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गौमाता की बुद्धिमत्ता व संवेदनशीलता


मातरः सर्वभूतानां गावः सर्वसुखप्रदाः।

‘गौएँ सम्पूर्ण प्राणियों की माता कहलाती हैं। वे सबको सुख देने वाली हैं।’ (महाभारतः अनुशासन पर्वः 69.7)

गौमाता प्रेम, दया, त्याग, संतोष, सहिष्णुता एवं वात्सल्य की साक्षात मूर्ति है। गोवंश में बुद्धिमत्ता तथा सोचने समझने की क्षमता होती है। इसका सबसे सरल उदाहरण यह है कि पचास गायों को एक साथ खड़ी करके किसी एक गाय के बछड़े को छोड़ा जाये तो वह दौड़कर अपनी माँ के पास पहुँच जाता है। जबकि भैंस का पाड़ा कई भैंसों की लातें खाता हुआ भी अपनी माँ के पास नहीं पहुँच पाता। उसे मालिक ही उसकी माँ के पास ले जाता है। भैंस का दूध पीने वाला पाड़ा इतना मूर्ख होता है और गाय का दूध पीने वाला बछड़ा इतना अक्लवाला होता है !

अपने बच्चों की बुद्धि बढ़ाने की चाह वाले प्रयत्न करके बच्चों को देशी गाय का दूध उपलब्ध करायें। देशी गाय का दूध पीने वाले बच्चे पाड़ों की नाईं झगड़ाखोर, स्वार्थी नहीं होते। भैंस खुराक देखकर दूध देती है जबकि गाय बछड़े को देख के ही दूध उतारती है। गाय स्नेही है, भैंस स्वार्थी है। ये गुण-अवगुण उनके दूध में से उनके बच्चों में भी आते हैं और अपने बच्चों में भी आते हैं।

घर के बाहर गाय के आने की खबर बछड़े को हो जाती है और वह अपने आप ही रँभाने लग जाता है। दूध दुहते समय बछड़े को छुड़ाकर दूर बाँधने के बाद भी गाय दूध देती रहती है। मालिक बाहर से घर आये तो गाय खुश होकर उसको चाटने लगती है। गाय का गर्भकाल भी मानव के समान लगभग 9 माह का है।

कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रो. डोनाल्ड ब्रूम ने एक अध्ययन में गायों की एक ऐसी जगह रखा, जहाँ उन्हें चारा हासिल करने के लिए दरवाजा खोलना था। उनकी दिमागी तरंगों को एक यंत्र के माध्यम से मापा गया। इससे पता चला कि वे इस चुनौती को लेकर काफी उत्साहित थीं। जब यह पहेली सुलझाने में कामयाबी मिली तो कुछ गायें तो उत्साहित होकर उछल पड़ीं।

उनमें से एक दूसरों को देखकर सीखने की क्षमता भी होती है तथा सीखी हुई बात वे कभी नहीं भूलतीं। वे बहुत जल्दी सीख जाती हैं कि बिजली की तारों की बाड़ और दूसरी चीजें जिनसे शरीर को चोट लगे उनसे दूर कैसे रहा जाय। वे अपने बाड़ों को अच्छी तरह से जानती हैं और अपनी पसंदीदा जगह पर जाने का रास्ता आसानी से खोज लेती हैं। इनकी गंध पहचानने वाली इन्द्रियाँ काफी सक्रिय तथा स्मरणशक्ति काफी प्रभावी होती है। वे जानती हैं कि किस वक्त उन्हें चारा दिया जायेगा तथा कब दूध दुहा जायेगा।

गाय के ये बुद्धिमत्ता, संवेदनशीलता आदि गुण केवल भारतीय गोवंश में देखने को मिलते हैं, गाय की तरह दिखने वाले विदेशी पशुओं में नहीं। इसलिए भारतीय नस्ल की गायों का दूध पीने वालों में बुद्धिमत्ता, संवेदनशीलता, दया, प्रेम आदि का विकास होता है और वे ओजस्वी-तेजस्वी बनते हैं।

(बापू जी को बचपन से गाय का दूध मिला, अभी भी गाय के दूध का उपयोग करते हैं और उनमें सारे सदगुण चमचम चमकते हमने व लाखों करोड़ों साधकों ने देखे सुने हैं। – सम्पादक)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2016, पृष्ठ 24,25 अंक 285

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कलियुगी पूतनाएँ हैं तथाकथित विदेशी गायें ?


आप गाय का दूध पी रहे हैं या कई विदेशी पशुओं का ?

आज बहुत से लोग जो जर्सी होल्सटीन आदि नस्लों का दूध पी रहे हैं, सोचते होंगे कि ‘हम गाय का पौष्टिक दूध पी के तंदुरुस्त हो रहे हैं’ लेकिन क्या यह सच है ? कई अनुसंधानों से पता चला है कि जर्सी, होल्सटीन आदि पशुओं का दूध पीने से अनेक गम्भीर बीमारियाँ होती हैं। मैड काऊ, ब्रुसेलोसिस, कई प्रकार के चर्मरोग, मस्तिष्क ज्वर आदि रोग जर्सी, होल्सटीन को पालने वालों, उनके परिवार व आसपास के लोगों में हो रहे हैं। एक शोध के अनुसार पशुओं से मनुष्यों में होने वाले रोगों से विश्वभर में प्रतिवर्ष 22 लाख लोग मरते हैं। कृषि वैज्ञानिक पद्मश्री सुभाष पालेकर जी का कहना हैः “जर्सी आदि नस्लें गायें नहीं हैं।” श्री वेणीशंकर वासु ने जर्सी आदि विदेशी नस्लों के गाय न होने के कई अकाट्य प्रमाण दिये हैं।

देशी गाय का दूध शक्तिवर्धक और रोगप्रतिरोधक होने से अनेकानेक शारीरिक-मानसिक रोगों से रक्षा करता है। इनकी सेवा करने से कई असाध्य रोग भी मिट जाते हैं।

क्यों उत्तम है देशी गाय जर्सी आदि विदेशी पशुओं से ?

देशी गाय जर्सी आदि विदेशी पशु
1.इनके दूध में पाये जाने वाले विशिष्ट पोषक तत्त्व हमारे शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं। देशी गाय का दूध पेप्टिक अल्सर, मोटापा, जोड़ों का दर्द, दमा, स्तन व त्वचा का कैंसर आदि अनेक रोगों से रक्षा करता है। इनका दूध मानव शरीर में बीटा केसोमार्फिन-7 नामक विषाक्त तत्त्व छोड़ता है। इससे मधुमेह, धमनियों में खून जमना, हृदयाघात, ऑटिज्म, स्किजोफ्रेनिया (एक मानसिक रोग) जैसी घातक बीमारियाँ होती हैं।
2.रोगप्रतिरोधक क्षमता अधिक होने से इनको बीमारियाँ कम होती हैं। रोगप्रतिरोधक क्षमता कम होने के कारण इनमें थनैला, मुँहपका, पशु-प्लेग आदि अनेक रोगों का भयंकर प्रकोप होता है।
3.इनका दूध सुपाच्य, पौष्टिक व सात्विक है। इनका दूध ऐसा गुणकारी नहीं है।
4.इनमें स्थित सूर्यकेतु नाड़ी स्वर्ण-क्षार बनाती है, जिसका बड़ा अंश दूध में और अल्पांश गोमूत्र में आता है। देशी गोदुग्ध पीला होता है। इनमें सूर्यकेतु नाड़ी नहीं होती इसलिए इनका दूध सफेद और सामान्य होता है।
5.इनके पंचगव्य का विभिन्न धार्मिक कार्यों में व औषधीय रूप में प्रयोग होता है। विदेशी नस्लों के दूध, मल, मूत्र आदि में ये विशेषताएँ दूर-दूर तक नहीं हैं।
6.इनके रखरखाव पर कम खर्च आता है। इनके रखरखाव पर बहुत खर्च होता है।
7.इनके जीने की दर है 80-90 प्रतिशत। इनके जीने की दर है मात्र 40-50 प्रतिशत।
8.विपरीत मौसम में भी इनके दूध-उत्पादन में 5-10 प्रतिशत की ही कमी होती है। इनका दूध-उत्पादन 70-80 प्रतिशत कम हो जाता है।
9.यह 15-17 बार गर्भवती हो सकती है। यह 5-7 बार ही गर्भवती हो सकती है।
10.इनके बैल खेती हेतु उपयोगी होते हैं। इनके बैल खेती हेतु उपयोगी नहीं होते।

पर्यावरण के लिए भी नुक्सानदायक है संकर नस्ल

संकर नस्ल को देशी गाय की तुलना में चार गुना पानी की ज्यादा जरूरत होती है। इससे भूजल का अत्यधिक दोहन हो रहा है। वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर हम अभी नहीं जागे तो आने वाली पीढ़ी को जहाँ दूध की कमी से जूझना होगा, वहाँ पर्यावरण भी और खराब मिलेगा।

राष्ट्रीय पशु आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो, करना के डॉ. डी. के. सदाना का कहना है कि “भारत की मान्य नस्लों (गीर, थारपारकर, कांकरेज, ओंगोल, कांगायम एवं देवनी) की क्रॉसब्रीडिंग पर पूर्णतया रोक लगा देनी चाहिए। इन मान्य नस्लों पर क्रॉसब्रीडिंग करके उनके मूल गुणों को नष्ट करना देश के लिए अत्यंत हानिप्रद होगा।” विदेशी संकरित जर्सी, होल्सटीन पशुओं को गाय कहना धरती की वरदानस्वरूपा गौ का घोर अपमान है। वे महज संकरित जर्सी, होल्सटीन पशु हैं। उन्हें गाय के रूप में प्रचारित कर भारतवासियों को गुमराह किया गया है। इनके दूध, मूत्र, गोबर और इनको छू के आने वाली हवाओं से भी होने वाली घातक बीमारियों को देखकर इन्हें जहरीले तत्त्व और रोग-बीमारियों का उपहार ले के आयी हुई कलियुगी पूतनाएँ ही कहना ठीक रहेगा। द्वापर की पूतना तो केवल स्तन पर जहर का लेप करके आयी थी परंतु ये कलियुगी पूतनाएँ तो अपने दूध में ही धीमा जहर (स्लो पॉईजन) घोल के आयी हैं।

अतः इनसे बचाव हेतु देशी गायों का रक्षण-संवर्धन जरूरी है। देशी गायों से होने वाले लाभ व विदेशी नस्लों की घातक हानियों के बारे में सरकार, गोपालकों व जनता को अवगत कराकर जागृति लाने का प्रयास करें।

देशी गाय का दूध पीना सर्वश्रेष्ठ व अमृतपान के तुल्य है। यदि यह न मिले तो भैंस (प्राकृतिक पशु) के दूध से काम चला लें किंतु जर्सी आदि विदेशी पशुओं का दूध भूलकर भी न पियें क्योंकि यह भैंस के दूध से अनेक गुना हानिकारक है।

लेखकः डॉ. उमेश पटेल, पशु-चिकित्सक

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2016, पृष्ठ संख्या 9, अंक 280

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पर्यावरण संरक्षण के लिए जरूरी है गोवध पर रोकः शोध


गाय से होने वाले आधिभौतिक, आधिदैविक व आध्यात्मिक लाभों से समाज लाभान्वित हो इस उद्देश्य से हमारे शास्त्रों व संत-महापुरुषों ने गाय को सेवा करने योग्य और आदरणीय बताया है तथा गोपालन व गौ-सरंक्षण की प्रेरणा दी है। ‘ऋग्वेद’ कहा गया हैः ‘इन गौओं पर वध करने के लिए आघात न करें।’

आज विज्ञान भी गाय से होने वाले अनगिनत लाभों को स्वीकार करता है एवं गोवध से होने वाले भयंकर दुष्परिणामों को उजागर कर रहा है। गोवध पर्यावरण के लिए कितना घातक है यह बात आज कई वैज्ञानिक शोधों से सामने आ चुकी है।

‘युनाइटेड नेशन्स एनवायरनमेंट प्रोग्राम’ ने गोमांस को पर्यावरणीय रूप से हानिकारक मांस बताते हुए कहा कि ‘ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के मामले में एक किलो गोमांस-सेवन लगभग 160 कि. मी. तक किसी मोटरवाहन का इस्तेमाल करने के बराबर है।’

ब्रिटेन की ‘युनिवर्सिटी ऑफ लीडस’ के टिम बेंटन के अनुसार “कार्बन फुटप्रिंट (कार्बन डाइऑक्साइड या ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन) घटाने के लिए लोग सबसे बड़ा जो योगदान कर सकते हैं, वह कारें छोड़ना नहीं है बल्कि लाल रंग का मांस खाना कम करना है।”

आलू, गेहूँ या चावल जैसे मूल खाद्यों की तुलना में गोमांस से प्रति कैलोरी ऊर्जा प्राप्त करने में 160 गुना अधिक जमीन लगती है और 11 गुना अधिक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है। लाल मांस (गोमांस) के उत्पादन के लिए अन्य मांस की तुलना में 28 गुना अधिक जमीन और 11 गुना अधिक पानी की आवश्यकता पड़ती है तथा 5 गुना अधिक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है, जिससे वातावरण में तापमान की वृद्धि हो रही है। इसके कारण कहीं सूखे की समस्या बढ़ रही है तो कहीं समुद्र के जलस्तरों में बढ़ोतरी के कारण तटीय इलाके डूबते जा रहे हैं तो कहीं विनाशक तूफान आते हैं।

वर्ष 2015 में विश्व में गोमांस का कुल उत्पादन 5,84,43000 मीट्रिक टन हुआ और विश्व में पाँचवें स्थान पर भारत में 42,00,000 मीट्रिक टन उत्पादन हुआ। ( 1 मीट्रिक टन= 1000 कि. ग्रा.)

गोहत्या पर पाबंदी लगाना आज न केवल एक धार्मिक आस्था का विषय है बल्कि पर्यावरण का संतुलन बनाये रखने के लिए भी अनिवार्य है। प्राणिमात्र का मंगल चाहने वाले भारतीय संत-महापुरुष तो आदिकाल से गायों का संरक्षण करते-करवाते आये हैं।

अपने व्यक्तिगत स्वार्थ और मति की संकीर्णता को छोड़कर प्रत्येक व्यक्ति को गोवध पर रोक लगे इस हेतु अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार प्रयास अवश्य करने चाहिए और कम-से-कम अपने आसपास के लोगों में तो जागृति लानी ही चाहिए।

यह संदेश सरकार और उच्च पदों पर आसीन सभी अधिकारियों, सांसदों, विधायकों, जिलाधीशों एवं न्यायपालिका को पढ़ाना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2016, पृष्ठ संख्या 29 अंक 278

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