All posts by GuruNishtha

आध्यात्मिक प्रगति का इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं – स्वामी शिवानंद जी


अध्यात्म-मार्ग कठिन तथा प्रवण ( टेढ़ा ) है । यह अंधकार से आवृत है । इस पथ में एक ऐसे गुरु की आवश्यकता होती है जो इस पथ पर पहले चल चुके हों । वे पथ पर प्रकाश डालेंगे तथा साधक की कठिनाइयों को दूर करेंगे । परम्परा से सद्गुरु के द्वारा शिष्य को अनुक्रम से आत्मज्ञान दिया जाता है । गहिनीनाथ जी ने निवृत्तिनाथ जी को ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया । निवृत्तिनाथ जी ने श्री ज्ञानदेव जी को यह ज्ञान बतलाया । गौड़ापादाचार्य जी ने गोविंदाचार्यजी को कैवल्य के रहस्य का ज्ञान दिया । गोविंदाचार्या जी ने आद्य शंकराचार्य जी को शिक्षा दी, आद्य शंकराचार्य जी ने सुरेश्वराचार्य जी को शिक्षा दी । ( संत दादू दयाल जी की परम्परा में संत निश्चलदास जी हुए और इसी में आगे स्वामी केशवानंद जी हुए जिन्होंने भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज पर कृपा बरसायी । साँईं लीलाशाह जी महाराज ने पूज्य संत श्री आशाराम जी बापू को अपने कृपा-अमृत से तृप्त करके अपने स्वरूप में जगाया । – संकलक )

अध्यात्म मार्ग सर्वथा भिन्न मार्ग है । यह स्नातकोत्तर परीक्षा के लिए प्रबंध लिखने जैसा नहीं है । प्रत्येक पग पर सद्गुरु की सहायता की आवश्यकता होती है । आजकल नवयुवक साधक अभिमानी, स्वाग्रही तथा उद्धत बन जाते हैं । वे लोग गुरु की आज्ञाओं का पालन करने की चिंता नहीं करते । वे प्रारम्भ से ही स्वतंत्र रहना चाहते हैं । वे सद्गुरु के चयन में ‘नेति-नेति’ सिद्धान्त तथा ‘भाग-त्याग-लक्षण’ ( वह लक्षण जिसमें पद या वाक्य के कुछ भाग के अर्थ को ग्रहण करके कुछ भाग के अर्थ को त्याग किया गया हो । ) का प्रयोग करते हैं और कहते हैं – गुरुर्नैव शिष्यः चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ।। वे सोचते हैं कि वे तुरीय अवस्था में हैं जबकि उन्हें अध्यात्म अथवा सत् के सरगम का भी ज्ञान नहीं होता । वे स्वेच्छाचारिता अथवा मनमानी को स्वतंत्रता समझते हैं । यह एक गम्भीर तथा शोचनीय भूल है । यही कारण है कि वे उन्नति नहीं करते । वे साधना की प्रभावोत्पादकता तथा भगवान के अस्तित्व में विश्वास खो बैठते हैं । वे कश्मीर से गंगोत्री और गंगोत्री से रामेश्वरम् तक निरुद्देश्य अलमस्त घूमा करते हैं और मार्ग में पंचदशी, विचारसागर तथा गीता से उद्धरण देकर कुछ अनाप-शनाप बकते रहते हैं । वे जीवन्मुक्त होने का ढोंग रचते हैं ।

जो सद्गुरु के पथ-प्रदर्शन में चिरकाल तक रहता तथा उनके उपदेशों का निर्विवाद पालन करता है, वह अध्यात्म-पथ पर निःसंदेह उन्नति कर सकता है । आध्यात्मिक प्रगति का इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है ।

अमृतबिंदु – पूज्य बापू जी

जो गुरु की बात का आदर करता है, जिसकी गुरु वचनों में आस्था है और उनके अनुसार चलने में तत्परता है, वह आदरणीय बन जायेगा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2022, पृष्ठ संख्या 7 अंक 354

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

अंतर्यामी में आने का अभ्यास करने का उत्तम कालः चतुर्मास


( 10 जुलाई 2022 से 4 नवम्बर 2022 तक ) – पूज्य बापू जी

देवशयनी एकादशी से देवउठी एकादशी तक यह जो चतुर्मास है वह आध्यात्मिक खजाना भरने का काल है । बारिश के दिनों में भूख ज्यादा नहीं लगती इसलिए उपवास या एक समय भोजन किया जाता है । जीवनीशक्ति अन्न पचाने में ज्यादा न खर्च हो तो वह बची रहेगी । इन दिनों में वातावरण सुहावना, सुंदर होता है । वसुंधरा हरी साड़ी पहनकर  अपनी पूरी यौवन अवस्था में होती है । तो वसुंधरा देवी का माधुर्य, ठंडा-मीठा हवामान, बरसात की रिमझिम, बादलों की दौड़ा-दौड़ और बिजली की चमक… यह सारा जो प्राकृतिक सौंदर्य है उसमें मनोवृत्ति ऊर्ध्वगामी होती है । उसमें भी सावन के महीने में अनुष्ठान आदि करने का ऋषियों ने विधान किया है । तो इन दिनों में आप अपनी निष्ठा बनायें । हफ्ते, दो हफ्ते, चार हफ्ते – ऐसा कोई नियम लेकर इन्द्रियों के लालन-पालन में गर्क न होते हुए, जीवन सीधा-सादा रखते हुए औषधि की नाईं आहार-व्यवहार करके अपने सुखस्वरूप अंतर्यामी आत्मा-परमात्मा में आने का अभ्यास करें ।

ज्ञान सुनने से मोक्ष नहीं होता, ज्ञान सुनने के बाद उसमें स्थित होने से मुक्ति का अनुभव होता है । ज्ञान सुनने से लाभ बहुत होता है परंतु सुना हुआ ज्ञान पचाने के लिए अगर समय नहीं निकाला तो जो परम पद की प्राप्ति का लाभ होना चाहिए उससे वंचित हो जाते हैं ।

तो नर्मदा-किनारे, किसी तालाब के किनारे, पहाड़ी में, किसी आश्रम में या पवित्र जगह में जहाँ वेदांत के संस्कारों का पोषण मिले वहाँ कुछ समय अभ्यास करें । ऐसा नहीं कि जो मिला है वह भी धुल जाय, ऐसा वातावरण न हो । ऐसा वातावरण बहुत मिलता है । वेदांत की निष्ठा को हिलाने वाला वातावरण बहुत मिलता है, अज्ञानियों की तो भीड़-भाड़ है । जो वातावरण आपके अद्वैत सिद्धांत में स्थिति करने के लिए, परमात्म-तत्त्व को पाने के लिए पोषक हो उस वातावरण का अवलम्बन लेकर आप थोड़े दिन वहाँ निवास करो । उन दिनों में मोबाइल, अखबार, रेडियो, टी.वी., संबंधों, पत्र-व्यवहार आदि को तिलांजलि दे दो क्योंकि जन्मे थे अकेले, जायेंगे अकेले और रात को नींद में भी अकेले होते हैं । नींद में आप अकेले होते हैं तो शरीर की थकान मिटती है और यदि कभी-कभी ध्यान व साधन-भजन में आप अकेले बैठें तो जन्म-जन्म की थकान मिटने लगती है ।

कभी-कभी ऐसा अवसर खोज लें कि कोई परिचय न हो, रिश्ते-नातों की झंझट, सांसारिक प्रवृत्ति न हो, सत्संग मिलता रहे । ऐसे लोगों का साथ मिल जाय जो अपने से साधन-भजन में ऊँचे हों, साधन-भजन में सजातीय प्रभाव वाले हों अथवा किन्हीं ब्रह्मवेत्ता महापुरुष का सान्निध्य मिल जाय तो फिर कहना ही क्या ! फिर तो साधन-भजन करना नहीं पड़ता, होने लगता है ।

शास्त्र में आता है कि हमने वेदांत-ज्ञान जितना श्रवण किया है उससे 10 गुना उसका मनन करना चाहिए और उससे 10 गुना माने श्रवण से 100 गुना निदिध्यासन करना चाहिए । परंतु अगर वक्ता कुशल है, संत परमात्म-अनुभव सम्पन्न हैं, उनकी अपने स्वरूप में निष्ठा है और वेद के रहस्य को भी जानते हैं, श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ, कृपालु आचार्य हैं तो उस महापुरुष के सान्निध्य में अगर वेदांत-अमृत सुनने को मिलता है तो श्रवण के साथ कुछ-कुछ मनन और निदिध्यासन भी होने लगता है । मनन होने का फल क्या है ? आत्मा के प्रति, अपने स्वरूप के प्रति जो शंका थी वह कुछ-कुछ अपने-आप निवृत्त होती जाती है । निदिध्यासन होने का फल क्या है ? कि आनंद आता है ।

तो साधन-भजन के लिए अमृततुल्य इस काल का लाभ उठायें और मनुष्य जीवन के सर्वोत्तम लाभ परमात्मप्राप्ति के पथ पर शीघ्रता से अग्रसर हों ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2022, पृष्ठ संख्या 10 अंक 354

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

आयुर्वेद के साहित्य की सुरक्षा व विकास


( आयुर्वेद का अद्भुत प्राकट्य व एलोपैथी की शुरुआत’ गतांक से आगे )

पिछले अंक में आयुर्वेद के अलौकिक प्राकट्य के बारे में जाना कि किस प्रकार भगवान ब्रह्मा जी ने समाधिस्थ होकर आयुर्वेद का स्मरण किया और वह दिव्य ज्ञान पृथ्वी पर अवतरित हुआ । आयुर्वेद शास्त्र के प्रचार-प्रसार को हम चार विभागों में बाँट सकते हैं ।

1 वैदिक कालः इस काल में आयुर्वेद की स्थिति पर्याप्त समुन्नत थी । सामान्य लोग मन में यह धारणा रखते हैं कि हमारे वेद केवल मोक्ष या परमार्थ विषयक ज्ञान प्रदान करते हैं किंतु सच्चाई यह है कि वेद हमारे दिखने वाले जीवन और अदृष्ट जीवन के हर क्षेत्र का ज्ञान अपने में समाये हुए हैं । समस्त ज्ञान ( शास्त्रीय ज्ञान, सैद्धान्तिक ज्ञान या थ्योरेटीकल नॉलेज ) एवं विज्ञान ( प्रायोगिक ज्ञान या जिसका अनुभव किया जा सके ऐसा ज्ञान अथवा प्रेक्टीकल नॉलेज ) का समावेश वेदों में बीजरूप से किया गया है, यहाँ तक कि व्याधियों के हेतु, लक्षण और औषधि का भी ज्ञान वेदों में समाविष्ट है । उस समय सामान्य लोगों को भी आयुर्वेद का सैद्धान्तिक ज्ञान था, जिससे वे देवताओं के समान ओजस्वी, प्रभावशाली, सुंदर वर्णवाले, वर-श्राप देने में समर्थ, सत्य संकल्प, प्रसन्नमना, स्वस्थ और दीर्घायु होते थे । उन्हें शरीर रचना संबंधी ज्ञान उच्च कोटि का था । सम्पूर्ण अवयवों के विभाग और उनके नाम वेदों में मिलते हैं । वैदिक काल में शल्य तंत्र के माध्यम से कृत्रिम अवयवों का निर्माण और उनका प्रत्यारोपण (transplantation) भी होता था । इसके कई उदाहरण आयुर्वेद के वैभवशाली इतिहास में देखने को मिलते हैं । ऋजाश्च की आँखों की रोशनी उनके पिता के श्राप से नष्ट हो गयी थी, अश्विनीकुमारों ने शल्यक्रिया (operation) द्वारा उसे ठीक कर दिया था । राजा खेल की पत्नी विस्पला की जाँघ युद्ध में कट गयी थी, जिसको अश्विनीकुमारों ने लोहे की एक जाँघ लगाकर चलने योग्य बनाया था ।

वेदों में बुखार, चर्मरोग, पीलिया आदि रोगों के उपशमनार्थ औषधियों का उल्लेख मिलता है । भूत और विष के भी शमन का उल्लेख वेदों में मिलता है । आयुर्वेद केवल रोग मिटाने तक सीमित नहीं है बल्कि यह शरीर को स्वस्थ, दीर्घायु, युवा, बल-ओज-तेज-वीर्य से सम्पन्न बनाने का भी ज्ञान प्रदान करते हुए हमारे जीवन के सर्वांगीण कल्याण में अत्यंत सहयोगी बनता है । शरीर की सभी धातुओं को पुष्ट कर ओज व रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हुए युवावस्था प्रदान करने वाले रसायन प्रयोग आयुर्वेद का अनमोल उपहार हैं । यह रसायन चिकित्सा अत्यंत प्राचीन काल से भारत में विद्यमान है । इसके उदाहरण हैं- अश्विनी कुमारों के रसायन प्रयोग द्वारा च्यवन ऋषि तथा कलि नाम के ऋषि और घोषा नाम की ऋषिपत्नी जरामुक्त ( दीर्घकाल तक युवावस्था से युक्त ) हुए थे । च्यवन ऋषि द्वारा सेवन की गयी वह रसायन औषधि ‘च्यवनप्राश’ के नाम से आज पूरे विश्व में सुविख्यात है । पशुचिकित्सालयों, आतुरालयों (चिकित्सालयों) के वर्णन को देखने से प्रतीत होता है कि उस समय आयुर्वेद पूर्ण विकसित था ।

इस प्रकार वेदों में कायचिकित्सा, शल्य चिकित्सा, शालाक्य चिकित्सा (गले के ऊपर के अंगों – आँख, कान, नाक आदि की चिकित्सा ), कौमारभृत्य तंत्र ( बाल चिकित्सा ), भूत विद्या ( मंत्र, होम, पाठ, हवनादि), अगद तंत्र ( विष चिकित्सा ), रसायन तंत्र एवं वाजीकरण तंत्र ( शुक्र धातुवर्धक चिकित्सा ) – इन आयुर्वेद के 8 अंगों का वर्णन मिलता है ।

2 संहिता कालः इस काल का प्रारम्भ आज से लगभग 5000 वर्ष पहले हुआ । युद्धोत्तरकालीन इस परिवेश में आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, वैज्ञानिक – विभिन्न आयामों से बहुत कुछ ध्वस्त हो चुका थ । कर्मठ एवं योग्य व्यक्तियों का अभाव-सा व्याप्त था । परंतु प्राणिमात्र के प्रति आत्मभाव रखते हुए सर्व भूत-प्राणियों के हित में रत हमारे ऋषि-मुनि, निष्काम कर्मयोगी महापुरुषों को परिस्थितियों के आगे घुटने टेकना आता ही नहीं है । फिर क्या था, जिस प्रकार हमारे महर्षि वेदव्यास जी ने वैदिक मंत्रों का वर्गीकरण करके ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद संहिताएँ बनायीं उसी प्रकार पुनर्वसु आत्रेय आदि ने कलम उठायी और संहिताओं की रचना करके आयुर्वेद की इस दिव्य ज्ञानगंगा को अविरत रूप से प्रवाहित रखा । ये संहिताएँ आयुर्वेद के आठों अंगों पर बनीं परंतु कालांतर में उनका लोप होने लगा । वे इतनी जीर्ण-शीर्ण होने लगीं कि उनको पढ़ने में कठिनाई होने लगी तब उनका प्रतिसंस्कार किया गया । तत्कालीन ऋषियों ने चरक, सुश्रुत, भेल, कश्यप आदि संहिताओं के उपलब्ध अंशों को जोड़-जोड़कर पूरा किया परंतु दुर्भाग्यवश कुछ संहिताएँ विलुप्त हो गयीं । जब आयुर्वेद के क्षेत्र में उच्च कोटि के विद्वानों की कमी रहने लगी तो लोकहित के भाव से ओतप्रोत हमारे मनीषियों ने उपलब्ध अंशों पर टीकाएँ लिखना शुरु किया । जब इन टीकाओं को समझने की प्रतिभा का भी समाज में लोप होने लगा तो उनके ऊपर प्रतिटीकाओं की रचना की गयी । जैसे चरक संहिता के मूल ग्रंथ अग्निवेश तंत्र की रचना ऋषि अग्निवेश ने की थी, जिसका प्रतिसंस्कार आचार्य चरक और दृढ़बल द्वारा हुआ था । उसके बाद अलग-अलग आचार्यों ने उस पर टीकाएँ-प्रतिटीकाएँ लिखीं । इस प्रकार ऋषि मुनियों एवं विद्वानों के महत्प्रयासों से अमूल्य आयुर्वेद साहित्य को प्रचुर बनाने का कार्य सतत चालू रहा और इस ज्ञान-सरिता में अवरोध न आने पाया । ( क्रमशः )

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2022, पृष्ठ संख्या 30, 31 अंक 354

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ