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गुरु व माता-पिता अनादर के योग्य नहीं- डॉ. प्रेमजी


किसी भी बर्ताव के कारण गुरु अपमान के योग्य नहीं होता । इसी तरह माता और पिता भी अनादर के योग्य नहीं है।

वे तीनों कदापि अपमान के योग्य नहीं है । उनके किये हुए किसी भी कार्य की निंदा नहीं करनी चाहिए ।

गुरु, पिता और माता के प्रति जो मन, वाणी और क्रिया के द्वारा द्रोह करते है उन्हें भ्रूण ह्त्या से भी महान पाप लगता है। संसार में उस से बढ़कर दूसरा कोई पापाचारी नहीं है ।”

 महाभारत के अनुशासन पर्व के ११वेन अध्याय में देवों के गुरु बृहस्पति राजा युधिष्ठिर को कहते है,

राजन, जो पुत्र अपने माता पिता का अनादर करता है वह भी मरने के बाद पहले गधा नामक प्राणी होता है। गधे का शरीर पाकर वह १० वर्षों तक जीवित रहता है  । फिर १ सालतक घड़ियाल रहने के बाद मानव योनी में उत्पन्न होता ।

मातापिता की निंदा करके अथवा उन्हें गाली देकर मनुष्य दुसरे जन्म में मैना होता है। नरेश्वर जो मातापिता को मारता है वह कछुआ होता । १० वर्ष तक कछुआ रहने के पश्चात ३ वर्ष साही और ६ महीने तक सर्प होता है, और फिर मनुष्य की योनी में जन्म लेता है ।

एक ब्रह्मज्ञानी गुरु के शिष्य होने के बावजूद जिन्होंने एक बेवकूफ छोरी के शिष्य या अनुयायी बनकर सतगुरु के विरुद्ध कार्य करने में सहयोग दिया है उन्होंने कृतघ्नता का पाप किया है । उनके प्रति करुणा से प्रेरित होकर हम उनको भी दुर्गति से बचाना चाहते है।

उनकी मरने के बाद क्या गति होती है इस बात को वे जानेंगे तो शायद उनको अपनी गलती का अहसास हो जाएगा । महाभारत के अनुशासन पर्व के १११वें अध्याय में देवों के गुरु बृहस्पति राजा युधिष्ठिर को कहते है :

“राजन, कृतघ्न मनुष्य मरने के बाद यमराज के लोक में जाता है । वहां क्रोध में भरे हुए यमदूत उसके ऊपर बड़ी निर्दयता के साथ प्रहार करते है। वह दण्ड, मुद्गर और शूल की चोट खाकर   दारुण कुम्भीपाक, असिपत्र वन, तापी हुई भयंकर बालू, काँटों से भरे हुए शाल्मली आदि नरकों में कष्ट भोगता है । यमलोक में पहुंचकर इन ऊपर बताये हुए तथा और भी बहुत से नरकों की भयंकर यातनाएं भोगकर वह यमदूतों द्वारा पीटा जाता है । इस प्रकार निर्दयी यमदूतों से पीड़ित हुआ कृतघ्न पुरुष पुनः संसार चक्र में अआता और कीड़े की योनी में जन्म लेता है । १५ वर्षों तक वह कीड़े की योनी में रहता है । फिर गर्भ में आकर वहीँ शिशु की दशा में ही मर जाता है । इस तरह कई सौ बार वह जीव गर्भों की यंत्रणा भोगता है, तदनंतर बहुत बार जन्म लेने के पश्चात वह तिर्यक योनी में उत्पन्न होता है । इन योनियों में बहुत वर्षों तक दुःख भोगने के पश्चात वह फिर मनुष्य योनी में न आकर दीर्घ काल के लिए कछुआ हो जाता है ।”  (महाभारत, अनुशासन पर्व अध्याय १११, श्लोक ९२-९८)

गुरु व माता-पिता की आज्ञा का महत्व – डॉ. प्रेमजी


अब छोरी कहती है, “हमारे परिवार में अलग अलग स्वभाव, रूचि व मत के व्यक्ति हों फिर भी घर के बड़े व्यक्ति को सभी से तालमेल बिठाकर सबको साथ लेकर चलना चाहिए। इसी में परिवार का कल्याण निहित है।”

जिस छोरी को उसकी WEBSITE में अपना जीवन चरित्र छपाते समय घर के बड़े व्यक्ति का नाम पिता के रूप में बताना आवश्यक नहीं लगा उस छोरी को अब घर के बड़े व्यक्ति की याद आ गयी यह आश्चर्यकारक है। चमचे और चम्चियों ने छोरी का अहंकार इतना बढ़ा दिया है कि वह अब जिनका उपदेश सुनकर उसको पालन करना चाहिए ऐसे ब्रह्मज्ञानी पिता को ही उपदेश देने लगी है कि उनको कैसे चलना चाहिए। हर परिवार में अलग अलग स्वभाव, रूचि व मत के व्यक्ति होते है और उनके कल्याण के लिए बड़े व्यक्ति का आदेश छोटे व्यक्तियों को मानना चाहिए यह शास्त्र का आदेश है। भगवान् श्री राम उनके भ्राता लक्ष्मण जी को कहते है:

मातु पिता गुरु स्वामी सिख सर धरी करहीं सुभायँ ।

लहेऊ लाभ तिनु जनम कर नतरु जनम जग जायँ ।।

 (श्री राम चरित मानस, अयोध्या काण्ड, ७०)

“जो लोग माता पिता गुरु और स्वामी की शिक्षा को स्वाभाविक ही सर चढ़ाकर उसका पालन करते है, उन्होंने ही जन्म लेने का लाभ पाया है; नहीं तो जगत में जन्म व्यर्थ है।”

राज्याभिषेक के बदले १४ साल वनवास की आज्ञा जब पिता दशरथ ने रामजी को दी तब भी वे उस आज्ञा के पालन का कितना महत्त्व समझते है यह उन्होंने भ्राता भारत को बताया है।

मोर तुम्हार परम पुरुषारथ स्वारथ सुजस धरम परमारथ ।

पितु-आयसु पालिय दुहूँ भाई लोक बेद भल भूप भलाई ।।

“मेरा और आपका अत्युत्तम पुरुषार्थ, स्वार्थ, सुयश, धर्म और परमार्थ यही है कि दोनों भाई पिता की आज्ञा का पालन करें, यह लोक तथा वेद-मत से उत्तम है, और राजा की प्रतिष्ठा है अर्थात परलोक में उनकी आत्मा प्रसन्न होगी।” 

महाभारत राज्धार्मानुशासन पर्व के १०८ वे अध्याय में भीष्म पितामह राजा युधिष्ठिर को माता पिता और गुरु जनों की आज्ञा का महत्त्व बताते हुए कहते है:

 “तात युधिष्ठिर, भली भाँती पूजित हुए वे मातापिता और गुरु जन जिस काम के लिए आज्ञा दें, वह धर्म अनुकूल हों या विरुद्ध, उसका पालन करना ही चाहिए । जो उनकी आज्ञा के पालन में संलग्न है, उसके लिए दुसरे किसी धर्म के आचरण की आवश्यकता नहीं है। जिस कार्य के लिए वे आज्ञा दें वही धर्म है । जिसने इन तीनों का आदर कर लिया उसके द्वारा सम्पूर्ण लोकों का आदर हो गया और जिसने इन का अनादर कर दिया उसके सम्पूर्ण शुभ कर्म निष्फल हो जाते है ।

जिसने इन तीनों का सदा अपमान ही किया है उसके लिए न तो यह लोक सुखद है और न परलोक

डॉ प्रेमजी के पत्र के जवाब का खंडन -9


आपने लिखा है “आपके आश्रम वाले  आते है सत्संग सुनने कुछ तो माल मिलता होगा ।“

ऐसा तो हमने कहा नहीं है कि कुछ नहीं मिलता. कथा मिलती है, कीर्तन, भजन मिलते है, बहुत कुछ मिलता है. पर साथ में श्रद्धांतरण का जहर भी मिलता है. जैसे किसी ने भोजन में हमें मेवे, मिठाइयां, स्वादिष्ट व्यंजन आदि से भरकर थाली दी हो पर साथ में एक मीठे जहर की गोली भी उस में मिलाई हुई हो तो वह भोजन खानेवाले को मौत की और ले जाता है, वैसे ही तरह श्रद्धांतरण रुपी जहर मिलाया हुआ कथा, कीर्तन, आदि सब गुरुभक्त को विनाश की तरफ ले जाते है. जहर वाला भोजन तो एक बार ही मारता है पर श्रद्धान्तरण रुपी जहर वाला भोजन अनेक जन्मों में साधक को मारेगा क्योंकि वह जन्म मरण से मुक्त करनेवाले सतगुरुसे विमुख कर देता है. अतः कुछ नहीं मिलता ऐसा हमने नहीं कहा, हम तो यह कहते है कि जो माल बापूजी से मिलता था वह तीनों लोक में और किसी जगह नहीं मिल सकता.

अतः मैं फिर से मेरे गुरुदेव के शिष्यों को प्रार्थना करता हूँ कि वे गुरुदेव के संकेत के अनुसार चले, किसीके बहकावे में आकर आतंरिक संघर्ष न करे, क्योंकि ऐसा करने से हम अपने गुरुदेव की शक्ति का ही ह्रास करते है क्योंकि दोनों गुटों के लोग एक ही गुरु के शिष्य है और उन सबको एक ही गुरुदेव से शक्ति मिलती है. जो मेरे गुरुदेव के समर्पित शिष्य ही नहीं है उनके बहकाने से अगर मेरे गुरुदेव के शिष्य आपस में संघर्ष करके अपने समय और शक्ति का ह्रास करेंगे तो उस से गुरुदेव नाराज होगे.

 गुरु के आदेश के बिना कुछ भी मनमानी करना सच्चे शिष्य को शोभा नहीं देता.

और हमारे गुरु ही जेल में गए हो ऐसी बात नहीं है. इतिहास में ऐसा अनेक बार हुआ है. गुरु अर्जनदेव को जहांगीर ने जेल में डाल दिए थे, गुरु हरगोविंद को भी जेल में डाल दिए थे तब उनके शिष्यों ने क्या किया ये उनसे सीखो. उनके शिष्यों को उन गुरुओं ने जेल में से कोई सन्देश भी नहीं भेजा था, फिर भी उनके शिष्यों ने मनमानी नहीं की. उनके आदेश की प्रतीक्षा की और आदेश मिलने पर उसका पालन किया  और और जिनके गुरु बार बार जेल में से सन्देश देते है फिर भी उनकी बात न मानकर जो आपसी कलह में उलझाना चाहते है उनकी बात जो मानते है वे बालिश है. ऐसे गुमराह करनेवालों से गुरु के सच्चे शिष्यों को सावधान रहना पड़ेगा. अन्यथा वे महापाप के भागी होगे.  गुरु के संकेत और गुरु के आदेश का अनादर करेंगे वे गुरु के ह्रदय से उतर जायेंगे.

फिर से याद दिलाता हूँ कि यह पत्र मेरे गुरुदेव के शिष्यों में आपसी कलह मिटाने के उद्देश्य से ही लिखा है, मेरा कुप्रचार रोकने के लिए नहीं. दोनों गुट मिलकर मेरा कुप्रचार खूब करो, पर आपको मेरे गुरुदेव से मिली हुई शक्ति का आपसी कलह में उलझकर ह्रास मत करो.