बल ही जीवन है, दुर्बलता मौत है । जो नकारात्मक विचार करने
वाले हैं वे दुर्बल हैं, जो विषय-विकारों के विचार में उलझता है वह दुर्बल
होता है लेकिन जो निर्विकार नारायण का चिंतन, ध्यान करता है और
अंतरात्मा का माधुर्य पाता है उसका मनोबल, बुद्धिबल और आत्मज्ञान
बढ़ता है ।
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वासना-प्रधान नहीं विवेक-प्रधान व्यवहार हो – पूज्य बापू जी
पति पत्नी को बोलता है कि ‘भोग-वासना में सहयोग देना तेरा कर्तव्य है ।’ और पत्नी समझती है कि ‘तुम हमारी वासना के पुतले बने रहो यह तुम्हारा कर्तव्य है ।’ नहीं-नहीं, ये दोनों एक दूसरे को खड्डे में गिराते हैं । पति सोचे कि ‘पत्नी के चित्त, शरीर और मन में आरोग्यता आये, ऐसा सत्संग, ऐसा संग, ऐसे विचार देना या दिलाने की व्यवस्था करना मेरा कर्तव्य है’ और पत्नी चाहे कि ‘पति की कमर न टूटे, कमर मजबूत रहे, शरीर मजबूत रहे, मन मजबूत रहे ऐसे व्यवहार, खुराक और सेवा से, ऐसे आचरण से पति के तन की, मन की बुद्धि की और आत्मा की उन्नति करना मेरा कर्तव्य है ।’
तो कर्तव्य बुद्धि से पति पत्नी को देखे और पत्नी पति की सेवा करे तो दोनों एक दूसरे के गुरु होकर गुरुपद में जगने में सफल हो सकते हैं । लेकिन पत्नी चाहे कि ‘पति मेरे कहने में चले’ और पति चाहता है कि ‘पत्नी मेरे कहने में चले’ तो यह विवेक की कमी है । विवेक की कमी होने से व्यक्ति दूसरे को अपने अधिकार के अधीन करना चाहता है । यह समझता नहीं कि जो तुम्हारा है वह औरों का भी है, बहुतों का है । पति तुम्हारा है तो वह किन्हीं माँ-बाप का बेटा भी तो है, उसको उधर भी कर्तव्य निभाने दो और किन्हीं गुरु का शिष्य भी है, उधर भी उसको कर्तव्य निभाने दो । लोग जिसको अपना मानते हैं उससे विवेक-प्रधान व्यवहार नहीं करते, वासना-प्रधान व्यवहार करते हैं । जब अपने वालों के साथ वासना-प्रधान व्यवहार होता है तो अविवेक जगता है, आसुरी भाव जगता है और जब अपने वालों के प्रति विवेक-प्रधान व्यवहार होता है तो सुर भाव – देवत्व भाव जगता है और दैवी गुणों की सम्पदा हमारे चित्त में आती है – निर्भयता, तत्परता, सद्गुरु-उपासना, ईश्वर-प्रणिधान (ईश्वर उपासना) आदि सद्गुण विकसित होते हैं और दैवी सम्पदा के 26 लक्षणों में से जितने-जितने लक्षण जितने अंश में बढ़ते हैं उतने अंश में हम अपने आत्मदेव की निकटता का अनुभव करते हैं ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2022, पृष्ठ संख्या 21 अंक 349
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‘मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कड़वा थू’
एक सेठ के बगीचे में गाय घुस आयी । सेठ ने दौड़कर डंडा मार
दिया । डंडा मर्मस्थल पर लगा गया । गाय मर गयी ।
गोहत्या आयी तो सेठ ने कहाः “मैंने गाय नहीं मारी, डंडे ने मारी
है । उसे लगो ।”
गोहत्या डंडे के पास गयी तो वह बोलाः “मुझे तो हाथ ने चलाया है
।”
हाथ की बारी आयी तो उसने कहाः “मेरे देवता तो इन्द्र हैं । मैं
उनकी शक्ति से चलता हूँ ।”
देवराज इन्द्र के पास गोहत्या गयी तो वे कहने लगेः “मुझे हाथ का
देवता भगवान विष्णु ने बनाया । मुझमें उऩ्हीं की शक्ति है ।”
गोहत्या भगवान विष्णु के पास गयी तो वे उसे लेकर ब्राह्मण बन
के सेठ के पास आये और बोलेः “यह बग़ीचा आपने लगवाया है ? बड़ा
सुंदर बग़ीचा है ।”
सेठः “आपकी कृपा है । इस दास ने यह बड़े परिश्रम से लगवाया
है । चलिये, दिखा दूँ आपको ।
अब सेठ ब्राह्मण को दिखाने लगे, बतलाने लगे कि कौनसा वृक्ष,
लता या पुष्प कहाँ से कैसे उन्होंने मँगवाया । इसी घूमने में ब्राह्मण के
पूछने पर उन्होंने बतलाया कि कुआँ उन्होंने बनवाया, धर्मशाला उन्होंने
बनवायी, अन्नक्षेत्र वे चलाते हैं । घूमते-घूमते ब्राह्मण मरी गाय के पास
पहुँचे और चौंकते से बोलेः “यह गाय कैसे मर गयी ?”
सेठः “यह तो अपने-आप मर गयी ।”
ब्राह्मणः “वाह सेठ जी ! बग़ीचा आपने लगवाया, कुआँ आपने
बनवाया, धर्मशाला आपने बनवायी, अन्नक्षेत्र आप चलाते हैं और गाय
अपने आप मर गयी ? गाय भी आपने मारी है, समझे ? यह गोहत्या
आपको लगेगी ही ।”
आप ईमानदारी से देखो कि आप अपने को कर्ता समझते हो या
नहीं ? अपने को कर्ता समझकर तो कर्म कर रहे हो, उसका उत्तम फल
भोगना चाहते हो और उसमें से दुःख-अपमान निकले तो अपने को
अकर्ता-अभोक्ता बनाना चाहते हो, यह ‘मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कड़वा थू’
नहीं चलेगा ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2022, पृष्ठ संख्या 24 अंक 349
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