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महाशिवरात्रि के निमित्त पूज्य बापूजी के उत्तम स्वास्थ्य हेतु महामृत्यंजय मंत्र का सामुहिक जपानुष्ठान


इस वर्ष भी पूज्य गुरुदेव के उत्तम स्वास्थ्य, दीर्घ आयु व शीघ्र कारागार रिहाई के निमित्त साधकों के द्वारा 18 से 24 फरवरी (महाशिवरात्रि) तक

धर्मराज मंत्र व महामृत्युंजय मंत्र का जपानुष्ठान करने का आयोजन किया जा रहा है ।

सभी साधक नीचे दिये गये संकल्प का विनियोग करके प्रतिदिन धर्मराज मंत्र की 2 माला तथा महामृत्युंजय मंत्र की 1 माला सुबह 7:30 बजे से जप करें ।

संभव हो तो स्थानीय आश्रमों में, सत्संग भवन में अथवा किसी साधक के घर में सामुहिकररूप से जप करें ।

यदि संभव ना हो तो प्रत्येक साधक अपने-अपने घर पर भी कर सकते हैं ।

यदि सुबह 7:30 बजे जप न कर सकें तो दिन में कभी भी कर सकते हैं ।

इन दिनों में हो सके तो अनुष्ठान के नियमों का यथासंभव पालन करें ।

आश्रम से प्रकाशित ‘मंत्रजाप महिमा एवं अनुष्ठान विधि’ पुस्तक का सहयोग ले सकते हैं ।

उत्तम स्वास्थ्य प्रदायक एवं समस्त आपत्ति विनाशक धर्मराज मंत्र

विनियोग : अस्य श्री धर्मराज मन्त्रस्य वामदेव ऋषिः गायत्री छन्दः शमन देवता अस्माकं

सद् गुरु देवस्य संत श्री आशारामजी महाराजस्य

उत्तम स्वास्थ्यर्थे सकल आपद् विनाशनार्थे च जपे विनियोगः ।

धर्मराज मंत्र :- ॐ क्रौं ह्रीं आं वैवस्वताय धर्मराजाय भक्तानुग्रहकृते नमः ।

महामृत्युंजय मंत्र विनियोग :- ॐ अस्य श्री महामृत्युंजय मंत्रस्य वशिष्ठ ऋषिः

अनुष्टुप् छंदः श्री महामृत्युंजय रुद्रो देवता, हौं बीजं, जूँ शक्तिः, सः कीलकम्,

श्री आशारामजी सदगुरुदेवस्य आयुः आरोग्यः यशः कीर्तिः पुष्टिः वृद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ।

मंत्र : ॐ हौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ।। ॐ स्वः भुवः भूः ॐ सः जूं हौं ॐ

इस जपानुष्ठान में भाग लेने के इच्छुक साधक रजिस्ट्रेशन अवश्य करें तथा औरों से भी करवायें ।

इस हेतु मोबाइल द्वारा https://goo.gl/1ZYDDz इस लिंक पर भी ऑनलाईन रजिस्ट्रेशन करें

अथवा0120-3890346 नंबर पर मिस कॉल करके भी रजिस्ट्रेशन कर सकते हैं ।

मनोवांछित फल देनेवाली रात्रि : महाशिवरात्रि


(महाशिवरात्रि : २४ फरवरी)
महाशिवरात्रि साधना का परम दुर्लभ योग है, जिसमें उपवास व रात्रि-जागरण कर उपासना करनेवाले पर भगवत्कृपा बरसती है । ‘शिव पुराण’ में आता है कि ‘महाशिवरात्रि का व्रत करोडों हत्याओं के पाप का नाश करनेवाला है ।
‘ईशान संहिता’ में आता है :
माघकृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि ।
शिवलिङ्गतयोद्भूतः कोटिसूर्यसमप्रभः ।।
‘माघ मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की महानिशा में करोडों सूर्यों के तुल्य कांतिवाले लिंगरूप आदिदेव शिव प्रकट हुए ।
‘शिव’ अर्थात् कल्याणकारी और ‘लिंग’ अर्थात् मूर्ति । शिवलिंग यानी कल्याणकारी परमात्मा का प्रतीक । इस दिन शिवभक्त मिट्टी के घडे में पानी भरकर उसमें आक, धतूरे के फूल, बेलपत्ते, दूध, चावल और बेर डालकर शिवलिंग पर चढाते हैं ।
महाशिवरात्रि महादेव-आत्मशिव का ज्ञान पाने व उसमें विश्रांति पाने की रात्रि है । ऐसे में तमस, तंद्रा एवं नींद कहाँ ! महाशिवरात्रि ऐसा महोत्सव है जिसमें आत्मबोध पाना होता है कि हम भी आत्मशिव हैं ।
महाशिवरात्रि का हार्द
महाशिवरात्रि को रात्रि-जागरण व उपवास करने के पीछे एक तात्त्विक कारण है । शिवजी संहार के देवता हैं, तमोगुण के अधिष्ठाता हैं इसलिए स्वाभाविक है कि उनकी उपासना हेतु रात्रि का समय अधिक अनुकूल है । रात्रि संहारकाल की प्रतिनिधि है । रात्रि का आगमन होते ही सबसे पहले प्रकाश का संहार होता है । पशु-पक्षी, मानव आदि सभी जीवों की कर्मचेष्टा का संहार होता है । निद्रा के अधीन हुआ मनुष्य सब होश भूल जाता है और उस संहारिणी रात्रि की गोद में अचेतन होकर पडा रहता है । इसलिए निर्विकल्प समाधि में निमग्न रहनेवाले शिवजी की आराधना के लिए जीव-जगत की निश्चेष्ट अवस्थावाली रात्रि का समय ही उचित है ।
‘शिव पुराण’ में आता है कि रात्रि के प्रथम प्रहर में गुरुमंत्र का अर्थसहित जप विशेष फलदायी है । गुरुप्रदत्त मंत्र न हो तो ‘ॐ नमः शिवाय’ मंत्र का जप करना चाहिए । दूसरे प्रहर में प्रथम प्रहर की अपेक्षा दुगना, तीसरे प्रहर में दूसरे से दुगना और चौथे में तीसरे से दुगना जप करने का विधान है । गुरुमंत्र का जप और उसके अर्थ में शांत होना आत्मशिव की ओर आने का सुगम साधन है ।
उपवास का महत्त्व
अन्न में एक प्रकार की मादकता होती है । यह सभीका अनुभव है कि भोजन के बाद शरीर में आलस्य आता है । इसी प्रकार अन्न में एक प्रकार की पार्थिव शक्ति होती है, जिसका पार्थिव शरीर के साथ संयोग होने पर वह दुगनी हो जाती है, जिसे आधिभौतिक शक्ति कहा जाता है । इस शक्ति की प्रबलता में आध्यात्मिक शक्ति का संचय, जो हम उपासना द्वारा करना चाहते हैं, वह सहज नहीं होता । इस तथ्य का महर्षियों ने अनुभव किया और सम्पूर्ण आध्यात्मिक अनुष्ठानों में उपवास को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया । श्रीमद्भगवद्गीता (२.५९) में आता है :
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
इसके अनुसार उपवास विषय-निवृत्ति का एक महत्त्वपूर्ण साधन है क्योंकि पेट में अन्न जाने के बाद ही संसार के विषयभोग में मन जाता है । खाली पेट संसार में घूमने-फिरने की, सिनेमा, नाटक आदि देखने की रुचि ही नहीं होती । अतः आध्यात्मिक शक्ति-संचय हेतु यथायोग्य उपवास आवश्यक है ।
पूज्य बापूजी कहते हैं…
महाशिवरात्रि महोत्सव व्रत-उपवास एवं तपस्या का दिन है । दूसरे महोत्सवों में तो औरों से मिलने की परम्परा है लेकिन यह पर्व अपने अहं को मिटाकर लोकेश्वर से मिल भगवान शिव के अनुभव को अपना अनुभव बनाने के लिए है । मानव में अद्भुत सुख, शांति एवं सामथ्र्य भरा हुआ है । जिस आत्मानुभव में शिवजी परितृप्त एवं संतुष्ट हैं, उस अनुभव को वह अपना अनुभव बना सकता है । अगर उसे शिव-तत्त्व में जागे हुए, आत्मशिव में रमण करनेवाले जीवन्मुक्त महापुरुषों का सत्संग-सान्निध्य मिल जाय, उनका मार्गदर्शन, उनकी अमीमय कृपादृष्टि मिल जाय तो उसकी असली महाशिवरात्रि हो जाय !

तो उस आत्मशिव को पहचानने की जिज्ञासा और सूझबूझ बढ़ जाती है !


महाशिवरात्रिः 24 फरवरी 2017

‘ईशान संहिता’ में आता हैः

माघकृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि।

शिवलिंङ्गतयोद्भूतः कोटिसूर्यसमप्रभः।।

‘माघ (हिन्दी काल गणना के अनुसार फाल्गुन) मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की महानिशा में करोड़ों सूर्यों के तुल्य कांतिवाले लिंगरूप आदिदेव शिव प्रकट हुए।’

जैसे जन्माष्टमी श्रीकृष्ण का जन्मदिन है ऐसे ही महाशिवरात्रि शिवजी (शिवलिंग) का प्राकट्य दिवस है, जन्मदिन है। वैसे देखा जाय तो ब्रह्मा, विष्णु, महेश एक ही अदभुत चैतन्यशक्ति के अवर्णनीय तत्त्व हैं। शास्त्रों में यह भी आता है कि भगवान अजन्मा हैं, निर्विकार, निराकार, शिवस्वरूप हैं, मंगलस्वरूप हैं। उनका कोई आदि नहीं, कोई अंत नहीं। जब वे अजन्मा हैं तो फिर महाशिवरात्रि या जन्माष्टमी को उनका जन्म कैसे ? यह एक तरफ प्रश्न होता है, दूसरी तरफ समाधान मिल जाता हैः

कर्तुं शक्यं अकर्तुं शक्यं अन्यथा कर्तुं शक्यम्।

शिव-तत्त्व कहो, चैतन्य तत्त्व कहो, आत्मतत्त्व कहो, उसकी अदभुत लीला है, जिसका बयान करना बुद्धि का विषय नहीं है। अब बुद्धि जितना नाम-रूप में आसक्त होती है, उतना उलझ जाती है और जितना सत्य के अभिमुख होती है उतना-उतना बुद्धि का विकास होकर परब्रह्म परमात्मा में लीन होती है। सूर्य से हजारों गुना बड़े तारे कैसे गतिमान हो रहे हैं ! एक आकाशगंगा में ऐसे अनंत तारे कैसे नियमबद्ध चाल से चल रहे हैं ! सर्दी के बाद गर्मी और गर्मी के बाद बारिश – ये क्रम और मनुष्य के पेट से मनुष्य तथा भैंस के पेट से भैंस की ही संतानें जन्मती हैं – यह जो नियमबद्धता अनंत-अनंत जीवों में है और अनंत-अनंत चेहरों में कोई दो चेहरे पूर्णतः एक जैसे नहीं, यह सब ईश्वर की अदभुत लीला देखकर बुद्धि तड़ाका बोल देती है।

ऐसी कोई अज्ञात शक्ति है जो सबका नियमन कर रही है और कई पुतलों के द्वारा करा रही है। उसे अज्ञात शक्ति कहो या ईश्वरीय शक्ति, आदिशक्ति कहो।

कैसे हुआ शिवलिंग का प्राकट्य ?

‘शिव पुराण’ की कथा है कि ब्रह्मा जी ने ऐसी अदभुत सृष्टि की रचना की और विष्णु जी ने पालन का भार उठाया। एक समय दोनों देवों को क्या हुआ कि हम दोनों में श्रेष्ठ कौन ? सृष्टिकर्ता बड़ा कि पालन करने वाला बड़ा ? दोनों में गज-ग्राह युद्ध, बौद्धिक खिंचाव शुरु हुआ।

इतने में एक अदभुत लिंग प्रकट हुआ, जो आकाश और पाताल की तरफ बढ़ा। उसमें से आदेश आया कि ‘हे देवो ! जो इसका अंत पाकर जल्दी आयेगा वह दोनों में से बड़ा होगा।’

ब्रह्मा जी आकाश की ओर और विष्णु जी पाताल की ओर चले लेकिन उस अदभुत तत्त्व का कोई आदि-अंत न था। इसी तत्त्व को तत्त्ववेत्ताओं ने कहा कि ‘यह परमात्मा, शिव तत्त्व अनंत, अनादि है।’

अनंत, अनादि माना उसका कोई अंत और आदि नहीं। आत्मसाक्षात्कार करने के बाद भी उसका कोई छोर पा ले…. नहीं, बुद्धि उसमें लीन हो जाती है परंतु ‘परमात्मा इतना बड़ा है’ ऐसा नहीं कह सकती।

आखिर दोनों देव हारे, थके…. दोनों के बड़प्पन ढीले हो गये। अब स्तुति करने लगे। दो महाशक्तियों में संघर्ष हो रहा था, उस संघर्ष को शिवलिंग ने एक दूसरे के सहयोग में परिणत कर दिया। सृष्टि में उथल-पुथल होने की घटनाओं को घटित होने से रोकने, प्राणिमात्र को बचाने की जो घड़ियाँ, जो मंगलकारी, कल्याणकारी रात्रि थी, उसको ‘महाशिवरात्रि’ कहते हैं। इस रात्रि को भक्तिभाव से जागरण किया जाय तो अमिट फल होता है।

पूजा के प्रकार व महाशिवरात्रि का महाफल

इस दिन शिवजी को फूल या बिल्वपत्र चढ़ाये जाते हैं। जंगल में हो, बियाबान (निर्जन स्थान) में हों, कहीं भी हों, मिट्टी या रेती के शिवजी बना लिये, पत्ते-फूल तोड़ के धर दिये, पानी का छींटा मार दिया, मुँह से ही वाद्य-नाद कर दिया, बैंड-बाजे की जरूरत नहीं, शिवजी प्रसन्न हो जाते हैं, अंतःकरण शुद्ध होने लगता है। तो मानना पड़ेगा कि शिवपूजा में वस्तु का मूल्य नहीं है, भावना का मूल्य है। भावे हि विद्यते देवः।

शिवजी की प्रारम्भिक आराधना होती है पत्र-पुष्प, पंचामृत आदि से। पूजा का दूसरा ऊँचा चरण है कि शिवपूजा मानसिक की जाय – ‘जो मैं खाता पीता हूँ वह आपको भोग लगाता हूँ। जो चलता फिरता हूँ वह आपकी प्रदक्षिणा है और जो-जो कर्म करता हूँ, हे शिवजी ! आपको अर्पित है।’

जब उस शिव-तत्त्व को चैतन्य वपु, आत्मदेव समझकर, ‘अखिल ब्रह्माण्ड में वह परमात्मा ही साररूप में है, बाकी उसका प्रकृति-विलास है, नाम और रूप उसकी माया है’ – ऐसा समझ के नीति के अनुसार जो कुछ व्यवहार किया जाय और अपना कर्तापन बाधित हो जाय तो उस योगी को खुली आँख समाधि का सुख मिलता है। आँख खुली होते हुए भी अदृश्य तत्त्व में, निःसंकल्प दशा में वह योगी जग जाता है।

जो स्वर्ण का शिवलिंग बनाकर उसकी पूजा करता है तो 3 पीढ़ी तक उसके यहाँ धन स्थिर रहता है। जो माणिक का बनाकर करता है उसके रोग, दरिद्रता दूर होकर धन और ऐश्वर्य बढ़ता है। इस प्रकार अलग-अलग शिवलिंगों की पूजा करने से अलग-अलग फल की प्राप्ति होती है लेकिन उन सबसे महाफल यह है कि जीव शिव-तत्त्व को प्राप्त हो जाय।

शिव-तत्त्व को पाने के लिए हम तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु। नश्वर चीज का संकल्प नहीं लेकिन शिवसंकल्प हो, मंगलकारी संकल्प हो। और मंगलकारी संकल्प यही है कि संकल्प जहाँ से उठते हैं, उस परब्रह्म परमात्मा में हमारी चित्तवृत्तियाँ विश्रांति पायें।

दो महाशक्तियाँ अपने को कर्ता मानकर लड़ें तो संसार का कचूमर हो जाय, इसलिए संसार की दुःख की घड़ी के समय जो सच्चिदानंद निर्गुण, निराकार था, उसने साकार रूप में प्रकट होकर दोनों महाशक्तियों को अपने-अपने कर्तव्य का पालन करने में लगा दिया। तो केवल वे दो महाशक्तियाँ ही शिव की नहीं हैं, हम लोग भी शिव की विभिन्न शक्तियाँ हैं। हमारा रोम-रोम भी शिव-तत्त्व से भरा है। ऐसा कोई जीव नहीं जो शिव तत्त्व से अर्थात् परमात्मा से एक सेकंड भी दूर रह सके। हो सकता है कि 2 सेकंड के लिए मछली को मछुआरा पकड़ के किनारे पर धर दे लेकिन दुनिया में ऐसा कोई पैदा नहीं हुआ जो हमको उठाकर 2 सेकंड के लिए परमात्मा से अलग जगह पर रख दे, हम उस शिव तत्त्व में इतने ओत-प्रोत है। फिर भी अहंकार हमको दूरी का एहसास कराता है जबकि अनंत की लीला में अनंत की सत्ता से सब हो रहा है, हम अपने को कर्ता मानकर उस लीला में विक्षे कर रहे हैं। यदि इस महाशिवरात्रि से लाभान्वित होने का सौभाग्य हमें मिल जाय, इस मंगल रात्रि का हम सदुपयोग कर लें कि ‘ब्रह्मा और विष्णु जैसी शक्तियाँ भी तुम्हारे तत्त्व के आगे नतमस्तक हैं तो हमारा धन, अक्ल, हमारी जानकारी – यह सब भी तो आप ही से स्फुरित हो रहा है। तो भगवान !

मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है तो तोर।

तेरा तुझको देत हैं, क्या लागत है मोर।।

ऐसा करके यदि हम अपना अहं विसर्जित कर सकें तो उस आत्मशिव को पहचानने की जिज्ञासा और सूझबूझ बढ़ जाती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2017, पृष्ठ संख्या 14,15,17 अंक 290

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