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महापुरुषों के जीवन से तुम प्रेरणा पाकर महान हो जाओ – पूज्य बापू जी



प्यारे विद्यार्थियों ! जो भी संत-महात्मा, महापुरुष, अच्छे ईमानदार
सज्जन और समाज के अग्रणी हुए हैं, वे पहले तुम्हारे जैसे बालक ही थे
। परंतु उन्होंने दृढ़ संकल्प, पुरुषार्थ और संयम का अवलम्बन लेकर
अपने व्यक्तित्व को निखारा और वे आज लाखों के प्रेरणास्रोत बन गये
। महापुरुषों के मार्गदर्शन में चलकर व उनके दिव्य जीवन से प्रेरणा पा
के तुम भी महान हो जाओ ।
संसार में ऐसी कोई वस्तु या स्थिति नहीं है जो संकल्पबल और
पुरुषार्थ के द्वारा प्राप्त न हो सके । पूर्ण उत्साह और लगन से किया
गया पुरुषार्थ भी व्यर्थ नहीं जाता ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2023, पृष्ठ संख्या 19 अंक 363
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परम सत्ता पर निर्भरता होने से होता रोग-निवारण – परमहंस
योगानंद जी



उस परम सत्ता की शक्ति को निरंतर विश्वास और अखंड प्रार्थना
से जगाया जा सकता है । आपको उचित आहार लेना चाहिए और शरीर
की उचित देखभाल के लिए जो भी करना आवश्यक है वह अवश्य करना
चाहिए । परंतु इससे भी अधिक भगवान से निरंतर प्रार्थना करनी
चाहिएः ‘प्रभु ! आप ही मुझे ठीक कर सकते हैं क्योंकि प्राणशक्ति के
अणुओं को और शरीर की सूक्ष्म अवस्थाओं को, जिन तक कोई डॉक्टर
कभी अपनी औषधियों के साथ पहुँच ही नहीं सकता, उन्हें आप ही
नियंत्रित करते हैं ।’
औषधियों और उपवास के बाह्य घटकों का शरीर में लाभप्रद
परिणाम उत्पन्न होता है परंतु वे उस आंतरिक शक्ति पर कोई प्रभाव
नहीं डाल सकते जो कोशिकाओं को जीवित रखती है । केवल जब आप
ईश्वर की ओर मुड़ते हैं और उसकी रोग-निवारक शक्ति को प्राप्त करते
हैं तभी प्राणशक्ति शरीर की कोशिकाओं के अणुओं में प्रवेश करती है
और तत्क्षण रोग-निवारण कर देती है । क्या आपको ईश्वर पर अधिक
निर्भर नहीं होना चाहिए ?
परंतु भौतिक पद्धतियों पर निर्भरता छोड़कर आध्यात्मिक
पद्धतियों पर निर्भर होने की प्रक्रिया धीरे-धीरे होनी चाहिए । यदि कोई
अति खाने की आदतवाला मनुष्य बीमार पड़ जाता है और मन के द्वारा
रोग को हटाने के इरादे से अचानक उपवास करना शुरु कर देता है तो
सफलता न मिलने पर हतोत्साहित हो सकता है । अन्न पर निर्भरता की
विचारधारा को आत्मसात् करने में समय लगता है । ईश्वर की रोग

निवारक शक्ति के प्रति ग्रहणशील बनने के लिए पहले मन को ईश्वर
की सहायता में विश्वास होना चाहिए ।
उस परम सत्ता की शक्ति के कारण ही समस्त आणविक ऊर्जा
कम्पायमान है और जड़ सृष्टि की प्रत्येक कोशिका को प्रकट कर रही है
और उसका पोषण भी कर रही है । जिस प्रकार सिनेमाघर के पर्दे पर
दिखने वाले चित्र अपने अस्तित्व के लिए प्रोजेक्शन बूथ से आने वाली
प्रकाश-किरणों पर निर्भर होते हैं उसी प्रकार हम सब अपने अस्तित्व् के
लिए ब्रह्मकिरणों पर निर्भर हैं, अनंतता के प्रोजेक्शन बूथ से निकलने
वाले दिव्य प्रकाश पर निर्भर हैं । जब आप उस प्रकाश को खोजेंगे और
उसे पा लेंगे तब आपके शरीर की समस्त अव्यवस्थित कोशिकाओं की,
अणुओं, विद्युत अणुओं एवं जीव अणुओं की पुऩर्रचना करने की उसकी
असीम शक्ति को आप देखेंगे । उस परम रोग-निवारक के साथ सम्पर्क
स्थापित कीजिये । (एकाकार होइये )।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2023, पृष्ठ संख्या 20 अंक 363
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पूज्य बापू जी के साथ आध्यात्मिक प्रश्नोत्तरी



साधिका बहन का प्रश्नः पूज्य बापू जी ! आपकी कृपा से मुझे इसी
जन्म में आत्मसाक्षात्कार करना है । मैंने आपके सत्संग में सुना है कि
सारी इच्छाएँ छोड़ के ईश्वरप्राप्ति की इच्छा रखो और धीरे-धीरे
ईश्वरप्राप्ति की इच्छा भी छोड़ दो । तो ईश्वरप्राप्ति की जो इच्छा है वह
भी छूट जायेगी या छोड़नी पड़ती है, जिससे ईश्वर अपने-आप हृदय में
प्रकट हो जाय ? वह स्थिति स्वतः आ जाती है या बनानी पड़ती है ?
पूज्य बापू जीः शाबाश है, बहादुर हो ! अब सुनो ! खाया नहीं है
तो खाने की इच्छा करोगे और खाते-खाते पेट भर जायेगा तो इच्छा
रहेगी क्या ? नहीं । पानी पीना है, पी लिया तो फिर पीने की इच्छा
रहेगी क्या ? वहीं छूट जायेगी । ईश्वरप्राप्ति की इच्छा को ऐसी पक्की
बनाओ कि और सारी इच्छाएँ तुच्छ हो जायें । और ईश्वरप्राप्त की
इच्छा से, ईश्वर की कृपा से, अपने पुरुषार्थ से ईश्वरप्राप्ति के नजदीक
आते ही ईश्वरप्राप्ति की इच्छा भी छू हो जायेगी । गंगाजी में गोता
मारने की इच्छा हुई तो गोता मारा । फिर इच्छा रहेगी क्या गोता मारने
की ? नहीं । इस विषय में अभी चिंता मत करो । अभी तो तुम
ईश्वरप्राप्ति के लिए ध्यान, जप, शास्त्र-श्रवण आदि करो । ये करते-करते
वहाँ पहुँचोगे तो फिर ईश्वरप्राप्ति की इच्छा भी नहीं रहेगी न ! पहुँचने
के बाद इच्छा रहती है क्या बेटे ? नहीं होती है । अपने आप छूट जाती
है । तो इच्छा छोड़नी नहीं पड़ेगी, छूट जाती हैह ।
ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर, कार्य रहे न शेष ।
मोह कभी न ठग सके, इच्छा नहीं लवलेश ।।

साधकः मैंने लगभग 22 वर्ष पहले आपसे सारस्वत्य मंत्र की दीक्षा
ली है, अभी मेरी लौकिक शिक्षा पूर्ण हो चुकी है । तो क्या मैं सारस्वत्य
मंत्र को ही गुरुमंत्र समझकर मंत्रजप जारी रख सकता हूँ या फिर…?
पूज्य श्रीः हाँ-हाँ, क्यों नहीं, बिल्कुल ! सारस्वत्य मंत्र में 2 बीज
मंत्र हैं । सरस्वती प्रकट देवी हैं, ॐकार का प्रभाव भी प्रकट है । बहुत
बढ़िया है ।
साधकः जब सत्संग सुनकर किसी बात को पकड़ लेते हैं, जैसे कि
आपके सत्संग में सुना हैः
गुजर जायेगा ये दौर भी, जरा सा इतमीनान तो रख ।
जब खुशी ही न ठहरी, तो गम की क्या औकात है ।।
तो सामान्य तौर पर तो सत्संग की यह बात याद रहती है लेकिन
जब विकट परिस्थति आती है तो इसकी स्मृति नहीं रहती है । स्मृति
रहे इसके लिए क्या करें ?
पूज्य बापू जीः स्मृति नहीं रहती… नहीं कैसे रहेगी ? स्मृति अपने
आप हो जायेगी, झख मार के हो जाती है । फिर भी लगे क नहीं रहती
है तो भगवान को पुकारोः “ऐसा हो गया, ऐसा हो गया ।
दीन दयाल बिरिदु संभारी । हरहु नाथ मम संकट भारी ।।
(श्रीरामचरित. सुं.कां. 26.2)
हे प्रभु ! मैं तुम्हारा हूँ, मुझे अपनी और खींचो । हे हरि ! हे
नारायण !…’ यह तो याद रहेगा ? छूमंतर थोडे ही होता है, बापू से
पूछोगे और छूंमंतर हो जायेगा, ऐसा थोड़े ही है ! चलते-चलते, गिरते-
गिरते चलना सीख जाते हैं, दौड़ना सीख जाते हैं ऐसे ही आध्यात्मिकता
में भी है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2023, पृष्ठ संख्या 34 अंक 363

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