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भवसिन्धु में डूब रहा था, किनारे पर खींच लाये गुरुदेव


पंचेड़ आश्रम में सेवारत श्री प्रफुल्ल भाई भट्ट, जिन्हें सन् 1980 से पूज्य बापू जी का दर्शन, सत्संग-सान्निध्य लाभ प्राप्त होता आ रहा है, उनके द्वारा बताये गये पूज्य श्री के मधुर संस्मरणः

मुझ भटकते राही को मंजिल मिल गयी

मैं भारत से बी. फार्मेसी की पढ़ाई पूरी करके सन् 1976 से न्यूयॉर्क-न्यूजर्सी (अमेरिका) में रहने लगा था । 1980 में कुछ दिनों की छुट्टियाँ निकालकर मेरा भारत आना हुआ । मुझे आध्यात्मिकता में बहुत रुचि थी । मैं एक ऐसे गुरु की तलाश में था जो मेरा आध्यात्मिक पथ पर मार्गदर्शन कर सके । मैं कई आध्यात्मिक संस्थाओं में, कई गुरुओं के पास गया किंतु मेरा कहीं हृदय ठहरा नहीं ।

एक बार मैं कॉलेज के समय से परिचित अपने एक मित्र से मिलने उसकी दुकान पर गया । उसकी दुकान में एक बाबा जी का फोटो लगा था । उसे देखने के लिए मेरा मन बार-बार आकर्षित होने लगा । मैंने मित्र से पूछाः ″कौन है ये बाबा जी ?″

उसने बतायाः ″ये आशाराम जी महाराज हैं । बहुत बड़े संत हैं ।″ उन फोटोवाले बाबा जी के बारे में उसने और भी कई बातें बतायीं जो मुझे बहुत अच्छी लगीं । तब मुझे पहली बार पता चला कि ये संत श्री आशाराम जी बापू हैं और मोटेरा, अहमदाबाद में रहते हैं ।

एक बार वह अहमदाबाद आश्रम जा रहा था तो मुझे भी साथ लेकर गया । हम आश्रम पहुँचे तो बापू जी तो आश्रम में नहीं थे लेकिन वहाँ की हर चीज मेरे हृदय को छू रही थी । वहाँ लोग बड़ बादशाह के फेरे लगा रहे थे तो मैंने भी परिक्रमा की और थोड़ी देर तक शांति से बड़ बादशाह के सामने ही बैठा रहा । वहाँ पर एक साधक भाई ‘श्री आशारामायण जी’ का पाठ करवा रहे थे । मैं भी उनके पीछे-पीछे पाठ को दोहराने लगा ।

मैं घर लौटकर आया तो मुझे अपने-आप में अभूतपूर्व परिवर्तन देखने को मिला । विदेश में रहते हुए मुझे जो कॉफी, सिगरेट आदि व्यसनों की लत लग गयी थी वह उसी दिन से अपने-आप छूट गयी । मुझे मन में हुआ कि ‘जिनके शक्तिपात किये बड़ बादशाह की परिक्रमा करने और जिनका जीवन-चरित्र – ‘श्री आशारामायण जी’ गुनगुनाने से ही अगर जीवन में इतना परिवर्तन हो सकता है तो वे स्वयं कितने महान होंगे !’

बापू जी के दर्शन के लिए मैं लालायित रहने लगा । जब पता चला कि बापू जी आश्रम आ गये हैं तो उनके दर्शन करने के लिए मैं दुबारा आश्रम जा पहुँचा । उनके पहले दर्शन ने ही मुझ पर जादू सा काम किया, ऐसा लग रहा था मानो मैंने सब कुछ पा लिया हो । आध्यात्मिक गुरु के लिए वर्षों से दर-दर भटक रहे मुझ राही को अपनी मंजिल मिल चुकी थी । संसार-सागर में डूबने जा रही मेरी जीवन-नैया को किनारा मिल चुका था ।

मैंने पूज्य श्री से दीक्षा हेतु प्रार्थना की तो पूज्य बापू जी ने कुछ क्षण आँखें बंद की और कहाः ″नहीं, अभी नहीं, रुकना पड़ेगा, शिविर भरना पड़ेगा ।″ मेरे मन में हुआ कि शायद अभी मैं दीक्षा ग्रहण करने योग्य नहीं हूँ ।’

अहमदाबाद आश्रम में उत्तरायण पर्व के निमित्त ध्यान योग शिविर होने वाला था तो उसमें भाग लेने हेतु मैंने तीन महीनों के लिए छुट्टियाँ और बढ़ा दीं । उसी दौरान मेरा हरिद्वार जाना हुआ तो वहाँ मुझे बापू जी के मित्रसंत घाटवाले बाबा, मस्तराम बाबा जैसे ब्रह्मज्ञानी संतों के दर्शन-सान्निध्य का लाभ मिला ।

एक बार घाटवाले बाबा जी ने मुझसे मेरा परिचय पूछा तो मैंने बताया कि अमेरिका से आया हूँ एवं मुझे संत श्री आशाराम जी बापू से दीक्षा लेने के लिए उत्तरायण शिविर तक रुकना है ।

यह सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए और बोलेः ″यह रास्ता जो तुमने पकड़ा है वह बिल्कुल सही है ।″

उनके श्रीमुख से ये वचन सुनकर मेरा चित्त गद्गद हो गया और पूज्य बापू जी के प्रति मेरी श्रद्धा और भी बढ़ गयी । जनवरी 1981 में मुझे अहमदाबाद आश्रम में पूज्य बापू जी से मंत्रदीक्षा लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ।

कल्पनातीत अनुभव होने लगे

मैं मंत्रदीक्षा लेकर न्यूयॉर्क वापस लौटा तो वहाँ पर भी पूज्य बापू जी द्वारा बताये अनुसार नियमित साधना करने लगा । पूज्य बापू जी के सत्संग-श्रवण आदि से मेरा विवेक, वैराग्य जगने लगा और साधना में ऐसा रस आने लगा कि मेरा अधिकतर समय ध्यान-भजन में ही बीतने लगा ।

शरीर से तो मैं अहमदाबाद आश्रम से बहुत दूर रहता था लेकिन मानसिक रूप से मैं आश्रम के आध्यात्मिक वातावरण का पूरा लाभ लेता था । घड़ी देख के भारत के समय के अनुसार विचार करता कि ‘अभी इतना समय हुआ है तो गुरुदेव व्यासपीठ पर विराजमान होंगे… अभी इतने बजे हैं तो आश्रम में ध्यान कीर्तन हो रहा होगा… आदि-आदि ।’ छुट्टी के दिन नदी के किनारे एकांत में बैठकर मैं पूज्य बापू जी के सान्निध्य में बिताये पवित्र क्षणों को याद करते-करते उन्हीं के चिंतन में खो जाता था । गुरुकृपा से अच्छे-अच्छे अनुभव होने लगे । अपने आप ऐसे-ऐसे आसन होते थे कि जिनकी कभी मैंने कल्पना भी नहीं की थी, जो मैंने कहीं देखे या सीखे नहीं थे ।

आध्यात्मिकता के साथ-साथ भौतिक जगत में भी मेरी कल्पनातीत उन्नति होने लगी । दीक्षा से पहले तो मैं न्यूयॉर्क में एक केमिस्ट की दुकान पर नौकरी करता था । दीक्षा के 10-11 महीने बाद ही न्यूजर्सी में मेरा खुद का फार्मेसी का बिजनेस शुरु हो गया और थोड़े ही दिनों में वह खूब फलने-फूलने लगा ।

पग-पग पर दिया सहारा, पूरी की मन की मुराद

सन् 1984 की बात है । एक बार ऐसा सुनने में आया कि ‘पूज्य बापू जी कभी भी एकांतवास में जा सकते हैं ।’ कीमती मनुष्य जन्म मिलना, फिर उसमें भी पूज्य बापू जी जैसे ब्रह्मवेत्ता महापुरुष सद्गुरुरूप में मिलना बहुत ही दुर्लभ है । मुझे हुआ कि ‘कहीं ऐसा न हो जाय कि ऐसे महापुरुष के सत्संग-सान्निध्य से मैं वंचित रह जाऊँ !’ मुझे गुरुदेव के दर्शन की तीव्र तड़प होने लगी । तब स्थिति ऐसी थी कि बिजनेस जिसके भरोसे छोड़ सकूँ ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था लेकिन मैंने ठान लिया कि ‘चाहे कुछ भी हो जाय, मुझे तो कैसे भी करके गुरुदेव के पास जाना है ।’ मैंने सब कुछ गुरुदेव पर छोड़ दिया ।

अनायास ही मेरे पास एक परिचित मित्र आया और बोला कि ″मुझे फार्मेसी का थोड़ा एक्सपीरियंस लेना है ।″ मेरी जो आवश्यकता थी वह बोले बिना ही पूरी हो गयी, यह क्या है ! मैंने मन ही मन गुरुदेव को धन्यवाद दिया और मित्र को कहाः ″वेल्कम ! थोड़ा नहीं आप फुल एक्सपीरियंस लीजिये, अब यह सब आप ही सँभालिये ।″

अब भारत जाने के लिए एयरपोर्ट पहुँचना था परन्तु उस दिन न्यूयॉर्क में तूफान आया था और सतत् बर्फ पड़ रही थी । मैं सोच में पड़ा था कि ‘अब कैसे पहुँचूँगा ?’ लेकिन ईश्वरीय व्यवस्था का, गुरुकृपा का क्या वर्णन किया जाय ! मेरा मित्र बोला कि ″मैं कैसे भी करके आपको पहुँचा दूँगा ।″ हम एयरपोर्ट के लिये निकले तो धीरे-धीरे तूफान शांत होता गया और हम आराम से एयरपोर्ट तक पहुँच गये, तुरन्त टिकट की व्यवस्था हो गयी । मन में हुआ कि ‘परमात्मस्वरूप गुरुदेव ही तो अनेक रूपों में सर्वत्र व्याप्त हैं । गुरुदेव अपने शिष्यों की मुरादें पूर्ण करने के लिए कैसे-कैसे सहारा देते हैं !’

दूसरे दिन अहमदाबाद आश्रम में पहुँचा । आश्रम में चेटीचंड का शिविर चल रहा था । 1-2 दिन हो गये थे, मुझे होता था कि मैं इतनी दूर से आया हूँ और अभी तक मेरे ऊपर गुरुदेव की दृष्टि तक नहीं पड़ी । एक दिन थोड़ी देर के लिए निकट से बापू जी के दर्शन का अवसर मिला तो पूज्य श्री ने परिचय आदि पूछा लेकिन मेरे मन में होता था कि ‘मैं बापू जी से जी भर के बातचीत करूँ ।’

उन दिनों मोक्ष कुटीर पर नजदीक से बापू जी के दर्शन करने का अवसर मिल जाता था । शिविर में आखिरी दिन की बात है । रात के 8-9 बजे थे । मोक्ष कुटीर के बाहर 8-9 लोग दर्शन के लिए कतार में लगे हुए थे । मुझे भी दर्शन करने थे पर अधिक प्रवास और भारत व विदेश के समय, जलवायु में भिन्नता आदि के कारण इतनी थकान थी कि मैं कतार में नहीं लग पाया और नदी के खुले मैदान में सोने के लिए चला गया । परन्तु महापुरुष तो महापुरुष होते हैं और उसमें भी पूज्य बापू जी जैसे करुणा-वरुणालय अवतार का तो कहना ही क्या ! मैं बिस्तर लगा ही रहा था, इतने में पूर्व दिशा की ओर से मुझे प्रकाश-प्रकाश दिखने लगा । मेरी आँखें चुंधिया गयीं । प्रकाश में से पूज्य बापू जी साकार रूप में प्रकट हो गये और मुझसे पूछाः ″कौन हो तुम ?″

मुझे एकदम शॉक लगा । मैंने आश्चर्यचकित होकर प्रणाम करते हुए कहाः ″जी, मैं वही अमेरिका वाला साधक ।″

″अमेरिका में क्या करते हो ?″

मैंने बिजनेस आदि के बारे में बताया तो करुणामूर्ति गुरुदेव ने कहाः ″अच्छा है, दूसरे के यहाँ नौकरी करके गुलामी करने से तो अपना धंधा करना ठीक है । लेकिन राजे-महाराजे भी राजपाट छोड़कर भिक्षा माँग के संतों के चरणों में रहते थे…।″ इस प्रकार 15-20 मिनट तक गुरुदेव अपनी कृपा बरसाते रहे ।

फिर कहाः ″अच्छा, अब तुम आराम करो ।″ और गुरुदेव अंतर्ध्यान हो गये ।

मैं चारों तरफ देखने लगा कि ‘बापू जी कहाँ गये ! किस तरफ गये होंगे !!’ बहुत खोजा पर बापू जी कहीं दिखे नहीं । ब्रह्मस्वरूप पूज्य बापू जी की यह दिव्य शक्ति देखकर मैं दंग रह गया ! बापू जी आकाश की तरफ से प्रकट हुए थे । काली-काली दाढ़ी थी… तेजोमय चेहरा था… और श्वेत वस्त्र धारण किये हुए थे ।

मैं ब्रह्मस्वरूप गुरुदेव को एक शरीर तक ही सीमित मानने की गलती कर बैठा था । मैं मान रहा था कि गुरुदेव ने मेरे ऊपर दृष्टि तक नहीं डाली परंतु बाद में सत्संग से पता चला कि गुरुदेव तो अनंत-अनंत ब्रह्माण्डों में व्याप रहे साक्षात् ब्रह्म हैं । वे कण-कण में व्याप्त हैं । सदा उनकी दृष्टि हमारे ऊपर है । वे अपने से दूर हैं ही नहीं, अपने-आपे के रूप में सदैव अपने साथ ही हैं ।

दूसरे दिन पूज्य श्री व्यासपीठ पर विराजमान थे । मैंने अमेरिका में सत्संग देने हेतु श्रीचरणों में प्रार्थना रखी तो आपश्री ने कहाः ″तुम जाओ, मैं थोड़े ही दिनों में आता हूँ वहाँ । अभी एक सप्ताह मौन मंदिर का लाभ लो ।″

गुरुदेव की आज्ञानुसार मैंने मौन मंदिर की साधना की । गुरुकृपा से वहाँ भी मुझे बहुत अच्छे अनुभव हुए । एक महीने के बाद सन् 1984 में गुरुदेव का अमेरिका में आना हुआ । (क्रमशः)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2022, पृष्ठ संख्या 13-16 अंक 355

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बापू जी का अद्भुत संकल्प !


एक साधक भाई ने प्रत्यक्ष देखी एक घटना बतायी । 1993 की बात है । अहमदाबाद आश्रम में पूज्य बापू जी के सान्निध्य में ध्यान योग शिविर चल रहा था । उस समय आश्रम के सत्संग-मंडप की छत पक्की नहीं थी । शाम के साढ़े छः बजे गुरुदेव ने सत्संग के बाद धीर-गम्भीर वाणी में ध्यान कराना शुरु किया तभी जोरों की बारिश आ गयी । सूखे पत्तों की छत पर पानी गिरने से तेज आवाज आने लगी, जिससे पूज्य श्री की आवाज सुनाई नहीं दे रही थी ।

बापू जी आसमान की ओर देखते हुए बोलेः ″मेघराज ! देखो तो जरा, ध्यान चल रहा है, बंद करो इसे ।″ तुरंत बारिश बंद हो गयी । ध्यान फिर से चलने लगा । ध्यान के बाद कीर्तन शुरु हुआ तो पूज्य श्री ने ऊपर इशारा करते हुए कहाः ″कीर्तन में संगीत बजे ऐसा रिमझिम बरसो ।″ और बारिश ऐसे शुरु हुई जैसे कोई साज बजा रहा हो ! कीर्तन के उपरांत दर्शनार्थियों की कतार लगी तो पूज्य श्री ने साधकों से कहाः ″जल्दी करो, बारिश को रोक रखा है ।″ जैसे ही दर्शनार्थियों की कतार समाप्त हुई, बापू जी ने ऊपर इशारा करते हुए कहाः ″दे दनादन !″ इतना कहते ही खूब मूसलाधार बारिश शुरु हो गयी ।

देवता भी ऐसे ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों का दर्शन कर अपना भाग्य बनाते हैं ।…. स वेद ब्रह्म । सर्वेऽस्मि देवा बलिमावहन्ति । वह ब्रह्म को जानता है, इस ब्रह्मवेत्ता सो समस्त देवता भेंट समर्पण करते हैं, उनका आदर सत्कार करते हैं, उन पर बलिहार जाते हैं । (तैत्तिरीयोपनिषद्- 1.5)

प्रकृति ऐसे महापुरुषों की दासी होती है, उनकी आज्ञा में चलती है पर महापुरुष स्वयं के लिए प्रकृति के नियमों में हस्तक्षेप नहीं करते हैं । परोपकार के लिए या लोगों को ईश्वर के रास्ते लगाने के लिए उनके द्वारा ऐसी लीलाएँ प्रसंगवश होती रहती हैं ।

जो भगवान दूसरों को भवबंधन से छुड़ाते हैं उन्होंने ऐरावण (अहिरावण) की कैद में बंधने की लीला की और मुक्त कराने का निमित्त बनाकर हनुमान जी को सेवा का अवसर दिया तथा हनुमान जी की महिमा संसार को बतायी । ऐसे ही महापुरुष कभी-कभी बंधन को स्वीकार कर लेते हैं पर इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वे असहाय हैं बल्कि वे तो भक्तों के सामर्थ्य को विकसित करना चाहते हैं और संसार के सामने उनकी महिमा प्रकट करना चाहते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2022, पृष्ठ संख्या 18 अंक 355

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नाग पंचमी पर्व का रहस्य – पूज्य बापू जी


भारतीय संस्कृति के पुजारियों ने, ऋषि-मुनियों ने, मनीषियों ने बुद्धिमत्ता का, बड़ी दूरदर्शिता का परिचय दिया है । जिसका नाम सुनते ही भय और क्रोध पैदा हो जाय उसी का पूजन करके निर्भयता और प्रेम जगाने की व्यवस्था का नाम है – नाग पंचमी उत्सव । ऋषियों ने कितनी सुन्दर मति का परिचय दिया कि सावन के महीने में नाग पंचमी का उत्सव रखा । बरसात के दिनों में बिल में रहने वाले साँप बिल में पानी भर जाने से असहाय, निराश्रित हो जाते हैं, जिससे और दिनों में साँप दिखे न दिखे परन्तु बारिश में तो गाँवों में, खेत के आसपास दिखने लगते हैं । साँप को देखकर द्वेष और भय न हो अपितु उसके प्रति प्रेम और ज्ञानदृष्टि जगे ऐसी हितकारी, मंगलकारी व्यवस्था ऋषियों ने की ।

साँप को सुगंध बहुत प्रिय है, चंदन के वृक्ष को लिपट के रहता है, केवड़े आदि से भी बड़ा प्रेम करता है ऐसे सर्प को भगवान शिवजी ने अपने श्रृंगार की जगह पर रख दिया है अर्थात् जिसके जीवन में सद्गुणों की सुवास का आदर है, प्रीति है उन्हें अपने पास रखेंगे तो आपके जीवन की भी शोभा बढ़ेगी ।

शिवजी के गले में साँप, भुजाओं में साँप… विषधर को अपने गले और भुजाओं में धारण करना यह भारतीय संस्कृति के मूर्धन्य प्रचारक भगवान शिवजी का बाह्य श्रृंगार भी पद-पद पर प्रेरणा देता है । भले विषधर है परंतु उसके गुण भी देखो । विषधर ऐसे ही किसी को नहीं काट लेता है, उसको कोई सताता है, परेशान करता है अथवा उसके प्राण खतरे में हैं ऐसी नौबत जब वह महसूस करता है तब वह अपना बनाया हुआ विष प्राण सुरक्षा के लिए खर्च करता है । ऐसे ही मनुष्य को चाहिए कि सेवा, सुमिरन, तप से उसे जो ऊर्जा मिली है उसको वह जरा-जरा बात में खर्च न करे, उसको यत्न करके सँभाल के रखे, क्रुद्ध होकर अपना तप नाश न करे ।

कुछ दैविक साँपों के फन पर मणि होती है । विषधर में भी प्रकाशमय मणि इस बात की ओर संकेत करती है कि समाज में कितना भी जटिल, दुष्ट, तुच्छ दिखने वाला व्यक्ति हो पर उसमें भी ज्ञान-प्रकाशरूपी आत्म-मणि है, उस मणि का आदर करें । पाप से नफरत करो, पापी से नहीं क्योंकि पापी की गहराई में भी वही आत्मारूपी मणि छुपी है, परमात्मारूपी प्रकाश छुपा है । द्वेष से द्वेष बढ़ता है किंतु क्षमा से, उदारता से द्वेष प्रेम में बदलता है । द्वेषावतार साँप… उसके प्रति भी नाग पंचमी के दिवस को निमित्त बनाकर प्रेम और सहानुभूति रखते हुए उसकी पूजा करने से उसके चित्त का द्वेष शांत होता है । चूहे और इतर जीव-जंतुओं को सफा करके खेत-खलिहान की रक्षा करने में सहयोगी सिद्ध होता है, तो उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए भी नाग पंचमी का उत्सव ठीक ही है । द्वेष और भय से बचने के लिए भी नाग पंचमी का उत्सव चाहिए ।

तुझमें राम मुझमें राम सब में राम समाया है ।

कर लो सभी से प्यार जगत में कोई नहीं पराया है ।।

कैसी है सनातन धर्म की सुन्दर व्यवस्था !

अमृतबिन्दु – पूज्य बापू जी

ऐसा चिंतन न करो जिससे दुःख पैदा हो, आसक्ति और लोभ पैदा हो, ऐसा चिंतन करो कि चिंतन जहाँ से होता है उसका चिंतन हो जाय ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2022, पृष्ठ संख्या 11 अंक 355

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