब्रह्मवेत्ता गुरु के पास, यह करो, वह करो….।’

3. ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु हमारे हितैषी हैं । जब सद्गुरु मिल जाते हैं तो इष्ट का काम पूरा हो जाता है । अकेले इष्ट शक्तिशाली तो हैं परन्तु वे एक शक्ति हैं, जब इष्ट गुरु के पास भेजते हैं तो शक्ति 11 गुना हो जाती है ।

इष्ट को हम मानते थे, उनकी पूजा करते थे । इष्ट ने गुरु के पास भेजा और गुरु ने इष्ट को चुरवा लिये तो इष्ट नाराज नहीं हुए कि ऐसा गुरु ? मैंने तो ऐसा साधक भेजा और मेरी ही पूजा छुड़वा दी !’ नहीं-नहीं, इष्ट और सद्गुरु पूजा के प्यासे नहीं होते, पूजा के भूखे नहीं होते । पूजा के निमित्त हमारा मंगल हो इसलिए स्वीकार कर लेते हैं, बाकी उनको क्या परवाह है ! इष्ट और सद्गुरु हमारे दुश्मन नहीं होते हैं परंतु कभी-कभार देखोगे कि अच्छे काम करके इष्ट या सद्गुरु को प्रणाम करने गये हो तो वे प्रसन्न मिलेंगे और गड़बड़ की तो इष्ट या गुरु की आँखें अंगारे बरसाती हुई मिलेंगी । हम स्वयं अपने हितैषी नहीं हैं, सद्गुरु सच्चे हितैषी होते हैं, जो कई जन्मों की हमारी कमजोरी, दोष, पाप, अपराध, दुष्टता व अकड़-पकड़ को जानते हुए भी हमारा त्याग नहीं करते, हमसे घृणा नहीं करते, हमारे लिए उनके मन में हित की भावना होती है । ऐसे पूर्ण हितैषी सद्गुरु हमें जो देना चाहते हैं उसकी हम 10 जन्मों में भी कल्पना नहीं कर सकते ।  उस परमात्म-धन के वे धनी होते हैं और वह हँसते-खेलते हमें देना चाहते हैं । आवश्यक वस्तु बिना माँगे ही सद्गुरु दे देते हैं और अनावश्यक माँगें जैसे प्रसिद्ध होने की माँग, कपट करके लोगों से पैसा बटोरने की माँग… ये सब जो गलत बातें हैं, जिनको यदि आप चाहते हैं तो गुरु जी उन चाहों को लताड़ते हुए भी आपको शुद्ध बनाने में बहादुर होते हैं । अनावश्यक वस्तुएँ, जिनको हम चाहते हैं, वे हमसे छीनते हैं और आवश्यक वस्तुएँ जिनको हम नहीं भी चाहते हैं उन्हें वे हँसते-खेलते, पुचकारते हुए देते हैं ।

शोक, विलाप, मनमुखता, छल कपट करने की तुम्हारी जो पुरानी आदते हैं उनको सच्चे हितैषी गुरु कैसे निकालते हैं वह तो वे ही जानते हैं । उस समय गुरु शत्रु जैसे भी लगें तब भी भूलकर भी उनका दामन नहीं छोड़ना चाहिए । परम हितैषी सद्गुरु तुम्हारे अहं की परवाह न करके तुम्हारी महानता पर दृष्टि रखते हैं । उनके लिए ‘परम हितैषी’ शब्द भी छोटा है ।

माँ-बाप बच्चे का जितना हित जानते और कर सकते हैं उतना बच्चा नहीं जानता है, नहीं कर सकता है । माँ-बाप की तो सीमा है परंतु सद्गुरु व इष्ट की तो सीमा होती ही नहीं है । वे असीम तत्त्व के धनी होते हैं ।

आपका गुरु जाने, आप जानो, मैं तो मेरे गुरुदेव को बोल रहा हूँ कि ‘आप ब्रह्म हैं, आप विष्णु हैं, आप चन्द्र हैं, आप सूर्य हैं, आप नक्षत्र हैं, आप ग्रहों से भी परे हैं, आप पूर्ण के पूर्ण हैं । ब्रह्मा-विष्णु, महेश का अधिष्ठान जो आत्मा है वही आप हैं ।’

मैंने अपने गुरु को जब ‘गुरु ब्रह्मा’ बोला तो मेरी आँखें पवित्र हो गयीं, भर आयीं । दुनिया में ऐसा कोई हितैषी नहीं जितना गुरुदेव हैं ।

‘हे लीलाशाह भगवान ! भगवान भी आपके आगे मत्था टेकते हैं, आप ब्रह्मस्वरूप हैं ।’ किसी ने कहाः ″मेरे गुरु तो भगवान हैं ।″

  मैंने कहाः ″तू गाली दे रहा है ।″

अरे, भगवान भी जिनका चेला बन के अपने सौभाग्य की सराहना करते हैं उनको बोलते हैं ‘गुरु’ ।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।

गुरुर्साक्षात्परब्रह्म तस्मैं श्री गुरवे नमः ।।

गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मङ्गलम् ।

जब तक ब्रह्मज्ञानी गुरु नहीं मिले तब तक इष्ट का अवलम्बन, सहारा कुछ साथ देता है परंतु जैसे जब सूरज के प्रकाश में आ गये तो दीये का प्रकाश सूरज के प्रकाश में समा जाता है ऐसे ही इष्ट का कृपा-प्रसाद गुरुकृपा आने के बाद सब गुरुकृपा में बदल जाता है ।

हमारे इष्ट को गुरुदेव ने चुरवा लिया, गोदाम में रखवा दिया । इष्ट को कोई फिक्र नहीं । उसके बाद इष्ट की पूजा हमने कभी की नहीं और अनिष्ट कभी हुआ ही नहीं, इष्ट-ही-इष्ट है । गुरु ने हमको ही करोड़ों लोगों का इष्ट बना दिया ।

हे गुरुदेव ! हम तो इस बात में बबलू थे । हम जो नहीं चाहते थे (जिसका हमें पता नहीं था) वह दे दिया और हम जो चाहते थे (शिवजी का साकार दर्शन व प्रसन्नता) वह हटवा दिया । कितना हित है आपकी दृष्टि में ! कितने हितैषी हैं आप !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 344

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