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शिव का रूप देता अनुपम संदेश


‘शिव’ माना कल्याणस्वरूप। भगवान शिव तो हैं ही प्राणिमात्र के परम हितैषी, परम कल्याणकारक लेकिन उनका बाह्य रूप भी मानवमात्र को मार्गदर्शन प्रदान करने वाला है।

शिवजी का निवास हिमालय का कैलास पर्वत बताया गया है। ज्ञानी की स्थिति ऊँची होती है, हृदय में शांति व विशालता होती है। ज्ञान हमेशा ऊँचे केन्द्रों में रहता है। आपके चित्त में भी यदि कभी काम आ जाय तो आप भी ऊँचे केन्द्रों में आ जाओ ताकि वहाँ काम की दाल न गल सके।

शिवजी की जटाओं से गंगा जी निकलती हैं अर्थात् ज्ञानी के मस्तिष्क में से ज्ञान की गंगा बहती है। उनमें तमाम प्रकार की ऐसी योग्यताएँ होती हैं, जिनसे जटिल-से-जटिल समस्याओं का भी समाधान अत्यंत सरसता से हो जाता है। शिवजी ने दूज का चाँद अपनी जटाओं में लगाया है। दूज का चाँद विकास का सूचक है अथवा तो दूसरे का छोटा-सा गुण भी ज्ञानवान स्वीकार कर लेते हैं, इतने उदार होते हैं – ऐसा संदेश देता है।

शिवजी ‘नीलकण्ठ’ कहलाते हैं। जो महान हैं वे विघ्न-बाधाओं को, दूसरों के विघ्नों को अपने कंठ में रख लेते हैं। न पेट में उतारते हैं, न बाहर फैलाते हैं। शिवजी महादेव हैं, भोलों के नाथ हैं। अमृत देवों ने ले लिया है। उसमें उच्चैःश्रवा घोड़ा, ऐरावत हाथी आदि इन्द्र ने रखा है लेकिन जब हलाहल विष आया है तो शिवजी उसको कंठ में रख लेते हैं। कुटुम्ब में, समाज में भी जो बड़ा है, उसके पास जो सुख सुविधाएँ हैं, उनका वह खुद के लिए नहीं बल्कि कुटुम्बियों और समाज के लिए, परहित के लिए उपयोग करे। अगर विघ्न-बाधा है, हलाहल पीने  का मौका  आता है तो आप आगे चले जाइये, आपमें नीलकंठ जैसे गुण आने लगेंगे। यश या मान का मौका आता है तो दूसरों को आगे कर दीजिये लेकिन सेवा का मौका आता है तो अपने को आगे रख दीजिये, आपमें अनुपम समता आने लगेगी।

भगवान साम्बसदाशिव आदिगुरु हैं ज्ञान की परम्परा, ब्रह्मविद्या की परम्परा चलाने में। ऐसे भगवान साम्बसदाशिव को प्रसन्न करने के लिए महाशिवरात्रि को शिवमंदिर में आराधना करना ठीक है, अच्छा है लेकिन मौका पाकर एकांत में मानसिक शिव-पूजन करते-करते, उनको प्यार करते-करते इतना जरूर कहना है कि ‘हे भोलानाथ ! हमें बाह्य आकर्षण और बाह्य पदार्थ खींचने लगें तो तुरंत तुम्हारी मंगलमयी परम छवि को, परम कृपा को याद करके हम अंतर्मुख होकर अपने शिव-तत्त्व में डूबा करें।’

संकर सहज सरूपु सम्हारा।

लागि समाधि अखंड अपारा।। श्री रामचरित. बा. कां. 57.4

पार्वती जी ने राम की परीक्षा लेनी चाही और शिवजी के आगे आकर वर्णन करने में थोड़ा इधर-उधर कहा। शिवजी ने देखा कि ‘संसार में और बाहर कुछ-न-कुछ विघ्न और खटपट होते ही रहते हैं।’ शिवजी ने तुरंत अपने आत्मस्वरूप की स्मृति की और अखंड, अपार समाधि में स्थित हुए। ऐसे समाधिनिष्ठ महापुरुष भगवान चन्द्रशेखर का इस पर्व पर खूब भावपूर्ण चिंतन, पूजन करते-करते समाहित (एकतान, शांत) होने का सुअवसर पाना।

शिवजी के पास सर्जन और विध्वंस-दोनों का मूल तत्त्व सदा छलकता रहता है। हमारी संस्कृति की यह विशेषता रही है कि विध्वंसक देवता का सर्जन प्रतीक रख दिया शिवलिंग ! जैसे फूल और काँटे एक ही मूल में से आते हैं, ऐसे ही सर्जनात्मक और विध्वंसक शक्तियाँ एक ही मूल में हैं। जीवन और मृत्यु उसी मूल में हो रहा है, सुख और दुःख उसी मूल का खिलवाड़ है। मान और अपमान उसी साक्षी में हो रहा है. उसी साक्षी की सत्ता में दिख रहा है ! यह सनातन धर्म का रहस्य समझाने की बड़ी उदार प्रक्रिया है, बहुत सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम – सर्वोपरि तत्त्वज्ञान है।

यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते।

(‘हे अर्जुन !,) जिसको जानकर संसार में फिर और कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रह जाता।’ (गीताः 7.2)

जिसको पाने के बाद और कुछ पाना बाकी नहीं रहता और जिस लाभ से बड़ा कोई लाभ नहीं है, ऐसा यह आत्मलाभ प्राप्त करने के लिए महाशिवरात्रि का मौका बड़ा सहायक होगा।

हो सके तो उस दिन फल और दूध पर रहें। फलादि लेते हैं तो भी सात्त्विक और मर्यादित लें, इससे प्राणशक्ति ऊपर के केन्द्रों में चलेगी। हो सके तो महाशिवरात्रि के दिन मौन-व्रत ले लें।

सबसे बड़ी पूजा-मानस पूजा

देवो भूत्वा देवं यजेत्। शिव होकर शिव की पूजा करो। साधक कहता है कि ‘हे भोलेनाथ ! हे चिदानंद !” मैं कौन सी सामग्री से तेरा पूजन करूँ ? मैं किन चीजों को तेरे चरणों में चढ़ाऊँ ? छोटी-छोटी पूजा की सामग्री तो सब चढ़ाते हैं, मैं मेरे मन और बुद्धि को ही तुझे चढ़ा रहा हूँ ! बिल्वपत्र लोग चढ़ाते हैं लेकिन तीन बिल्वपत्र अर्थात् तीन गुण (सत्व, रज, और तम) जो शिव पर चढ़ा देते हैं, वे शिव को बहुत प्यारे हो जाते हैं। दूध और दही से अर्घ्य-पाद्य पूजन तो बहुत लोग करते हैं किंतु मैं तो तेरे मन और बुद्धि से ही तेरा अर्घ्य-पाद्य कर लूँ। घी-तेल का दीया तो कई लोग जलाते हैं लेकिन हे भोलेनाथ ! ज्ञान की आँख से देखना, ज्ञान का दीया जलाना वास्तविक दीया जलाना है। हे शिव ! अब आप समझ का दीया जगा दीजिये ताकि हम इन नश्वर देह में समझदारी से रहें। पंचामृत से आपका पूजन होता है। बाहर का पंचामृत तो रूपयों पैसों से बनता है लेकिन भीतर का पंचामृत तो भावनामात्र से बन जाता है। अपनी पाँच ज्ञानेन्द्रियों तेरी सत्ता से सँचालित हैं ऐसा समझकर मैं तुझे पंचामृत से स्नान कराता हूँ। तेरे मंदिर में घंटनाद होता है। अब घंटनाद तो ताँबे-पीतल के घंट से बहुत लोग करते हैं, मैं तो शिवनाद और ॐनाद का ही घंटनाद करता हूँ। हमको भगवान शिव ज्ञान के नेत्रों से निहार रहे हैं। हम पर आज भगवान भोलेनाथ अत्यंत प्रसन्न हैं।’

दृढ़ संकल्प करें कि ‘मेरे मन की चंचलता घट रही है, मुझ पर शिव-तत्त्व की, महाशिवरात्रि की और सत्संग की कृपा हो रही है। हे मन ! तेरी चंचलता अब तू छोड़। राजा जनक ने, संत कबीर जी ने जैसे अपने आत्मदेव में विश्रांति पायी थी, श्रीकृष्ण की करुणा और कृपा से जैसे अर्जुन अपने-आप में शांत हो गया, अपने आत्मा में जग गया, उसी प्रकार मैं अपने आत्मा में शांत हो रहा हूँ, अपने ज्ञानस्वरूप, साक्षी-द्रष्टास्वरूप में जग रहा हूँ।’ इससे तुम्हारा मन देह की वृत्ति से हटकर अंतर्मुख हो जायेगा। यह चौरासी लाख योनियों के लाखों-लाखों चक्करों के जंजाल से मुक्ति का फल देने वाली महाशिवरात्रि हो सकती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2016, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 278

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श्रद्धा की साक्षात मूर्ति


सदगुरु ही शिष्य को सही मार्ग दिखाते हैं एवं उस पर चलने की शक्ति देते हैं। सदगुरु ही मार्ग के अवरोध बताते हैं तथा उनको दूर करने के उपाय बताते हैं। गुरु ही शिष्य की योग्यताओं को, शिष्य के अंदर छुपी अनंत सम्भावनाओं को जानते हैं।

देवर्षि नारदजी ने पार्वती जी के बारे में कहा थाः “यह कन्या सब गुणों की खान है। यह सारे जगत में पूज्य होगी। इसका पति योगी, जटाधारी, निष्काम-हृदय और अमंगल वेशवाला होगा।”

पार्वती जी के माता-पिता दुःखी हो गये। पार्वती जी के पिता ने नारद जी से पूछाः “हे नाथ ! अब क्या उपाय किया जाये ?”

नारदजी बोलेः “उमा को वर तो वैसा ही मिलेगा जैसा मैंने बताया है परंतु मैंने जो लक्षण बतायें हैं, मेरे अनुमान से वे सभी शिवजी में हैं। यद्यपि संसार में वर अनेक हैं पर पार्वती के लिए शिवजी को छोड़कर कोई योग्य वर नहीं है। शिवजी समर्थ हैं क्योंकि वे भगवान हैं। तप करने से वे बहुत जल्दी संतुष्ट हो जाते है। यदि तुम्हारी कन्या तप करे तो शिवजी होनहार को मिटा सकते हैं।”

कुछ समय बीतने पर पार्वती जी ने तपस्या शुरु की। शिवजी ने सप्तऋषियों को उनके पास परीक्षा लेने हेतु भेजा। सप्तऋषियों ने कहाः “नारद का उपदेश सुनकर आज तक किसका घर बसा ? दक्ष के पुत्रों को उपदेश दिया तो उन्होंने फिर लौटकर घर का मुँह भी नहीं देखा। नारद ने ही हिरण्यकशिपु का घर चौपट किया। जो भी नारद की सीख सुनते हैं वे घर छोड़कर अवश्य ही भिखारी हो जाते हैं। उनके वचनों पर विश्वास कर तुम ऐसा पति चाहती हो  जो स्वभाव से ही उदासीन, गुणहीन, निर्लज्ज, बुरे वेश वाला, नर-कपालों की माला पहनने वाला, कुलहीन, बिना घर का और शरीर पर साँपों को लपेटे रखने वाला है ? ऐसे वर के मिलने से तुम्हें क्या सुख होगा ? तुम उस ठग के बहकावे में आकर खूब भूलीं। पहले शिवजी ने सती से विवाह किया था परंतु फिर उसे त्याग कर मरवा डाला। अब वे भीख माँग कर खा लेते हैं और सुख से सो लेते हैं। ऐसे स्वभाव से ही अकेले रहने वालों के घर भी भला क्या कभी स्त्रियाँ टिक सकती हैं ? हमारा कहा मानों, हमने तुम्हारे लिए अच्छा वर विचारा है। वह बहुत ही सुन्दर, पवित्र, सुखदायक और सुशील है, जिसका यश और लीला वेद गाते हैं। वह दोषों से रहित, सारे सदगुणों की राशि, लक्ष्मी का स्वामी और वैकुंठपुरी का रहने वाला है। हम ऐसे वर को तुमसे मिला देंगे।”

पार्वती जी ने कहाः “मैं नारद जी के वचनों को नहीं छोड़ूँगी, चाहे घर बसे या उजड़े – इससे मैं नहीं डरती। जिसको गुरु के वचनों में विश्वास नहीं है, उसको सुख और सिद्धि स्वप्न में भी सुगम नहीं होती।

गुर के बचन प्रतीति न जेहि। सपनेहूँ सुगम न सुख सिधि तेही।

“मेरा तो करोड़ जन्मों तक यही हठ रहेगा कि या तो शिवजी को वरूँगी, नहीं तो कुँवारी ही रहूँगी। स्वयं शिवजी सौ बार कहें तो भी नारद जी के उपदेश को न छोड़ूँगी।”

तजउँ न नारद कर उपदेसू। आपू कहहिं सत बार महेसू।। (श्री राम चरित. बा. कां.)

नारद जी के वचनों में दृढ़ श्रद्धा-विश्वास व अपने स्वानुभव के प्रताप से पार्वती जी ने नारद जी के प्रति रंचमात्र भी संशय को अपने मन में फटकने नहीं दिया। शिवजी के पास जाकर सप्तर्षियों ने सारी कथा सुनायी। पार्वती जी का ऐसा प्रेम तथा गुरु के प्रति अटूट श्रद्धा देख शिवजी ध्यानस्थ हो गये। जब शिवजी ने कामदेव को भस्म किया, तब पुनः सप्तर्षि पार्वती जी के पास जाकर बोलेः “तुमने हमारी बात नहीं सुनी। अब तो तुम्हारा प्रण झूठा हो गया क्योंकि शिवजी ने  कामदेव को ही भस्म कर डाला।”

पार्वती जी मुस्कराकर बोलीं- “हे मुनिवरो ! आपकी समझ में शिवजी ने कामदेव को अब जलाया है, अब तक तो वे विकारयुक्त ही रहे ! किंतु हमारी समझ में शिवजी सदा से ही योगी, अजन्मे, अनिंद्य, कामरहित व भोगहीन हैं और यदि मैंने शिवजी को ऐसा समझकर ही मन, वचन और कर्म से प्रेमसहित उनकी सेवा की है तो वे कृपानिधान भगवान मेरी प्रतिज्ञा को सत्य करेंगे।” और अंततः पार्वती जी ने शिवजी को पा लिया।

पार्वती जी अपने जीवन से सीख दी है कि शिष्य का अपने गुरु के प्रति विश्वास तथा अपने लक्ष्य (ईश्वरप्राप्ति) पर अडिगता कैसी होनी चाहिए। अपने गुरु के प्रति ऐसा दृढ़ विश्वास होना चाहिए क ‘मेरे गुरु शिवस्वरूप हैं, ब्रह्मस्वरूप हैं, साक्षात् अचल ब्रह्म हैं। वे ही मुझे पार लगाने वाले हैं, वे ही तारक और उद्धारक हैं।’ पार्वती जी ने हमें यह सीख दी है कि अगर सप्तर्षि जैसे महान व्यक्ति भी हमारे सदगुरु के बारे में कुछ गलत कहें तो उनकी बात को भी अस्वीकार कर देना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2016, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 277

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शिवत्व की विशेष प्रसन्नता पाने का पर्वः महाशिवरात्रि


पूज्य बापू जी

(महाशिवरात्रिः 27 फरवरी 2014)

भगवान शिव कहते हैं-

न स्नानेन न वस्त्रेण न धूपेन न चार्चया।

तुष्यामि न तथा पुष्पैर्यथा तत्रोपवासतः।।

‘हे पार्वती ! महाशिवरात्रि के दिन जो उपवास करता है वह निश्चय ही मुझे संतुष्ट करता है। उस दिन उपवास करने पर मैं जैसा प्रसन्न होता हूँ, वैसा स्नान, वस्त्र, धूप और पुष्प अर्पण करने भी नहीं होता।’

उत्तम उपवास कौन सा ?

‘उप’ माने समीप ‘वास’ करना, अपनी आत्मा के समीप जाने की व्यवस्था बोलते हैं ‘उपवास’। भगवान जितना उपवास से प्रसन्न होते हैं उतना स्नान, वस्त्र, धूप-पुष्प आदि से प्रसन्न नहीं होते।

उप समीपे यो वासो जीवात्मपरमात्मनोः।

‘जीवात्मा का परमात्मा के निकट वास ही उपवास है।’ जप-ध्यान, स्नान, कथा-श्रवण आदि पवित्र सदगुणों के साथ हमारी वृत्ति का वास ही ‘उपवास’ है। ऐसा नहीं कि अनाज नहीं खाया और शकरकंद का सीरा खा लिया और बोले, ‘उपवास है।’ यह उपवास का बिल्कुल निम्न स्वरूप है। उपवास का उत्तम स्वरूप है कि आत्मा के समीप जीवात्मा का वास हो। मध्यम उपवास है कि हफ्ते में एक बार और ऐसे पवित्र दिनों-पर्वों के समय अन्न और भूनी हुई वस्तुओं का त्याग करके केवल जरा सा फल आदि लेकर नाड़ियों की शुद्धि करके ध्यान-भजन करें, यह दूसरे  नम्बर का उपवास है। तीसरे नम्बर का उपवास है कि ‘चलो, रोटी-सब्जी छोड़ो तो राजगिरे के आटे की कढ़ी, साबुदाने की खिचड़ी और सिंघाड़े के आटे का हलुआ खाओ।’ रोज जितना खाते थे और जठरा को जितनी मेहनत करनी पड़ती थी, उससे भी ज्यादा व्रत के दिन मेहनत करनी पड़ती है। यह उपवास नहीं हुआ, मुसीबत मोल ले ली। अथवा तो कुछ लोग उपवास के दिन कुछ नहीं खाते, ‘चलो जल ही पियेंगे।’ और दूसरे दिन फिर पारणा करते हैं तो लड्डू खाते हैं, पेट एकदम साफ होगा और फिर एकदम भारी खुराक ! जैसे गाड़ी एकदम बंद और फिर चालू करके चौथे गियर में डाल दी तो क्या हाल हो जायेगा ? उपवास करने की कला, रीत जान लें और शिवरात्र मनाने की कला सीख लें।

महान बनने का अवसरः महाशिवरत्रि का व्रत-तप

महाशिवरात्र माने कल्याण करने वाली रात्रि, मंगलकारी रात। फाल्गुन कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी शिवरात्रि है, कल्याणकारी रात्रि है। यह तपस्या का पर्व है।

शिवस्य प्रिया रात्रिर्यस्मिन् व्रते अंगत्वेन विहिता तद् व्रतं शिवरात्र्याख्यम्।

शिवजी को जो प्रिय है ऐसी रात्रि, सुख-शांति-माधुर्य देने वाली, शिव की वह आनंदमयी, प्रिय रात्रि जिसके साथ व्रत का विशेष संबंध है, वह है शिवरात्रि और वह व्रत शिवरात्रि का व्रत कहलाता है। जीवन में अगर कोई-न-कोई व्रत नहीं रखा तो जीवन में दृढ़ता नहीं आयेगी, दक्षता नहीं आयेगी, अपने-आप पर श्रद्धा नहीं बैठेगी और सत्यस्वरूप आत्मा-परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती है। ‘यजुर्वेद’ में आता हैः

व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम्।

दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते।।

तो यह शिवरात्र जैसा पवित्र व्रत आपके मन को पुष्ट व पवित्र करने के लिए, मजबूत करने के लिए आता है। आपको महान बनने का अवसर देता है।

महाशिवरात्रि में रात्रि-पूजन का विधान क्यों ?

महाशिवरात्रि की रात्र को चार प्रहर की पूजा का विधान है। प्रथम प्रहर की पूजा दूध से, दूसरी दही से, तीसरी घी से और चौथी शहद से सम्पन्न होती है। इसका भी अपना प्राकृतिक और मनोवैज्ञानिक रहस्य है। हमारी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक – चारों स्थितियाँ उन्नत हों इसलिए पूजा  का ऐसा विधान किया गया।

इस महाशिवरात्रि के व्रत में रात ही पूजन क्यों ? यह पूजन रात्र में इसलिए है क्योंकि एक ऋतु पूरी होती है और दूसरी ऋतु शुरु होती है। जैसे सृष्टिचक्र में सृष्टि की उत्पत्ति के बाद नाश और नाश के बाद उत्पत्ति है, ऐसे ही ऋतुचक्र में भी एक के बाद एक ऋतु आती रहती है। एक ऋतु का जाना और नयी ऋतु  आरम्भ होना – इसके बीच का काल यह मध्य दशा है। (महाशिवरात्रि शिशिर और वसंत ऋतुओं की मध्य दशा में आती है।) इस मध्य दशा में अगर जाग्रत रह जायें तो उत्पत्ति और प्रलय के अधिष्ठान में बैठने की, उस अधिष्ठान में  विश्रांति पाने की, आत्मा में विश्रांति पाने की व्यवस्था अच्छी जमती है। इसलिए इस तिथि की रात्र ‘महाशिवरात्र’ कही गयी है।

वैसे कई उपासक हर मास शिवरात्रि मनाते हैं, पूजा-उपासना करते हैं लेकिन बारह मास में एक शिवरात्रि है जिसको महाशिवरात्रि, अहोरात्रि भी कहते हैं। जन्माष्टमी, नरक चतुर्दशी, शिवरात्र और होली, ये चारों महारात्रियाँ हैं। इनमें किया गया जप-तप-ध्यान अनंत गुना फल देता है।

शिवपूजा का तात्त्विक रहस्य

ऋषियों ने, संतों ने बताया है कि बिल्वपत्र का गुण है कि वह वायु की बीमारियों को हटाता है और बिल्वपत्र चढ़ाने के साथ रजोगुण, तमोगुण व सत्त्वगुण का अहं अर्पण करते हैं। पंचामृत मतलब पाँच भूतों से जो कुछ मिला है वह आत्मा परमात्मा के प्रसाद से है, उसको प्रसादरूप में ग्रहण करना। और महादेव की आरती करते हैं अर्थात् प्रकाश में जीना। धूप-दीप करते हैं अर्थात् अपने सुंदर स्वभाव  सुवास फैलाना।

शिवजी त्रिशूल धारण करते हैं। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति ये तीनों शूल देते हैं। जाग्रत में चिंता, स्वप्न में अटपटी सी स्वप्नसृष्टि और गहरी नींद (सुषुप्ति) में अज्ञानता – इन तीनों शूलों से पार करने वाली महाशिवरात्रि है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति बदल जाती है फिर भी जो नहीं बदलता, उस आत्मा में आने की रीत बितानेवाला शिवरात्रि का जो सत्संग मिल रहा है, उससे जीव तीन गुणों से पार हो जाता है।

महाशिवरात्रि पूजन का उद्देश्य

वेद परमात्मा के विषय में ‘नेति-नेति’ कहते हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश – ये नहीं, ये प्रकृति हैं, इनसे परे जो है वह परमात्मा है। उस परमात्मा में यह जीवात्मा विश्रांति पाये, उस पूजा-विधि  की व्यवस्था और विशेष रूप से फले ऐसा दिन ऋषियों ने चुना और वह दिन है महाशिवरात्रि का।

इस शिवरात्रि की एक कथा प्रचलित है कि एक व्याध दिनभर भटकता रहा, शिकार नहीं  मिला। रात्रि में उसके पास जो  पानी का लोटा था उसे भर के वह किसी जलाशय के किनारे बेलवृक्ष पर बैठ गया। एक प्रहर में एक हिरण आया, दूसरे प्रहर में दूसरा, तीसरे प्रहर में तीसरा और चौथे प्रहर में चौथा हिरण आया लेकिन जब भी वह शिकार करने की तैयारी करता और हिरण के द्वारा दया-याचना होती तो वह उनको क्षमा करता गया और ‘अच्छा, फिर आना….’ ऐसा कहता गया। उसके हिलने डुलने से जाने अनजाने पानी के लोटे को हाथ लगता, पानी  की दो बूँदें वृक्ष के नीचे स्थित शिवलिंग पर गिरतीं और ऐसे ही बैठे-बैठे बिल्वपत्र तोड़ता था, वे बिल्वपत्र नीचे (शिवलिंग पर) गिरते जाते थे। संयोगवश वह महाशिवरात्रि का दिन था। अनजाने में उसकी शिवपूजा हुई और भगवान शिव प्रसन्न हुए तो दूसरे जन्म में वह बड़ा सम्राट हुआ, ऐसी कथा भी आती है।

कहने का तात्पर्य यह है कि अनजाने में भी अगर पुण्यमय तिथि का जागरण हो जाता है, त्याग हो जाता है और दूसरे के दुःख में आप थोड़ा अपने स्वार्थ को छोड़ देते हैं तो आप सम्राट बनने के योग्य हो जाते हैं। लेकिन सम्राट बनना ही जीवन का लक्ष्य नहीं है। सम्राट पद भोगकर भी गिरना पड़ता है। अगर उस व्याध को की संत मिल जाते तो उस महाशिवरात्रि की पूजा का फल दूसरे जन्म में सम्राट बनने तक सीमित नहीं होता। शिवजी जिस परमात्मा में विश्रान्ति पाकर शिवतत्त्व में निमग्न रहते हैं, मनुष्यमात्र अपने ऐसे स्वाभाविक शिवतत्त्व में मग्न रहने का अधिकारी है। इसी जन्म में उस तत्त्व का साक्षात्कार कर लें।

जिस पुत्र-परिवार और मेरे तेरे में हम लोग जगते हैं (सतर्क एवं रचे-पचे रहते हैं) उससे शिवजी बेपरवाह हैं और जिस शिवतत्त्व से हम बेपरवाह हैं उसमें शिवजी सदा निमग्न रहते हैं। पार्वती जी जा रही हैं  मायके लेकिन  शिवजी तेरे मेरे में नहीं अटके।

संकर सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा।।

जो सहज स्वरूप में निमग्न रहते हैं ऐसे परमात्म-शिव की जो उपासना, आराधना करता है उसकी  मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं लेकिन जीवन मनोकामना पूर्ण करने के लिए नहीं है। असली जीवन तो मन की तुच्छ कामनाएँ निवृत्त करके मन की कामनाएँ जहाँ से पूर्ण और अपूर्ण दिखती हैं, उस जीवनददाता को पहचानने के लिए है, ‘मैं’ रूप में जानने के लिए है, साक्षात्कार करने के लिए है। ऐसा ज्ञान अगर गुरुओं के द्वारा मिल जाय और हम पचा लें तो हमें एकाध शिवरात्रि पर्याप्त हो जायेगी शिवतत्त्व  में जगने के लिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2014, पृष्ठ संख्या 11-13, अंक 254

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