महर्षि बोधायन के पास कई विद्यार्थी अध्ययन करने के लिए आते
थे । उनका आश्रम विद्यार्थियों से भरा रहता और वे उनके सर्वांगीण
विकास पर विशेष ध्यान देते थे ।
एक दिन वे शिष्यों की प्रार्थना पर आश्रम के निकट स्थित एक
नदी के तट पर गये । शिष्य गुरु के साथ नदी में बड़ी देर तक तैरते
रहे । फिर सब तट पर आये और भोजन के बाद वहीं विश्राम करने लेट
गये । थोड़ी देर बाद आश्रम जाने हेतु सब एकत्र हुए पर शिष्य गार्ग्य
का कुछ पता न था । सभी उसको खोजने लगे । महर्षि उसे खोजते हुए
वहाँ जा पहुँचे जहाँ गार्ग्य लेटा था । उन्होंने कहाः “उठो वत्स ! हमें
आश्रम चलना है ।”
गार्ग्य ने कहा लेटे-लेटे कहाः “कैसे उठूँ गुरु जी ? एक बहुत बड़ा
सर्प मेरे पैरों से लिपट कर सो रहा है । यदि मैं उठता हूँ तो उसकी भी
नींद खुल जायेगी । अतः जब तक वह स्वयं उठकर नहीं चला जाता,
मेरा इसी प्रकार लेटे रहना मुझे उचित लग रहा है ।”
महर्षि बोधायन इंतजार करने लगे । अब तक अन्य शिष्य भी वहाँ
आकर यह कौतुक देखने लगे थे । कुछ देर बाद साँप जागा और झाड़ियों
में चला गया । गुरु बोधायन ने गार्ग्य को गले से लगा लिया । उन्होंने
गार्ग्य को आशीर्वाद देते हुए कहाः “बेटा ! एक विषधर के प्रति तुम्हारा
यह मानवीय व्यवहार प्रकट करता है कि तुम मानव के प्रति निश्चय ही
शीलवान और दयावान बने रहोगे । तुम्हारा यह शील अक्षय बना रहे ।”
गार्ग्य का एक गुरुभाई मैत्रायण पास ही खड़ा था, उसे गुरु का
आशीर्वाद समझ न आया । उसने पूछाः भगवन् ! गार्ग्य के व्यवहार में
साहस और दृढ़ता का परिचय मिलता है पर आपने शील अक्षुण्ण रहने
का आशीर्वाद दिया । ऐसा क्यों ?”
महर्षि बोधायन ने कहाः “वत्स ! जिस प्रकार जल का ठोस रूप
हिम है उसी प्रकार शील का घनीभूत रूप साहस, दृढ़ता और धैर्य है ।
यदि व्यक्ति हर परिस्थिति मे अपने शील की रक्षा के प्रति सजग रहे
तो वह असाधारण वीरता को विकसित कर सकता है । सामान्यतः शील
और धैर्य को वीरता का गुण नहीं माना जाता लेकिन यथार्थ में पराक्रम
इन्हीं में बसता है ।”
पूज्य बापू जी के सत्संग-वचनामृत में आता हैः “जिसके पास शील
है उसका दुनिया में कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता । शील क्या है ?
अपनी तरफ से किसी का बुरा न चाहना एवं बुरा न करना शील है ।
शीलवान सदा संतुष्ट रहता है । यह शील बाहर की चीज़ नहीं हैं, इसे
तो हर कोई धारण कर सकता है । आवश्यकता है केवल व्यर्थ की
वासनाएँ छोड़ने की । निरर्थक वासनाएँ एवं निरर्थक कर्म छोड़ दें तो
सार्थक कर्म अपने-आप होने लगते हैं । सार्थक कर्म, दूसरों के प्रति हित
की भावना से किये गये कर्म शीलवान बनने में सहायक होते हैं और जो
शीलवान होता है उसके लिए दुनिया में कुछ भी असम्भव नहीं है ।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2023, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 364
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ