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आँवले का वृक्ष पवित्र-पूजनीय क्यों ? – पूज्य बापू जी



सृष्टि की शुरुआत में भगवान नारायण ने अपने मुँह से जैसे
मनुष्य थूकता है ऐसे एक बिन्दु उत्सर्जित किया (छोड़ा) तो वह चन्द्रमा
की नाईं चमचमाता बिंदु धरती पर गिरा और भगवान नारायण का
संकल्प कहो या वनस्पति जंगल का आदि कहो, वहाँ धरती का पहला
वृक्ष उत्पन्न हुआ । उस वृक्ष का दर्शन करके देवता लोग आनंदित होने
लगे । धरती पर पहली बार वृक्ष देखा तो सब आश्चर्यचकित हो गये कि
‘यह क्या है, कैसा है ? इतने फल लगे हैं !…’
आकाशवाणी हुईः ‘आश्चर्य न करो । यह आमलकी (आँवला) का
वृक्ष है । इसके सुमिरन से मनुष्य को गोदान का फल होगा । इसके
स्पर्श से दुगना फल होगा और इसका फल खाने से तिगुना फल होगा ।
इसके नीचे कोई व्रत-उपवास करके प्राणायाम, ध्यान, जप करेगा तो
कोटि गुना फल होगा । यह वृद्ध को जवान बनाने वाला तथा हृदय में
भगवान नारायण की भक्ति और देवत्व जागृत करने वाला होगा ।’
गोदान का फल मिलता है अर्थात् चित्त की वैसी ऊँची स्थिति होती
है । आँवला पोषक और पुण्यदायी है । आँवले के पेड़ को स्पर्श करने से
सात्त्विकता और प्रसन्नता की बढ़ोतरी होती है । आँवला सृष्टि का आदि
वृक्ष है । शास्त्रों में आँवले की वृक्ष की बड़ी भारी महिमा आयी है ।
कार्तिक मास में आँवले के वृक्ष की छाया में भोजन करने से एक
तक के अन्न-संसर्गजनित दोष (जूठा या अशुद्ध भोजन करने से लगने
वाले दोष) नष्ट हो जाते हैं । आँवले का उबटन लगाकर स्नान करने से
लक्ष्मीप्राप्ति होती है और विशेष प्रसन्नता मिलती है । जैसे दान से
अंतःकरण पावन होता है, शांति, आनंद फलित होते हैं, ऐसे ही आँवले के
वृक्ष का स्पर्श और उसके नीचे भोजन करना हितकर होता है ।

आँवले का रस शरीर पर मल के, सिर पर लगाकर थोड़ी देर बाद
स्नान करे तो दरिद्रता दूर हो जाती है और शरीर में जो गर्मी है, फोड़े-
फुंसी है, पित्त की तकलीफ है, आँखें जलती हैं – ये सब समस्याएँ ठीक
हो जाती हैं । आँवले के वृक्ष का पूजन, आँवले का सेवन बहुत हितकारी
है । आँवला व तुलसी मिश्रित जल से स्नान करें तो गंगाजल से स्नान
करने का पुण्य होता है ।
आँवले की महिमा उस समय ही थी ऐसा नहीं है, अब भी है ।
हमने तो सभी आश्रमों में आँवले के वृक्ष लगवा दिये है । पर्यावरण की
दृष्टि से भी यह बहुत उत्तम वृक्ष है ।
इस आँवले ने मानव जाति को जो दिया है वह गज़ब का है !
शास्त्रों के अनुसार आहार-द्रव्यों में छः रस होते हैं और उत्तम, संतुलित
स्वास्थ्य के लिए ये छहों रस आवश्यक बताये गये हैं । उनमें से 5 रस
अकेले आँवले से मिल जाते हैं । भोजन के बीच-बीच में कच्चे आँवले के
टुकड़े चबा के खायें तो पुष्टि मिलती है और पाचन तेज होता है ।
शरीर को जितना विटामिन ‘सी’ चाहिए उसकी पूर्ति केवल एक आँवला
खाने से हो जाती है । आँवला श्रेष्ठ रसायन है । यह दीर्घायुष्य, बल,
ओज व शक्ति देता है, आरोग्य बढ़ाता है, वर्ण निखारता है ।
मृत व्यक्ति की हड्डियाँ कोई गंगा में न डलवा सके तो स्कंद
पुराण के अनुसार आँवले के रस से धोकर किसी भी नदी में डाल देंगे तो
भी सद्गति होती है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 23 अंक 357
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गुरु संकल्प और लघु संकल्प



भगवान शंकराचार्य का गुर्वष्टकम् डंके की चोट पर संदेश देता है
कि तुम लघु (तुच्छ) संकल्प में तबाह मत हो जाओ ।
योगवासिष्ठ महारामायण में आता हैः
सर्व स्वसंकल्पवशाल्लघुर्भवति वा गुरुः । (उत्पत्ति प्रकरणः सर्ग 70
श्लोक 30)
‘सभी लोग अपने लघु संकल्प से लघु होते हैं और अपने गुरु
(महान) संकल्प से महान होते हैं ।’
छोटे विचारों और कर्मों से व्यक्ति तुच्छ बन जाता है और महान
संकल्पों, ऊँचे विचारों से, ऊँचे कर्मों से महान हो जाता है । और महान-
में-महान भगवत्प्राप्ति के संकल्प से मनुष्य भगवद्-स्वरूप हो जाता है ।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।।
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ।। (गीता) 6.5-6)
यह जीव अपने आपका ही मित्र है और अपने आपका ही भयंकर
शत्रु है । जो ऊँचे कर्म, ऊँचे विचार और ऊँचे-में-ऊँचे ईश्वर की तरफ
चलता है वह अपने आपका मित्र है और जो काम, क्रोध, लोभ, मोह,
अहंकार, छल, झूठ, कपट में पड़ता है वह अपने आपका ही शत्रु है ।
तुलसी रामायण (अयो.का. 91.2) में आता हैः
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।
‘कोई भी किसी को सुख और दुःख देने वाला नहीं है ।’
निज कृत करम भोग सबु भ्राता ।।

व्यक्ति अपने ही कर्मों का, सोच-विचार का फल भोगता है । और
श्रीकृष्ण ने और भी ऊँची बात कहीः
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।।
पंचभौतिक शरीर और मन, बुद्धि, अहंकार ये आठों प्रकृति के हैं ।
इनमें परिवर्तन होता है, यह नश्वर है भूलभुलैया । इससे मैं भिन्न हूँ ।
श्रीकृष्ण ने ऊँचा संकल्प करने का ऊँचा ज्ञान भी भर दिया गीता में ।
तो आप भी अष्टधा प्रकृति के शरीर से, मन, बुद्धि और अहंकार से
अपने को अलग-थलग आत्मा – साक्षी जानने का प्रयास करो । इससे
आपके संकल्प में गजब की शक्ति आयेगी, जीवन में अद्भुतता आ
जायेगी ।
यह संकल्प का ही प्रभाव है कि लोगों को होता है कि ‘दुनिया में
कहीं जाकर कुछ करें…’ फिर वह व्यक्ति यू.एस.ए. गया, यू.के. गया,
हाँगकाँग गया, दुबई गया… फिर डॉलर कमाने में लगा… संकल्पों के
पीछे तो यह सब दौड़ हो रही है परंतु यह तुमको अष्टधा प्रकृति में
बाँधने वाला संकल्प है । दूसरा संकल्प है जिससे तुम तो तर जाओ,
तुम्हारे द्वारा दूसरे भी तर जायें ।
गुजरात में अखा भगत हो गये । वे पूरे भक्त थे, आत्मज्ञानी-
परमात्मा से जो विभक्त न हों ऐसे महान आत्मा थे अखा जी । उन्होंने
स्पष्ट शब्दों में आज के मानव को चैताया कि
सजीवाए नजीवाने घड्यो, पछी कहे मने कंई दे ।
सजीव ने निर्जीव को बनाया – चाहे संगमरमर के पत्थर से मूर्ति
बनी हो पर बनायी सजीव चैतन्य ने । एकाग्रता के लिए श्रद्धा के लिए,
सद्भाव के लिए ठीक है लेकिन जड़ पत्थर में से मूर्ति बनायी और फिर

उसमें प्राणप्रतिष्ठा करायी और फिर मूर्ति के आगे मूर्ति बनाने वाले ही
गिड़गिड़ाते रहेः ‘मेरे को यह दे दो, मेरे को वह दे दो…’ तो अखा कहते
हैं, ‘तुम्हारी एक आँख फूटी है कि दोनों ?’
अखो तमने इ पूछे कि तमारी एक फूटी कि बे ?
वास्तव में मनुष्य अपने भाग्य का आप विधाता है परंतु अज्ञान के
कारण अष्टधा प्रकृति के चंगुल में फँसा है कि ‘हे फलाने देव ! हे
फलानी देवी ! हे फलाना… तू मुझे यह दे, यह दे… !
अखो कहे अंधारो कुओ, झगड़ो मटाडी कोई ना मुओ ।
यह जगत एक अँधेरे कुएँ जैसा है । आज तक यहाँ कोई भी
मनुष्य संसार की सब समस्याएँ मिटाकर शांति से नहीं मरा है ।
वेद मंगलकारी प्रार्थनाओं से भरे हैं-
भद्रं नो अपि वातय मनः ।।
‘हे प्रभु ! हमारे मन को क्ल्याण से भर दो ।’ (ऋग्वेदः मंडल10,
सूक्त 20, मंत्र 1)
ऋग्वेद (मंडल 1, सूक्त 123, मंत्र 6) में प्रार्थना आती हैः
उदीरतां सूनृता उत्पुरन्धीरुदग्नयः शुशुचानासो अस्थुः ।
‘हमारे मुख से प्रिय एवं सत्य वाणी निकले । हमारी प्रज्ञा प्रबुद्ध
हो । सत्कर्म के लिए हमारा दीप्त संकल्पबल पूर्णरूप से प्रज्वलित हो ।’
‘हे सत्स्वरूप परमात्मा ! मैं असत् में फँसा हुआ हूँ, विनश्वर में
फँसा हुआ हूँ, आप मुझे सत् का अनुभव कराइये । हे ज्ञानस्वरूप ! मैं
अज्ञान के अंधेरे में भटक रहा हूँ, मुझे ज्ञान का प्रकाश दिखाइये । हे
आनंदस्वरूप ! मैं दुःख से व्याकुल हो रहा हूँ, मुझे अमृत का आस्वादन
करा दीजिये । हे निरंजन ! मैं आपको नहीं देख सकता, आप मुझे अपने
सत्सवरूप का साक्षात्कार करा दीजिये । हे चित्स्वरूप ! मेरे अंतर में

ज्ञानरूप से प्रकट हो जाइये ।’ इस तरह जब यह प्रार्थना की धारा हृदय
में बहने लगती है तब एक दिव्य रसायन हमारे हृदय में उत्पन्न होता है

उद्दालक संकल्प करते हैं- ‘ऐसे दिन कब आयेंगे कि मैं संसार के
सुख और दुःख को देखकर हँसूँगा कि यह सब सपना है ।’ राजा भर्तृहरि
ऐसा संकल्प करते हैं कि ‘हे शिव ! ऐसे दिन कब आयेंगे कि किसी
शिला पर शिवस्वरूप में ऐसा समाधिस्थ हो जाऊँ कि जंगल के बूढ़े
हिरण अपने सींगों की खुजली मेरे शरीर को रगड़ के मिटायें और उनको
पता न चले कि यह साधु है और न मुझे कुछ पता चले…’ क्या शुभ
संकल्प है ! संकल्प करो तो ऐसा करो । ‘मुझे लाड़ी (पत्नी) कब मिलेगी
?’ वह तो अपने आप मिलेगी, अपने आप बिछुड़ेगी । और तुम नहीं
छोड़ना चाहोगे तो भी अपने आप जूते सुँघायेगी, भला-बुरा सुनायेगी तो
अपने आप दूरी हो जायेगी । ‘लाड़ा (पति) कब मिलेगा…?’ लाड़ा के लिए
रोओगी-धोओगी तो लाड़ा भी ऐसा ही मिलेगा । ईश्वर के लिए जियो ।
लाड़े के लिए, लाड़ी के लिए, फर्नीचर के लिए… लोग तो अपने जीवन
को तबाह करने वाली चीजों में लघु बन जाते हैं बेचारे । दिखते तो बड़े
सेठ हैं लेकिन यह नहीं मिला – आज मूड खराब ! अरे, निगुरी चीज नहीं
मिली तो मूड खराब है… तो तेरा उधारा मूड है ।
पूरे हैं वे मर्द जो हर हाल में खुश हैं ।…
निरंजन वन में साधु अकेला खेलता ह ।।
तन की कूंडी मन का सोंटा, हरदम बगल में रखता है ।
पाँच पच्चीसों मिलकर आवें, उनको घोंट पिलाता है ।।…
अंजन माने इन्द्रियाँ । निरंजन माने जो इन्द्रियों की पहुँच से परे
हो । ब्रह्मवेत्ता साधु निरंजन, निराकार सच्चिदानंद में रहते हैं ।

घर चमकाया… गाँव चमकाया… इलाका चमकाया तो क्या
चमकाया ? ये सब चमका-चमका के क्या किया ? रावण ने लंका
चमकायी और खुद नहीं चमका तो क्या हुआ ? ‘मेरा यह चमके… मेरा
यह चमके…’ अरे ! तू सदा चमकने वाला है । तू अपने आत्मस्वरूप को
जान ले बेटे ! आत्मलाभ पा ले । फिर जो भलाई तेरे द्वारा होनी होगी
वह अपने आप होगी ।
यह सत्संग पढ़ें और अपने संकल्प उत्तम बनायें और उत्तम-से-उत्तम
संकल्प है आत्मसाक्षात्कार का संकल्प, परमानंद, अमिट शांति पाने का
संकल्प । आप तो शुभ संकल्प ऐसा करो कि ‘जिसकी कभी मौत नहीं
होती है उस अपने मैं को जान लें । जिसको कभी कोई बीमारी नहीं
होती, जिसकी कभी कोई हानि नहीं होती उस अपने आत्मा यानी मैं को
जान लें, अपने आत्मदेव को जान लें ।’ इसमें लगकर अपना जीवन
सार्थक करें ।
परम शुभ संकल्प करो
सर्वं खल्विदं… ….क्रतुं कुर्वीत ।।
‘यह सम्पूर्ण जगत निश्चय ही ब्रह्मस्वरूप है । यह उसी से
उत्पन्न होता, उसी में लय होता, उसी से चेष्टा करता है । राग-द्वेष से
दूर शांतभाव से उसी की उपासना करनी चाहिए क्योंकि पुरुष निश्चय ही
संकल्पमय है । इस लोक में पुरुष जैसे संकल्प धारण करता है वैसा ही
मरने के बाद होता है । अतः पुरुष को सत्संकल्प करने चाहिए ।’
(छान्दोग्य उपनिषद् अध्याय 3, खंड 14, मंत्र 1)
शुभ संकल्प सद्गुणी बना देते हैं परंतु संकल्प इतने नहीं करो कि
गड़बड़ हो जाय । शुभ संकल्पों की भीड़ मत करो । जितने कम संकल्प,
जितने कम फुरने है, उतना अच्छा है । इसलिए ‘हरि ॐ’ का प्लुत

उच्चारण करके शांत होना, जिस तिस फुरने के पीछे पड़ना नहीं, जिस
किसी संकल्प को पकड़ के उसके पीछे लगना नहीं । खूब छाँट-छाँट के
शुभ संकल्प… और शुभ-से-शुभ, शुभ-से-शुभ… परम शुभ, परम शुभ का
भी परम शुभ संकल्प है ईश्वरप्राप्ति का संकल्प ।
एक ही पकड़ो बस, सुख आये तो क्या है ? उसे क्या भोगना,
आता है तो जायेगा । दुःख आये तो दुःखी क्या होना ! सुख-दुःख में
समता… यही संकल्प करो तो तुम्हारी साधना हो जायेगी । सुख-दुःख
आयें-जायें, वाह-वाह ! भला हुआ, अच्छा हुआ ।
मैं सच्चे हृदय से हाथ जोड़ के बोलता हूँ कि ईश्वरप्राप्ति के
संकल्प के आगे दूसरे सब संकल्प लघु-लुघु-लघु, तुच्छ-तुच्छ-तुच्छ हैं ।
ईश्वर का और तुम्हारा संबंध कभी टूट नहीं सकता और शरीरों का संबंध
सदा रह नहीं सकता ।
संबंध ऊँचा हो बस ! जो ईश्वर की तरफ हैं उन लोगों का सम्पर्क
करो, जो ईश्वर-संबंधी शास्त्र हैं, ग्रंथ हैं उनका अध्ययन करो । ईश्वर
संबंधी जो मंत्र हैं वे कल्याणकारी हैं । हम गुरुमंत्र भी वही देते हैं जिसमें
ॐकार हो, जिसमें अंतर्यामी की करुणा-कृपा छुपी हो ।
छोटे-मोटे मंत्र तो बहुत हैं परंतु कब तक साधक 12 साल, 12
साल, 12 साल… 60 साल की लम्बी साधना में अटके रहेंगे । मेरा तो
जल्दी कल्याण में मन मानता था । इसलिए लम्बी साधना कोई बताता
था तो शिष्टाचार के नाते मैं प्रणाम करके चलता बनता था । जहाँ चाह
होती है वहाँ राह मिल ही जाती है ।
संकल्प में दृढ़ता लाओ !
संकल्पशक्ति की बड़ी भारी महिमा है । मगधनरेश कुमारगुप्त के
14 साल के बेटे स्कंदगुप्त ने दढ़ संकल्पशक्ति के प्रभाव से हूण प्रदेश

के दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिये थे । संकल्प की दृढ़ता से ही देवव्रत ने
पिता की प्रसन्नता के लिए आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत पाला और
पितामह भीष्म के रूप में विश्वप्रसिद्ध हुए ।
सिद्धार्थ ने निश्चय कर लियाः ‘कार्यं वा साधयामि देहं वा
पातयामि । या तो कार्य साध लूँगा या मर जाऊँगा । महल में भी एक
दिन मर ही जाना है, साधना करते-करते भी मर जाऊँगा तो कोई हर्ज
नहीं ।’ ऐसा सोचकर पक्की गाँठ बाँध ली और चल पड़े । सात साल के
अंदर ही उन्हें परम शांति मिल गयी, महात्मा बुद्ध बन गये ।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहाः
भजन्ते मां दढ़व्रताः । (गीताः 7.28)
आप दृढ़व्रती हो जाओ । भगवत्प्राप्ति का संकल्प करके फिर दृढ़
हो जाओ । सत्य के रास्ते जाते हैं तो यार रूठे तो रूठे पर सत्य का
रास्ता नहीं छोड़ना ।
दृढ़व्रती शिवाजी ने कहाः “ऐ जंगल की महारानी शेरनी ! शिवा
तुझसे प्रार्थना करता है कि गुरु जी के उदरशूल के उपचार के लिए तू
मेरे को दूध दे दे । मुझे खाना हो तो मैं आ जाऊँगा तेरे पास ।”
देखा कि आने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी, वह तो गाय की तरह
खड़ी हो गयी और शिवा दूध ले के आ गये । कैसा संकल्प का बल है !
‘होगा कि नहीं होगा, मेरे को डर लगता है…’ तो नहीं होगा । अपने
संकल्प में बल होना चाहिए । अच्छा संकल्प पकड़ो और उसको छोड़ो
नहीं । निश्चय दृढ़ होना चाहिए ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 5-8, अंक 357
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दोष प्रकृति में है और निर्दोष होने का सामर्थ्य तुममें है – पूज्य
बापू जी



तोतापुरी महाराज समुद्र की बालू में दोपहर तक लेटे रहते और
धूनी भी जगाते थे । उनके शरीर में पित्तदोष बढ़ गया, इससे उनका
स्वभाव गुस्सेवाला हो गया था । एक बार रामकृष्णदेव को पता चला कि
पौष मास की कड़कड़ाती ठंडी में गुरुजी फलानी जगह पर आये हैं ।
रामकृष्णदेव अपने गुरु की महिमा, प्रभाव जानते थे क्योंकि वे माँ काली
की उपासना से, प्रीति से सुसम्पन्न हृदय के धनी थे । वे गुरु जी की
सेवा में पहुँच गये । रात का समय था । गुरु-शिष्य के बीच सात्तिवक
वार्तालाप और सत्संग चल पड़ा । सुख-दुःख में समता का महत्त्व, सर्वं
कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते… सारे शुभ कर्मों का फल यह है कि
अपने आत्मा-परमात्मा के ज्ञान में जीवन धन्य हो जाय… आदि विषयों
पर गुरु-शिष्य की चर्चा चलते-चलते प्रभात हो चला ।
इतने में एक हुक्केबाज नशेड़ी आया । बोलाः “बाबा ! थोड़ी-सी
अग्नि चाहिए, तुम्हारी धूनी से एक कोयला ले लूँ ?”
बाबा ने देखा कि यह तो हुक्केबाज है, बोलेः “अग्नि नहीं है ।”
“बाबा ! आप सहमति दो तो मैं एक कोयला ढूँढ लूँ ?”
बाबा ने सोचा होगाः ‘लातों के भूतों को बातो से मनाने में समय
गँवाना ठीक नहीं है ।’
बाबा ने लाल आँखें दिखायीं और चिल्लाये । वह तो दौड़ा, बाबा जी
भी चिमटा हाथ में ले के उसके पीछे दौड़े ।
“तू ठहर, तेरे को देखता हूँ, ठहर तू….!’
वह आगे और बाबा जी पीछे । दे धमाधम…! धमाधम…!! उसको
दूर भगा के आये तो रामकृष्ण हँसने लगे । कोई क्रुद्ध हो और उस पर

आप उसी समय हँसो तो क्रुद्ध व्यक्ति का क्रोध कहीं भी बरस सकता
है ।
तोतापुरी गुरु ने गुस्से-गुस्से में रामकृष्ण को 3 चिमटे दे मारे ।
3 चिमटे परीक्षा के लिए नहीं, गुस्से में आ के मार दिये ।
रामकृष्ण की उपासना थी भावप्रधान, प्रसन्नताप्रधान ! वे हँसेः “गुरुदेव !
आज जो प्रसाद मुझे मिला है ऐसा किसी को नहीं मिला होगा । आपकी
बड़ी कृपा है, आपने मेरे को अपना माना ।” ऐसा करके गुरुदेव के चरणों
में पड़ गये और उऩकी महिमा गयी ।
तो गुरु तोतापुरी जी को हुआ कि ‘अरे, मैंने कोध के आवेग में
आकर इसको मारा और यह मेरे में सद्गुण देखता है !’ तुरंत अपने
साक्षी स्वभाव में, अष्टधा प्रकृति से परे स्वभाव में सजग हो गये ।
प्रेमिल व्यक्ति गुस्से के प्रसंग को भी प्रेम में बदल देता है परंतु
दुर्वासा ऋषि आदि गुस्सा करते थे तो छोटे हो गये और अन्य बड़े हो
गये ऐसा नहीं है । पित्तवाले व्यक्ति को गुस्सा आ ही जाता ह । वात-
पित्त-कफ, गुण-दोष सब अष्टधा प्रकृति में हैं, तुम्हारे शुद्ध स्वरूप में
कुछ भी नहीं है । न पित्त है, न काम है, न क्रोध है, न भय है, न जन्म
है, न मृत्यु है । असलियत में तुम अखंड आनंदस्वरूप, सच्चिदानंद हो !
तुम ऐसे संकल्प करो कि अपने असली रूप को जानने में सहयोगी हों ।
अपने आपको जानो फिर तो तुम्हारा मौत से कोई लेना-देना ही नहीं,
शरीर चाहे हजार वर्ष जिये, चाहे हजार सेकंड जिये, चाहे 2 सेकंड में
चला जाय ।
जन्म मृत्यु मेरा धर्म नहीं है… यह अष्टधा प्रकृति का है । पाप
पुण्य कछु कर्म नहीं है… यह कर्ता का है, अहंकार का है ।
मैं अज निर्लेपी रूप, कोई कोई जाने रे ।।

बोलेः “मेरे में क्रोध की आदत है ।”
आपमें नहीं है क्रोध की आदत, अष्टधा प्रकृति में है । आप जब
अपनी महिमा को भूलते हैं, अष्टधा प्रकृति से जुड़ते हैं तो उसका दोष
अपने में मानकर व्यवहारकाल में बोल देते हो । वरना तो आप चैतन्य
हैं, अमर हैं, शाश्वत हैं । आपमें कोई दोष या कोई दुःख हो ही नहीं
सकता, व्यवहार में तो ज्ञानवानों को भी बोलना पड़ता है, ‘मेरे मैं है’ ।
तोतापुरी जी ने लम्बा श्वास लिया और दृढ संकल्प किया कि
‘आज के बाद इस क्रोध को फटकने नहीं दूँगा ।’ और उऩके इस दृढ़
संकल्प ने जीवनभर क्रोध को पास में फटकने नहीं दिया ।
दोष अष्टधा प्रकृति में है और निर्दोष होने का सामर्थ्य तुम्हारे
आत्मदेव में है । यदि व्यक्ति संकल्प करके दृढ़ निश्चय करे कि ‘चाहे
कुछ भी हो जाय मुझे क्रोध नहीं करना है… या अमुक दुर्गुण के वशीभूत
नहीं होना है’ तो क्रोध या उस दुर्गुण से बच सकता है । संकल्प में बड़ी
शक्ति होती है । बस, संकल्प शिथिल नहीं होना चाहिए । तुम ठान लो
असम्भव भी सम्भव हो जायेगा ।
वो कौन सा उकदा है जो हो नहीं सकता ?
तेरा जी न चाहे तो हो नहीं सकता ।।
छोटा सा कीड़ा पत्थर में घर करे ।
इंसान क्या दिले-दिलबर में घर न करे ?
तुम दिलवाले हो । दिल का देवता तुम्हारा सजग है । तो बहादुरों
के बहादुर हैं तोतापुरी महाराज ! ठान लिया कि ‘क्रोध भड़के तो सावधान
रहूँगा, अब यह क्रोध नहीं होगा ।’
मन को वश करने की कुंजी

ऐसे मैं अपनी बात बताता हूँ । सींगदाना (मूँगफली) में विटामिन ई
होता है और नमकीन सींगदाना स्वादिष्ट भी होता है तो मैंने सेवक को
कहा कि अगर नमकीन सींगदाने आये हों तो ले के आना । मैंने अपने
लिए कोई चीज खरीद के खायी हो ऐसा मेरे को याद नहीं है । सहज में
आता है तो कहता हूँ- “ले आओ ।” थोड़ा नमकीन सींगदाना ले आया ।
वह पड़ा रहा, पड़ा रहा… । मन ने कहाः ‘खा लो ।’
मैंने कहाः ‘तू खा के देख ! उठा के तो देख !’ दम मार दिया !
ऐसा चुप हो गया कि कई दिनों, कई सप्ताह तक पड़ा रहा । मेरे को
हुआ, ‘बस ! अब आ गयी कुंजी हाथ में ! कोई भी गड़बड़ संकल्प होगा
तो मन को कहूँगाः ‘करके तो देख !…’ दम मारूँगा मैं ।’ दम मारा तो
फिर दम सफल भी होना चाहिए और होता ही है । दृढ़ निश्चय से करो
तो हो ही जायेगा ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 24, 25 अंक
357
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