श्राद्ध में पहुँचे भगवान अपने हृदय में भगवान के चिंतन को भर लो, भगवान की स्तुति भर लो, भगवान के प्रेम को भर लो, इससे बड़ा लाभ होगा । संत नरसिंह मेहता के यहाँ श्राद्ध दिवस था । उनके भाई ने भी श्राद्ध किया क्योंकि दोनों के पिता तो एक थे । ब्राह्मण देवता को जाकर एक दिन पहले बोलना पड़ता है कि ‘हमारे पिता (या फलाने संबंधी) का श्राद्ध है, आप आना ।’ कल श्राद्ध-अन्न खाना है तो ब्राह्मण ब्रह्मचर्य रखें, संयमी रहें । नहीं तो ब्राह्मण को पाप लगता है, श्राद्धकर्ता के श्राद्ध में गड़बड़ी होती है । तो नरसिंह मेहता एक दिन पूर्व शाम को ब्राह्मण को आमंत्रण देने गये । ब्राह्मण ने कहाः “तुम गरीब हो, तुम्हारे घऱ तो नहीं आऊँगा लेकिन तुम्हारे भाई जो श्राद्ध करेंगे तुम्हारे पिता का, मैं तो उधर जाऊँगा । उसका आमंत्रण मेरे पास है ।” नरसिंह मेहता ने भगवान को कहाः “प्रभु ! पुरोहित महाराज तो नहीं आयेंगे, अब तुम जानो, तुम्हारा काम जाने । कुछ करना प्रभु !” गरीब, दुःखी और भक्त व्यक्ति के पास भगवान की स्तुति और प्रार्थना का कितना बड़ा धन है, कितना बड़ा बल है ! अंदर से आवाज आयीः ‘तू चिंता क्यों करता है ! तू मेरा है तो तेरा कर्म और तेरी चिंता क्या मेरी नहीं है ?’ नरसिंह मेहता को अंतर मे ठंडक आयी । वे दूसरे ब्राह्मणों को आमंत्रण देने गये । ब्राह्म्णों को जलन थी कि ‘जितना हो सके अपने को तो इस नरसिंह मेहता को नीचा दिखाना है ! बोलेः “हाँ-हाँ, हम आयेंगे, हम आयेंगे…।” उनकी जाति वाले सभी बोले कि ‘हम आयेंगे, तुम्हारे यहाँ श्राद्ध है तो हम आयेंगे ।’ नागर समाज ने नरसिंह मेहता को नीचा दिखाने के लिए उनके यहाँ बिना बुलाये मेहमान बन के जाने का ठान लिया । नरसिंह मेहता श्राद्ध के लिए घी, सीधा-सामान आदि लेनॉ व्यापारी के पास गये । व्यापारी ने कहाः “मैं उधार तो दूँगा किंतु जरा भजन सुनाओ ।” नरसिंह मेहता भजन सुनाने लगेः “अखिल ब्रह्मांडमां एक तुं श्रीहरि । जूजवे रूपे अनंत भासे ।।… भजन में रस आने लगा तो एक के बाद एक भजन गाने लगे । गाते-गाते नरसिंह मेहता को तो पता भी नहीं चला की ‘श्राद्ध करना है… घी चाहिए, मैदा, बेसन, चिरौंजी चाहिए, बादाम, काली मिर्च, इलायची आदि चाहिए ।’ सब भूल गये, मुझे तो तू चाहिए ! मैं तेरा, तू मेरा ! अखिल ब्रह्मांडमां एक तुं श्रीहरि ।…’ हरि ने देखा कि ‘ओ हो हो… (भक्त मेरे चिंतन में सब भूल गया है )’ एक ब्राह्मण को भगवान ने अपनी कृपादृष्टि देकर उसमें विद्वता भर दी । ब्राह्मण गये नरसिंह मेहता के पुरोहित बनकर । और भगवान ने स्वयं नरसिंह मेहता का रूप लेकर सीधे सामान की बैलगाड़ी भर-भरा के भक्त के घर में रखी । नरसिंह मेहता का रूप लेकर आये भगवान श्राद्धकर्म में जो बनना चाहिए, सीरा, कढ़ी, खीर आदि खूब बनवाते गये । नागर ब्राह्मण पंचायत ने खूब खाया । देखा कि ‘आहा ! अरे ! आज तो नरसिंह मेहता का रूप कुछ विशेष लग रहा है ! वाह भाई वाह ! हम तो इसको नीचा दिखाने के लिए आये थे लेकिन इसने तो क्या प्रेम से परोसा है ! और यह भोजन है कि अमृत है ! वाह भाई नरसिंह ! वाह !’ जो निंदा करते थे उनके मुँह से ‘वाह नरसिंह मेहता ! वाह ! वाह नरसिंह मेहता ! वाह ! निकलने लगा और नरसिंह मेहता तो वहाँ कहें- ‘वाह मेरे प्यारे ! वाह !’ उनको खबर ही नहीं है कि मेरा कन्हैया वहाँ क्या कर रहा है ! ऐसा करते-करते नरसिंह मेहता के साथ व्यापारी भी भजन में तल्लीन हो गया । उसे भूख लगी तो कुछ याद आया, बोलाः “नरसिंह मेहता ! तुम तो सीधा-सामान लेने आये थे । तीन बज गये तीन ! ले जाओ अब ।” नरसिंह मेहता बोलेः “तीन बज गये । मुझे तो पता ही नहीं । मैं तो सुबह आया था ! वहाँ सभी नागर ब्राह्मण बैठे होंगे, पुरोहित महाराज कोई आये होंगे, अच्छा लाओ भाई… !” दुकानदारः “क्या-क्या लेना है ?” “मैं तो भूल गया क्या लेना था । (भावपूर्वक अंतर्यामी से पूछते हैं-) प्रभु ! आप ही बताओ ?” प्रेरणा होती है कि ‘सब ले लिया गया है, वापस चल !’ नरसिंह मेहताः “यह कौन कहता है ?” अंदर से आवाज आयीः “जिसका तू भजन गा रहा था ।” बोलेः “वापस जाना है ?” “अभी तीन बजे कोई सीधा लेना होता है… भले मानुष ! सब हो गया है, चल ।” नरसिंह मेहता घर वापस आये । असली नरसिंह घर पहुँचे तो वे अंतर्यामी परमेश्वर जो नरसिंह मेहता का रूप लेकर आये थे अंतर्धान हो गये । नरसिंह मेहता ने पत्नी से कहाः “यह सब क्या है ?” पत्नीः “आपको कुछ हो गया है क्या ? गाड़ियाँ भर-भर के लाये, इतने लोगों को जिमाया और ‘यह सब क्या है ?’ – ऐसा पूछते हो ! आपको भूख लगी है, अच्छा आप जिमो ।” “अरे, मैं तो अभी आ रहा हूँ !” “अरे छोड़ो बात, सुबह आप बैलगाड़ी भर-भर के सामान लाये, श्राद्ध हुआ और सब लोग खा-खा के आपकी प्रशंसा करके गये, आपने नहीं सुना ?” “हाँ, लोग प्रशंसा तो कर रहे हैं पर जिसकी प्रशंसा हो रही है वह दिखता नहीं और जिसकी नहीं होनी चाहिए उसकी हो रही है ! जो सब कुछ करता है वह (ईश्वर) नहीं दिखता, जो कुछ नहीं करता वह शरीर ही दिखता है । मेरे प्रभु ! तू नहीं दिखता । हे मेरे कन्हैया ! हे मेरे साँवलिया ! तू धोखे में डालकर कहाँ गया रे… !” “अरे ! अभी-अभी तुमको क्या हुआ ?” “मुझे कुछ नहीं हुआ, वह धोखा दे के गया । मेरा रूप बना के आया था और सब कुछ कर-कराके गया ।” नरसिंह मेहता को पहले से ही लोग पागल कहते हैं । पत्नी ने सोचा, ‘इनका तो पागलपन बढ़ा !’ बोलीः “अभी तो लोगों को जिमाया और अब कह रहे हैं वह गया, वह गया… लेकिन आप ही तो थे !” नरसिंह मेहता ने पूरी घटना सुनायी और कहाः “विश्वास न हो तो उस व्यापारी से पूछ । मैं तो अभी-अभी आया हूँ ।” “अरे, आपको कुछ हो गया है ।” “हाँ, बात सच्ची है और मुझे क्या, भगवान करें कि यह सारी दुनिया को हो !” हम कितने भाग्यशाली हैं ! भगवान ने वचन दिया हैः अनन्याश्चिंतयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते । तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।। (गीताः 9.22) जो अनन्य भाव से मेरा चिंतन करते हैं उनकी मैं व्यवस्था कर देता हूँ । और जब जिस वस्तु की, जिस व्यक्ति की, जिस सुख की, जिस दुःख की जरूरत पड़े उनके विकास के लिए, मैं उसका सर्जन कर देता हूँ । और उनका भार वहन करने में मेरे को मजा आता है । भगवान मजदूर होने में भी मजा लेते हैं, पशु होने में भी मजा लेते हैं, भक्त का सेवक ‘घोड़ा’ होने में भी भगवान को मजा आता है । ऐसा भगवान दुनिया मं कहीं है तो वह भागवत धर्म (सर्वत्र भगवद्-दर्शन, सम तत्त्व का दर्शन करते हुए ब्रह्मसाक्षात्कार की उपलब्धि कराने वाला पथ) में है, सनातन धर्म में है ! जिसे आँखों से देख सकते हैं, हाथ से छू सकते हैं, छछिया भर छाछ पर नचा सकते हैं – यदि ऐसा कोई भगवान है दुनिया में, किसी मजहब में या धर्म में तो वह इस सनातन धर्म का भगवान है । हम कितने भाग्यशाली हैं ! स्रोतः ऋषि प्रसाद सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 345 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
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परिप्रश्नेन
प्रश्नः भगवत्कृपा, संतकृपा और गुरुकृपा क्या है ?
पूज्य बापू जीः भगवत्कृपा है कि तुम्हें संसार फीका लगने लगे
और भगवद्-शांति, भगवद्-ज्ञान, भगवद्-रस में सार दिखने लगे । कैसी
भी मुसीबत या कठिनाई आ जाय, आर्तभाव से भगवान को पुकारो तो वे
मुसीबत में से निकालने का रास्ता देते हैं ।
भगवान कहते हैं-
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
जो मुझे जिस भाव से, जैसा भजता है मैं उसको उसी भाव से फल
देता हूँ । यह भगवत्कृपा है पर संतकृपा इससे कुछ विलक्षण है ।
भगवान को तो जिस भाव से भजो, जितना भजो उस भाव से उतनी
कृपा देंगे परंतु संत को भजो चाहे न भजो, उनकी दृष्टि में आ जाओ
और तुम्हारे को जो जरूरत, तुम जो माँगो वह तो ठीक है लेकिन तुम्हारे
को धीरे-धीरे फुसला के, पटा के, रेलगाड़ी चलाकर, प्रसाद फेंके के… कैसे
भी करके संत तुमको चिन्मय सुख की तरफ ले जायेंगे । जिससे
भगवान भगवद्-रस में तृप्त हैं, तुमको उस रसस्वरूप में पहुँचा देंगे ।
पिता की कृपा में अनुशासन होता है, माता की कृपा में ममता होती है
किंतु माँ दया, कृपा करती है तो ममता से करती है, पिता कृपा करता है
तो अनुशासन करके अपने काम-धंधे के योग्य बनाने की कृपा करता है
और भगवान की कृपा में जो जैसा भजता है उसको वैसा ही फल मिलता
है परंतु संत व सद्गुरु की कृपा में ऐसा होता है कि आप कृपा न चाहो
तो भी वह बरसती रहती है । जितना भी ले सकता है ले और नहीं लेता
है तो लेने योग्य भी बनाते जाते है ।
संत की कृपा में प्रेम होता है, उदारता होती है क्योंकि संत
भुक्तभोगी होते हैं – जहाँ तुम रहते हो वहीं से संत आये हैं तो संसार के
दुःखों को, आपाधापी को, संसार में कैसा पचना होता है, कैसी बेवकूफी
होती है, कैसा आकर्षण होता है, कैसी फिसलाहट होती है – इन सबको
वे जानते है । इसलिए कैसा भी साधक हो…. चलो, चलो, चलो –
डाँटकर, प्यार करके, कुछ पुचकार के, न जाने क्या-क्या करके उठाते हैं
और पहुँचा भी देते हैं । अब तुम जैसा भजो वैसा फल देने को संत नहीं
तौलेंगे । ‘तुम कैसे भी हो, हमको जो मिला है वह तुमको कैसे मिले’
इस प्रयोजन से सारा आयोजन करेंगे, करायेंगे । यह संतकृपा ऐसी ऊँची
होती है । मैंने कभी सोचा नहीं था कि मेरे गुरु जी मेरे को इतना ऊँचा
पहुँचायेंगे ।
गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मङ्गलम् ।
मैं गुरु जी के पास गया तो मैं आशाराम बनूँ या मुझे
ब्रह्मसाक्षात्कार हो ऐसा तो सोचा ही नहीं था । बचपन से भगवान की
तड़प तो थी लेकिन समझता था कि ‘शिवजी आयेंगे, दर्शन देंगे और
बोलेंगेः ‘क्या चाहिए ? मैं बोलूँगाः ‘कुछ नहीं चाहिए ।’ तो शिवजी
प्रसन्न हो जायेंगे । हम समझते थे कि इसी को बोलते हैं भगवत्प्राप्ति
। बाद में पता चला कि ‘अरे, यह तो कुछ भी नहीं । इतनी मेहनत करो
और भगवान आये, दिखे फिर चले गये तो अपन वैसे-के-वैसे ।’ गुरु जी
ने ऐसी कृपा की कि पता चला शिवजी जिससे शिवजी हैं, विष्णुजी
जिससे विष्णुजी हैं, ब्रह्मा जी जिससे ब्रह्माजी हैं और दुनिया जिससे
चेतना पाती है वही मेरा आत्मदेव है, यह सब मेरे आत्मदेव का ही
विस्तार है । ‘मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था ऐसी ऊँची अवस्था में
गुरु जी ने रख दिया । यह है गुरुकृपा !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 34 अंक 344
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दीप-प्रज्वलन अनिवार्य क्यों ?
भारतीय संस्कृति में धार्मिक अनुष्ठान, पूजा-पाठ, सामाजिक व
सांस्कृतिक कार्यक्रमों में दीपक प्रज्वलित करने की परम्परा है । दीपक
हमें अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करके पूर्ण ज्ञान को प्राप्त करने का
संदेश देता है । आरती करते समय दीपक जलाने के पीछे उद्देश्य यही
होता है कि प्रभु हमें अज्ञान-अंधकार से आत्मिक ज्ञान-प्रकाश की ओर ले
चलें । मृत्यु से अमरता की ओर ले चलें ।
मनुष्य पुरुषार्थ कर ससांर से अंधकार दूर करके ज्ञान का प्रकाश
फैलाये ऐसा संदेश दीपक हमें देता है । दीपावली पर्व में, अमावस्या की
अँधेरी रात में दीप जलाने के पीछे भी यही उद्देश्य छुपा हुआ है । घर
में तुलसी की क्यारी के पास भी दीपक जलाये जाते हैं । किसी भी नये
कार्य की शुरुआत भी दीप जलाकर की जाती है । अच्छे संस्कारी पुत्र को
भी कुल दीपक कहा जाता है ।
दीपक की लौ किस दिशा में हो ?
पुज्य बाप जी के सत्संग-अमृत में आता हैः “आप दीया जलाते हैं,
आरती करते हैं, इसका बहुत पुण्य माना गया है परंतु आरती के दीपक
की बत्ती या लौ अगर पूर्व की तऱफ है तो आपको धन-लाभ में मदद
मिलेगी, यदि दक्षिण की तरफ है तो धन-हानि और पश्चिम की तरफ है
तो दुःख व विघ्न लायेगी । इसीलिए घर में ऐसी जगह पर आरती करें
जहाँ या तो पूर्व की तरफ लौ हो या तो उत्तर की तरफ । ऋषियों ने
कितना-कितना सूक्ष्म खोजा है !
लौ दीपक के मध्य में लगाना शुभ फलदायी है । इसी प्रकार दीपक
के चारों और लौ प्रज्वलित करना भी शुभ है ।
दीपक के समक्ष इन श्लोकों के पठन से विशेष लाभ होता हैः
शुभं करोतु कल्याणमारोग्यं सुखसम्पदाम्
शत्रु बुद्धिविनाशाय दीपज्योतिर्नमोऽस्तुते ।।
‘शुभ एवं कल्याणकारी, स्वास्थ्य एवं सुख-सम्पदा प्रदान करने वाली
तथा शत्रुबुद्धि का नाश करने वाली हे दीपज्योति ! मैं तुम्हें नमस्कार
करता हूँ ।’
दीपज्योतिः परब्रह्म दीपज्योतिर्नजनार्दनः ।
दीपो हरतु मे पापं दीपज्योतिर्नमोऽस्तुते ते ।।
‘उस परब्रह्म-प्रकाशस्वरूपा दीपज्योति को नमस्कार है । वह
विष्णुस्वरूपा दीपज्योति मेरे पाप को नष्ट करे ।’
ज्योतिषामपि तज्जयोतिस्तमसः परमुच्यते । (गीताः 13.17)
ज्योतियों की ज्योति आत्मज्योति है । जिसको सूर्य प्रकाशित नहीं
कर सकता बल्कि जो सूर्य को प्रकाश देती है, चंदा जिसको चमका नहीं
सकता अपितु जो चंदा को चमकाती है वह आत्मज्योति है । महाप्रलय
में वह नहीं बुझती । उसके प्रतीकरूप में यह दीपक की ज्योति
जगमगाते हैं ।
दीपज्योतिः परब्रह्म… अंतरात्मा ज्योतिस्वरूप है, उसको नहीं जाना
इसलिए साधक बाहर की ज्योति जगाकर अपने गुरुदेव की आरती कहते
हैं-
ज्योत से ज्योत जगाओ सद्गुरु ! ज्योत से ज्योत जगाओ ।
मेरा अंतर तिमिर मिटाओ, सद्गुरु ! ज्योत से ज्योत जगाओ ।
अंतर में युग-युग सरे सोयी, चितिशक्ति को जगाओ ।।….
यह अंदर की ज्योत जगाने के लिए बाहर की ज्योत जगाते हैं ।
इससे बाहर के वातावरण में भी लाभ होता है ।
दीपो हरतु मे पापं…. दीपज्योति पापों का शमन करती है, उत्साह
बढ़ाती है लेकिन दीपज्योति को भी जलाने के लिए तो आत्मज्योति
चाहिए और दीपज्योति को नेत्रौं द्वारा देखने के लिए भी आत्मज्योंति है
और नेत्रज्योति है तभी दीप ज्योति है, वाह मेरे प्रभु ! भगवान का
चिंतन हो गया न ! आपस में मिलो तो उसी का कथन करो, उसी का
चिंतन करो, आपका हृदय उसके ज्ञान से भर जाय ।
दीप-प्रज्वलन का वैज्ञानिक रहस्य
दीया इसलिए जलाते हैं कि वातावरण में जो रोगाणु होते हैं, हलके
परमाणु होते हैं वे मिटें । मोमबत्ती जलाते हैं तो अधिक मात्रा में कार्बन
पैदा होता है और दीपक जलाते हैं तो दीपज्योति से नकारात्मक शक्तियों
का नाश होता है, सात्त्विकता पैदा होती है, हानिकारक जीवाणु समाप्त
होते हैं ।”
घी या तेल का दीपक जलने से निकलने वाला धूआँ घर के
वातावरण के लिए शोधक (प्यूरीफायर) का काम करता है और स्वच्छ व
मनमोहक वातावरण) रोगप्रतिरोधी तंत्र को मजबूत करने में सहायक है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 23,24 अंक 344
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