घनश्यामदास बिड़ला जी ने स्वामी अखंडानंदजी से पूछाः “महाराज
! लम्बे आयुष्य के लिए कोई उपाय है ?”
अखंडानंद जी बोलेः “हाँ-हाँ, क्यों नहीं ! तुम कोई बढ़िया काम चुनो
जो धर्मानुकूल हो और तुम्हारा वह काम ऐसा हो कि लम्बा समय चले ।
संकल्प करो कि यह काम मुझे पूरा करना है, चाहे कितना भी समय
लगे । उसे पूरा करने के संकल्प से तुम्हारा आय़ुष्य बढ़ेगा ।”
आप भी अपने जीवन में कोई उत्तम-से-उत्तम कार्य करने का
महासंकल्प धारण कीजिये । अपनी पूरी बुद्धि और शक्ति का सदुपयोग
करते हुए अत्यंत दृढ़तापूर्वक अपने महासंकल्प को पूर्ण करने का प्रयास
कीजिये ।
मेरे पिता जी पक्षियों को दाना डालते थे । जो पक्षियों को दाना
डालते रहते हैं न, उनको मृत्यु का समय पता चल जाता है ।
हम समझने लायक हुए । पिता जी का संसार से जाने का समय
आया तो वे तिथि पूछने लगेः “आज कौन सी तिथि है ?”
माँ ने बतायाः “आज फलानी तिथि है ।”
कुछ दिन बीते फिर पूछाः “अच्छा, आज कौन सी तिथि है ?”
माँ बोलीः “आज अमुक तिथि है ।”
“अच्छा, 4 दिन और रहना पड़ेगा… ।”
माँ बोलतीः “क्या बोलते हो ?”
बोलेः “जायेंगे ।”
“कहाँ ?”
बोलेः “तू शांत रह ।”
आखिरकार उन्होंने जिस तिथि का संकल्प किया था उसी तिथि को
गये ।
पहले के जमाने में लोग दृढ़व्रती होते थे कि ‘मैं मरूँगा तो काशी में
मरूँगा । शिवजी की कृपा से मुक्ति होगी ।’ फिर जब लगता था कि
अब मृत्यु नजदीक है तो बोलतेः “मुझे काशी ले चलो, काशी ले चलो ।”
उस जमाने में साधन नहीं थे तो परिवार वाले, स्नेही मिल के
कमजोरों, वृद्धों को डोली में ले जाते थे । काशी पहुँचते-पहुँचते कई दिन
बीत जाते ।
कुछ दिन बीतते और वह मरणासन्न व्यक्ति पूछताः “काशी आयी
?”
बोलेः “नहीं, अभी 50 कोस दूर है ।”
फिर पूछताः “2 दिन हो गये, काशी आयी ?”
बोलेः “नहीं ।”
ऐसा करते-करते जब पता चलता कि काशी में गंगा किनारे आ गये
हैं, मणिकर्णिका घाट है अथवा तो फलाना घाट है तो चल देते थे (शरीर
छोड़ देते थे) ।
मैंने ऐसे कई मरीज देखे, कई लोग देखे जो अपने शुभ संकल्प से
खूब लम्बा जिये । मैंने मनोविज्ञानियों की यह बात भी पढ़ी-सुनी कि जो
जिलाधीश, सचिव या और किसी बड़े पद पर रहते हैं वे अधिकारी जब
सेवानिवृत्त हो जाते हैं तो दबदबा रहता नहीं, हेकड़ी निकल जाती है और
घर में भी चलती नहीं तो बोलते हैं कि ‘मेरी कोई कीमत नहीं । मैं कोर्ट
में जाता था, ‘जज साहब ! जज साहब !’ करके लोग सलाम मारते थे,
प्रणाम करते थे और अब कोई सुनता नहीं ।’ लेकिन जज साहब, सचिव
साहब, कलेक्टर साहब थे तब थे, अभी तो सेवानिवृत्त हो गये । मंत्री
साहब थे तब थे, अभी तो पद चला गया । तो फिर उनके मन में
संकल्प होता है कि ‘अब क्या जीना, कोई कीमत नहीं है अपनी । इससे
तो मर जायें, मर जायें…’ तो वे लोग 5-10 वर्ष जल्दी मर जाते हैं ।
ऐसा मनोवैज्ञानिकों ने घोषित किया ।
‘जीवन में कोई सार नहीं, कोई मानता नहीं, अपनी कोई कीमत
नहीं…’ अरे, सार-का-सार तेरा अंतरात्मा था, उधर गये नहीं बाबू साहब !
और अष्टधा प्रकृति में थोड़ा बन के अहंकार बढ़ाया । अहंकार पुष्ट हुआ
इसका मजा लिया लेकिन…
…अहंकारविमूढ़ात्मा कर्ताहमिति मन्यते ।। (गीताः 3.27)
कर्म तो होते हैं प्रकृति में और तू अहंकार सजा के अपने को कर्ता
मानता है । तेरे को श्रीकृष्ण ने कृपा करके अच्छी, बढ़िया गाली दे दी है
- ‘विमूढ़’ । अहंकार से तो विमूढ़ हो गया, अपने को कर्ता मानता है !
सारे कर्म प्रकृति में होते हैं, सारे गुण-दोष प्रकृति में होते हैं, ये
तुझ चैतन्य में नहीं हैं । बेटा ! तू अमर आत्मा है, तू शाश्वत है, तू
शुद्ध है, तू बुद्ध है । मदालसा रानी अपने बच्चों को लोरी सुनाते समय
ऐसे संकल्प भरती है । जब शिशु भी यह विद्या पाकर महान हो गये,
आत्मसाक्षात्कारी हो गये तो बापू के शिष्य और शिष्याएँ महान हो जायें
ऐसा बापू का संकल्प उचित है ।
वे चाहते सब झोली भर लें, निज आत्मा का दर्शन कर लें ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 357
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