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जितनी निष्कामता उतना आनन्द – पूज्य बापू जी



अकर्तृत्वं अभोक्तृत्वं… भाव को जगाते जायें । काम तो करें किंतु
काम किया हाथ-पैरों ने, सेवा की मन ने, बुद्धि ने, उनको जिस
परमात्मा से सत्ता मिली उसकी स्मृति करते गये तो हो गया परमात्म-
सुमिरन । जो काम करते हैं वह ऐसे करें कि काम सेवा हो जाय, बंदगी
हो जाय, पूजा हो जाय । हनुमान जी का युद्ध करना भी पूजा हो जाता
है, लंका जलाना भी पूजा हो जाता है ।
समुद्र में से मैनाक पर्वत निकलकर कहता हैः “हनुमान जी ! आप
राम काज करने जा रहे हैं । इतना लम्बा रास्ता है, आप थोड़ा विश्राम
करिये । क्योंकि रघुकुल का मेरे ऊपर बड़ा उपकार है ।”
हनुमान जी कहते हैः “आपको साधुवाद है, धन्यवाद है किंतु मेरे
राम जी के कार्य पूरे किये बिना मुझे विश्राम कैसा ?
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम ।।”
ऐसे अविश्रांत हो कार्य में रत रहे ।
एक स्थान पर 4 बेटे और बाप मिलकर लगे खेत जोतने । खेत
जोतते-जोतते बंजर जमीन को नंदनवन बना दिया । अच्छी आय करने
लगे । घर का घर भी हो गया, 2-4 बैलगाड़ियाँ भी हो गयीं, छोटे-मोटे
और भी साधन आ गये, सुख-सम्पत्ति लहराने लगी । बेटों ने कहा कि
“पिता जी ! अब बहुत कमा लिया है, मकान भी बन गया है, अब नौकर
चाकर रख लें और आराम से जिंदगी जियें ।”
बाप ने कहाः “अभी थोड़ा सा और भी कर लो, जिंदगी थोड़ी सी है
फिर तो कब्र में आराम करना ही है सदा के लिए । यदि साधन मिल
गये तो आलसी बन जाओगे तो काम नहीं बनेगा । जब तक जीना, तब
तक सीना । कब्र में तो लम्बे पैर पसार कर आराम करना ही है ।”

4 पैसे कमाने वाला बाप बेटों को कहता है कि “नौकर चाकर रखके
आराम करोगे तो तमस हो जायेगा ।” जिसको 4 पैसे कमानेन हैं उसको
भी इतना ख्याल है तो जिसको परमात्मा को पाना है उसको अभी
आराम की क्या जरूरत है ? वह बाप तो बेटों को बोलता है कि ‘बेटा !
कब्र में आराम करना ।’ लेकिन गुरु ऐसा नहीं बोलते कि ‘कब्र में आराम
करना ।’ गुरु बोलते हैं- ‘राम में आराम करना, उसके पहले आराम मत
करो ।’
बोलेः इतना-इतना काम है, मुझे आराम चाहिए… । तो थकान
उतारने के बाद भी थकान ही रहेगी और जीवन आलसी-प्रमादी हो
जायेगा । लोग बोलते हैं- ‘कार्य करने के बाद में फल मिलेगा तब सुखी
होंगे ।’ नहीं, निष्काम कार्य करते समय ही उसका फल छलकाता है और
परिणाम में तो परमात्मा का साक्षात्कार करा देता है । काम करते समय
जितनी निष्कामता होती है व्यक्ति जितना देहाध्यास भूला होता है,
उतनी ही उसको ब्रह्मानंद की झलकें मिलती रहती हैं ।
स्वामी रामतीर्थ बोलते थेः “मूर्ख लोग ऐसा समझते हैं कि ‘कार्य
करने के बाद जब उसका फल मिलेगा तब सुख भोगेंगे ।’ उन अंधों को
पता नहीं कि कर्म अपने-आप में पूर्ण है ।”
कर्म में जितनी अधिक निष्कामता होती है उतना ही वह कर्म
आपको अधिक आनंद देता है, माधुर्य छलकाता है । तो जो काम किया
उधऱ न देखो कि ‘मैंने इतना काम किया ।’ इससे भी बढ़िया कर सकता
हूँ कि नहीं ? कम समय में, कम शक्ति में इससे भी और बढ़िया काम
हो सकता है कि नहीं ? इस ओर ध्यान दो ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2023, पृष्ठ संख्या 10 अंक 364
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प्रतिकूलताओं के सिर पर पैर रख के कदम बढ़ाओ – पूज्य बापू
जी



कर्मयोगी मस्तक की गुफा में बढ़िया-बढ़िया विचार रखकर सड़ाना
पसंद नहीं करेगा । बड़े विचार, उन्नत विचार तो तब सहायक होते हैं
जब वे मस्तक की गुफा से निकलकर कर्मयोग की स्थली पर आयें और
नृत्य करते हुए, वाणी बोलते हुए, व्यवहार करते हुए तुम्हारे दिव्य कर्मों
के रूप में उनका दर्शन हो जाय ।
एक लड़के ने अपने गुरु जी के श्रीमुख से सुना था कि काम करते
समय कोई भी विघ्न-बाधा आ जाय तो डरना नहीं चाहिए । वह लड़का
सातवीं कक्षा में पढ़ता था । उसका नाम था रोहित । उसके पिता छकड़ा
चलाने की मजदूरी किया करते थे ।
पिता का देहांत हो गया । अब घर के लोगों का पालन-पोषण
रोहित करता था । वह मेहनत से कतराता नहीं था । उसने अपने
विद्यालय में किन्हीं महापुरुष के सत्संग में सुना था कि ‘हिम्मत न
हार, अपनी शक्ति को जगा, अपने ईश्वर को पुकार ।’
एक बार वह छकड़े में नमक भर के जा रहा था । रास्ते में जोरों
की बारिश पड़ी और वह छकड़ा कीचड़ में धँस गया । बिजली चमकी
और मेघ गरजे तो बैल चौंका और भाग गया । मूसलधार वर्षा ने नमक
को बहा दिया । फिर भी वह सातवीं पढ़ा हुआ लड़का कहता है कि ‘ऐ
मेघ ! तू किसको डराता है ? ऐ बिजली ! तू किसको चौंकाती है ? मैं
बैल नहीं कि भाग जाऊँ, मैं छकड़ा नहीं कि धँस जाऊँ, मैं नमक नहीं
कि बह जाऊँ, मैं तो काले मत्थे का इंसान हूँ ! मैँ अपने अंतरात्मा की,
ॐकार की शक्ति जगाऊँगा और अपने कदम आगे बढ़ाऊँगा ! हरि

ओम्म… हरि ओम्म…’ हरि नाम के गुंजन से रोहित ने अपनी आत्मिक
शक्ति जगायी ।
थोड़ी देर में बरसात बंद हुई और वह छकड़ा लेकर नमकवाले सेठ
के पास पहुँचा । सेठ ने कहाः “तू इतना छोटा बालकर होते हुए इतना
साहसी और प्रसन्न !” उसको दुकान पर रख लिया । धीरे-धीरे उसको
भागीदार बना लिया । उस सेठ को बेटा नहीं था तो सेठ ने उसको गोद
ले लिया । सेठ की गोद में आने से वह मजदूर का बेटा सेठ तो हो गया
लेकिन उसमें सेठ होने का घमंड नहीं था ।
आगे चलकर गाँव का मुखिया हुआ, अच्छे काम करने लगा ।
‘मुखिया हो के लोगों खून चूस के महल बनाने की अपेक्षा लोगों के
आँसू पोंछ के लोगों के हृदय में भी मेरा लोकेश्वर है, उनकी सेवा में प्रभु
की प्रसन्नता है’ ऐसा समझ के उसने गाँव का अच्छा विकास कर लिया
। धीरे-धीऱे उसकी खबर राजा तक पहुँची तो राजा ने उसे राज्य का मंत्री
बना दिया और मंत्री के बाद वह राजा का खास सचिव, प्रधानमंत्री बना
। लोगों ने कहा कि “अरे रोहित ! तू छकड़ा चलाने वाला और आज तू
प्रधानमंत्री पद पर है !”
रोहितः “जो पद पहले नहीं था, बाद में नहीं रहेगा उसका अभिमान
करना तो मूर्खों का काम है । मैं तो उस पद-परमात्मा को प्रेम करता हूँ
जो मेरे हृदय में पहले थे, अभी हैं और मरने के बाद भी रहेंगे । उन
परमेश्वर के नाते मैं मंत्री-पद सँभाल रहा हूँ ।”
छकड़ा चलाने वाले उस मजदूर के लड़के को इतनी ऊँचाई मिली
क्योंकि उसके शिक्षकों ने उसे किन्हीं ब्रह्मवेत्ता संत का सत्संग सुनवाया
था ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2023, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 363

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व्यवहार में ये 5 बातें लाओ, फिर देखो… – पूज्य बापू जी



अपने अल्प जीवन में मनुष्य ऐसा काम करे कि चौरासी-चौरासी
लाख योनियों के बंधन कट जायें, ऐसा काम न करें कि चौरासी लाख
योनियों में भटकता रहे, दुःखी होता रहे । जिसको अंतःकरण की शुद्धि
करनी है उसको व्यवहार में 5 बातें ध्यान में रखनी चाहिए।

  1. स्वार्थ का त्यागः मेहमान को खिलाओ-पिलाओ, किसी से मिलो
    पर ‘ये भाई साहब काम आयेंगे, वे साहब काम आयेंगे…’ इस भाव से
    मत मिलो । इस भाव से मिलोगे तो उतना काम नहीं आयेंगे जितना
    निःस्वार्थ भाव से मिलोगे तो काम आयेंगे । तो स्वार्थ रखकर जब तुम
    गिड़गिड़ाते हो तो अंदर से छोटे हो जाते हो और तुम्हारा दूसरे विद्यार्थी
    लोग उठा लेते हैं । तुम जब निःस्वार्थ हो के मिलते हो और व्यवहार
    करते हो तब सामने वाले के हृदय में जो हृदयेश्वर बैठा है वह तुम्हारे
    लिए ठीक मदद करने के लिए उसको प्रेरित कर देगा । तो ‘ये साहब
    मददरूप होंगे, ये साहब काम आयेगे, फलाना काम आयेगा, ढिमका काम
    आयेगा…’ इस प्रकार के आकर्षण से अंतःकरण मलिन करके जो व्यवहार
    किया जाता है उसका फल मधुर नहीं होता है । व्यवहार करो उत्तम ढंग
    से, स्वार्थ त्याग करके, स्नेह से ।
    मोह, स्वार्थ से बच्चों को पालना, परिवार को पालना, स्वार्थ या
    मोह से पति की सेवा करना या पत्नी को खुश रखना – इससे तो पति-
    पत्नी या कुटुम्बी एक-दूसरे के शत्रु हो जाते हैं । परमात्मा को प्रसन्न
    करने के नाते पति की सेवा करो और परमात्मा को प्रसन्न करने की
    खातिर पत्नी का पोषण करो और बच्चों में जो परमात्मा है उसकी सेवा
    की खातिर बच्चों का पालन करो । ऐसा नहीं कि बच्चे बड़े होंगे फिर
    हमारी सेवा करेंगे, हम बूढ़े होंगे तब बच्चे हमको कमा के खिलायेंगे ।

इस भाव से जो बच्चों को पोसते हैं उनके बच्चे बड़े होकर उनको ऐसा
दुःख देते हैं कि वे बूढ़े हो के ताकते ही रह जाते हैं कि ‘हमने इतनी-
इतनी मेहनत की, इसे पाल-पोसकर बड़ा किया, क्या-क्या इच्छाएँ रखीं,
उम्मीदें कीं और अब पत्नी आ गयी तो हमसे अलग हो गया !’ ऐसे
लोग कराहते रहते हैं । जो भरोसा ईश्वर पर करना चाहिए वह चीज़
वस्तु और स्वार्थियों पर किया तो अंत में धोखा और पश्चाताप ही हाथ
लगेगा । जो प्रेम परमात्मा से करना चाहिए था वह प्रेम पुत्र-परिवार से
किया, जो कर्म ईश्वर के नाते करने चाहिए थे वे कर्म तुमने स्वार्थ के
नाते किये इसलिए बुढ़ापे में रोना पड़ रहा है । जो भरोसा परमेश्वर पर
रखना चाहिए था वह भरोसा अगर पुत्रों पर रखा तो जरूर गड़बड़ कर
देगा । तो तुम भरोसा तो भगवान पर रखो और कर्म संसार में करो ।
कनिष्ठ व्यवहार नहीं, पापाचार नहीं, अच्छा सुन्दर, पवित्र व्यवहार
करो । सेल्समैन भी अच्छी मीठी बातें कर सकता है किंतु उसके पीछे
उसका स्वार्थ होता है और यह जरूरी नहीं क सेल्समैन मीठी बातें करता
है तो वह सदा के लिए सुखी हो जाता है, नहीं । व्यवसाय के तौर पर
सेल्समैनशिप करो, मीठी बातें करो लेकिन उसमें स्वार्थ न रखो तो भी
सेल्समैनशिप तो चलेगी ।
नज़र बदली तो नज़ारे बदले ।
किश्ती ने बदला रूख तो किनारे बदले ।।
किश्ती रूख बदले तो किनारे बदल जायेंगे ऐसे ही जो स्वार्थमयी
बुद्धिवृत्ति है उसमें निःस्वार्थता, हित की भावना आ जाय तो जीवन के
नज़ारे बदल जायेंगे । जिन दुःख, पीड़ा, मुसीबत, अशांति, समस्या और
चिंता में मरे जा रहे हैं उनकी जगह सुख, शांति निर्भीकता, आनन्द आने

लगेंगे और यहाँ भी सुखी और परलोक में भी सुखी – ऐसा मार्ग मिल
जायेगा ।
परहित बस जिन्ह के मन माहिं ।
तिन्ह कहूँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ।।
(श्री रामचरित. अर.का. 30.5)
जिनके चित्त में दूसरों की भलाई छुपी है और जो दूसरों की भलाई
के लिए सब काम करते हैं उनके लिए जगत में दुर्लभ कुछ भी नहीं
होता है । ऐहिक चीजें भी दुर्लभ नहीं होती और भगवान भी उनके लिए
दुर्लभ नहीं होते हैं ।
तस्याहं सुलभः पार्थ… (गीताः 8.14)
संत कबीर जी ने कहा हैः
कबिरा मन निर्मल भयो, जैसे गंगा नीर ।
पीछे-पीछे हरि फिरै, कहत कबीर कबीर ।।
यह तन विष की बेल री, गुरु अमृत की खान ।
सीस दिये सद्गुरु मिलें तो भी सस्ता जान ।।
वह सद्गुरुदेव आत्मतत्त्व आपको मिल सकता है चालू व्यवहार में,
जैसे सच्चाई से व्यवहार करने वाले तुलाधार व्यापारी को मिला ।

  1. अहंकार का त्यागः जीवन अहंकार को सजाने के लिए नहीं.
    परमात्मा से प्रीति करने के लिए है । धन का अहंकार, सत्ता का अहंकार,
    सौंदर्य या बुद्धिमत्ता का अहंकार निरहंकार नारायण साथ में होते हुए भी
    उससे मिलने नहीं देता । जो धन, बुद्धि, योग्यता घमंड करता है वह
    जीवन में सच्ची उन्नति नहीं कर पाता । वह रावण की नाई करा-कराया
    चौपट कर देता है । लेकिन सद्गुरु वसिष्ठ जी का सान्निध्य-सत्संग
    पाकर श्रीराम जी आप अमानी रहते और दूसरों को मान देते । वे कभी

किसी को नीचा दिखाने का प्रयत्न नहीं करते, अहंकार-अभिमान को परे
ही रखते थे ।

  1. सत्य-आचरणः सत्य के आचरण से अंतर्यामी ईश्वर प्रसन्न होते
    हैं, अपने सत्य स्वरूप के प्रति निष्ठा दृढ़ होती है एवं हृदय में ईश्वरीय
    शक्ति, शांति, प्रेरणा प्रकट हो जाती है, ईश्वरप्रसादजा मति बनती है ।
    सत्यनिष्ठ व्यक्ति के सामने चाहे कैसी भी विपत्ति आ जाय, वह सत्य
    का त्याग नहीं करता ।
    सब धर्म अपने पूर्ण कर, छोटे बड़े से या बड़े ।
    मत सत्य से तू डिग कभी, आपत्ति कैसी ही पड़े ।।
    सत्य का आचरण करने वाला निर्भय रहता है । उसका आत्मबल
    बढ़ता है । असत्य से सत्य अनंत गुना बलवान है । जो बात-बात में
    झूठ बोल देते हैं उनका विश्वास कोई नहीं करता है । फिर एक झूठ को
    छिपाने के लिए कई बार झूठ बोलना पड़ता है । अतः इन सब बातों से
    बचने के लिए पहले से ही सत्य का आचरण करना चाहिए । सत्य का
    आचरण करने वाला सदैव सबका प्रिय हो जाता है ।
    शास्त्रों में भी आता हैः सत्यं वद । धर्मं चर । सत्य बोलो । धर्म
    का आचरण करो ।’ (तैत्तीरीय उपनिषद)
    जीवन की वास्तविक उन्नति सत्य में ही निहित है । सत्यवादी
    राजा हरिश्चन्द्रजी और गाँधी जी की सत्यता की सुवास अब भी महक
    रही है ।
  2. विनयः विनययुक्त व्यवहार जो है वह शत्रु को भी अपना मित्र
    बना लेता है तो मित्र को अपना बनाने में देर कितनी ! और मित्रों का
    मित्र परमात्मा है, उसको अपना बनाने में देर कितनी भैया ! तो अपने
    व्यवहार में विनय हो, वाणी में विनय हो । नम्र व्यक्ति बड़े-बड़े कष्टों

और क्लेशों से छूट जाता है और दूसरों के हृदय में भी अपना प्रभाव
छोड़ जाता है । नम्रता व्यक्ति को महान बनाती है लेकिन इसका
मतलब यह नहीं है कि जहाँ-तहाँ ठगों, बदमाशों और लच्चों को भी
प्रणाम करते रहें । नम्रता कहाँ और कैसे दिखानी है यह विवेक भी होना
चाहिए । अपने से छोटे लोगों से मिलो तब करुणा रखो । अपने से
उत्तम व्यक्तियों से मिलो तब हृदय में आदर-रखो । आत्मवेत्ता सत्पुरुषों
से मिलो तब हृदय में श्रद्धा, भक्ति एवं विनय रखो । अपने समकक्ष
लोगों से व्यवहार करने का प्रसंग आने पर हृदय में भगवान श्रीराम की
तरह प्रेम रखो । अति उद्दंड लोग तुम्हारे सम्पर्क में आकर अगर बदल
न पायें तो ऐसे लोगों से दूर रह के अपना समय बचाओ ।

  1. प्रेमः तुम्हारे जीवन में प्रेम हो । जहाँ प्रेम होता है न, वहाँ
    परिश्रम का ख्याल नहीं होता । जैसे 8 साल की बच्ची अपने नन्हें-मुन्ने
    भाई को प्यार करती है तो 4-6 किलो के भाई को उठाकर 4 मंजिल
    तक ऊपर ले जाती है । उसे कोई कहे कि अरे ! 10 मिनट पहले 1
    लिटर दूध लाने के लिए कहा तो तू बोल रही थी कि ‘मेरे से न उठेगा !
    और अब….’
    तो वह बोलती हैः ‘नहीं-नहीं, इसमें कोई वज़न नहीं ।’ क्योंकि भैया
    से प्रेम है । जहाँ प्रेम होता है वहाँ बोझा नहीं लगता और जहाँ प्रेम नहीं
    है वहाँ थोड़ा सा काम भी बोझा हो जाता है ।
    तो व्यवहार में ये 5 बातें आ जायें तो अंतःकरण शुद्ध होगा ।
    शुद्ध अंतःकरण वाला ध्यान में बैठेगा तो ध्यान जल्दी लगेगा, ज्ञान की
    बात उसे जल्दी समझ में आयेगी, ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों को पहचानने की
    बुद्धि मिल जायेगी, उनके उपदेश को झेलने की बुद्धि मिल जायेगी ।
    स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2023, पृष्ठ संख्या 23-25 अंक 362

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