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Prerak Prasang

आप भी ऐसे नर रत्न बन सकते हो – पूज्य बापू जी



बाल गंगाधर तिलक 5वीं कक्षा में पढ़ते थे तब की बात हैः एक
बार कक्षा में किसी बच्चे ने मूँगफली खायी और छिलके वहीँ फेंक दिये
। अंग्रेज शासन था, हिन्दुस्तानियों को डाँट-फटकार के, दबा के रखते थे
। मास्टर आया और रूआब मारते हुए बोलाः “किसने मूँगफली खायी ?”
कोई भी लड़का बोला नहीं तो मास्टर ने कहाः “सभी लड़के हाथ
सीधा रखें और इधर आयें ।” और वह 2-2 फुटपहियाँ मारने लगा । सब
बच्चे मार खाने लगे । बाल गंगाधर की बारी आयी, मास्टर बोलाः “हाथ
सीधा करो ।”
तिलकः “मैंने मूँगफली नहीं खायी तो मार भी नहीं खाऊँगा ।”
सब बच्चे देखने लगे कि हमने तो डर के मार खायी और यह
बोलता है कि ‘मैंने मूँगफली नहीं खायी तो मार भी नहीं खाऊँगा’ और
हिम्मत से खड़ा है !’
हिम्मतवाला होना अच्छा है न ?
तो मास्टर गुस्सा हुआ और बाल गंगाधर को डाँटने लगा किंतु वे
मास्टर की डाँट से दबे नहीं । मास्टर ने कहाः “क्यों, डर नहीं लगता ?”
“मैं झूठ बोलता नहीं, मैंने मूँगफली खायी नहीं तो मैं क्यों डरूँगा,
मार क्यों खाऊँगा ?”
“किसने मूँगफली खायी बताओ तो ?”
“मैं चुगली नहीं करता । झूठ बोलने से मन कमजोर होता है,
चुगली खाने से वैर बनता है, ज्यादा बोलने से शक्ति का ह्रास होता है ।
मैं तो सूर्यनारायण को अर्घ्य देता हूँ, तुलकी के पत्ते खाता हूँ । और मेरी
माँ ने मेरे जन्म के पहले सूर्यनारायण की उपासना की थी और वह
इसलिए कि ‘मेरे को तेजस्वी बालक हो, जो अंग्रेजों के जुल्म से लोहा ले

।’ तो मैं तो भारत को आजाद कराने की सेवा में लगने वाला हूँ । मेरी
माँ की जैसी भावना है वैसे ही मेरे अंदर सद्भाव आ रहे हैं । तो मैं काहे
को तुम्हारे आगे दब्बू बनूँगा ?”
“तुम्हारा इतना हिम्मत ! शट् अप ! शट् थर्टी टू ! (अपनी बत्तीसी
बंद करो ! मुँह बंद करो ।)”
बोलेः “हम काहे को बंद करें ? डरता तो वह है जो जुल्म करता है
। हम तो जुल्म करते नहीं तो जुल्मियों से डरेंगे काहे को ?”
तो मास्टर को गुस्सा आया, हाथ पकड़ के स्कूल के बाहर कर
दिया । बाल गंगाधर तिलक ने जाकर अपने पिता को बताया कि ऐसा-
ऐसा हुआ था ।
उनके पिता दूसरे दिन आये, बोलेः “हमारे बेटे ने झूठ बोला नहीं,
मूँगफली खायी नहीं और वह चुगली काहे को खायेगा ? और तुम इसको
दबाना चाहते हो परंतु मेरा बेटा दब्बू नहीं है । जो झुक के बैठते हैं और
माँ-बाप को सताते हैं या माँ-बाप का आशीर्वाद नहीं लेते वे दब्बू बनते हैं
। यह तो अपने माँ-बाप को प्रणाम करता है, शिक्षकों का भी आदर
करता है । लेकिन कोई रूआब मार के जबरदस्ती इससे चुगली कराये तो
इसने चुगली नहीं की, इसमें तो मेरा बेटा निर्दोष है ।”
सारे शिक्षकों ने बात मानी कि ‘बाल गंगाधर तिलक अभी इतना
छोटा – 9 साल का लड़का है फिर भी सारे स्कूल में इसका नाम हो गया
! यह जरूर भारत को आजाद कराने वाले नर-रत्न का काम करेगा ।’
और करके दिखाया बाल गंगाधर तिलक ने । और जो भी अच्छी चीज,
प्यारी चीज लगती थी वह अकेले नहीं खाते थे, बाँट के खाते थे । तो
स्वाद के लोलुप भी नहीं थे, झूठ-कपट भी नहीं करते थे, दब्बू भी नहीं

थे और भगवान को अपना मानते थे व अपने को भगवान का मानते थे

और माँ कहती क “बेटा ! मन, बुद्धि, शरीर ये सभी के अलग-
अलग हैं, चेहरे अलग-अलग है लेकिन सबमें भगवान एक-के-एक हैं ।
आँखें अनेक हैं किंतु देखने की शक्ति एक है, कान अनेक हैं, सुनने के
शब्द अनेक हैं परन्तु सुनने की सत्ता तो सबमें एक है । और वह एक
परमात्मा मेरा है, मैं परमात्मा का हूँ । बेटा ! ऐसा भाव रखा कर ।
‘ॐ… नमः शिवाय…’ ऐसा प्लुत (प्रदीर्घ) उच्चारण करके शांत भाव
से बैठ और जो शिवस्वरूप है, कल्याणस्वरूप है उसमें शांत हो । हरि
ॐ… जो पाप-ताप हर ले और आत्मस्वरूप ‘ॐ’ है उसी का नाम हरि ॐ
है । पाप-ताप हर ले और शांति, माधुर्य व अपना स्वभाव भर दे वह है
हरि ॐ । ॐ गुरु… जो अज्ञान मिटा दें, अंदर का प्रकाश दें और लघु
जीवन से उन्नत जीवन कर दें एवं ॐस्वरूप ईश्वर की जागृति करा दें
ऐसे गुरु का आदर करना ।”
माँ का ऐसा ज्ञान पाकर वह बालक इतना मजबूत बन गया कि
लोग उनका आदर करते थे । अंग्रेज शासन था तो स्कूल में दूसरे बच्चे
तो चड़डी पहन के जाते, कोई पैंट पहन के जाते, कोई टाई पहन के
जाते… जैसा स्कूल होता था उसी के अनुरूप गणवेश (पोशाक) पहनकर
जाते थे । तिलक तो कुर्ता और धोती ही पहन के जाते ।
किसी ने कहाः “ऐसे कपड़े क्यों पहनता है ?”
बोलेः “हमारा देश गर्मी-प्रधान है और खुले (तंग न हो ऐसे) कपड़े
हमारे स्वास्थ्य के लिए अच्छे हैं, सूती या तो ऊनी कपड़े अच्छे हैं ।
कृत्रिम कपड़े स्वास्थ्य के दुश्मन हैं । तो हम ऐसे दिखावटी कपड़े क्यों
पहनेंगे ?”

उस समय आग्रह भी नहीं होता था गणवेश का । तो बाल गंगाधर
अपनी हिन्दुस्तानी पोशाक पहन के जाते थे । तो कई दूसरे लड़के जो
अंग्रेजों के गुलाम थे वे भी फिर हिन्दुस्तानी पोशाक पहनने लगे और
माँ-बाप का आदर करने लगे । बाल गंगाधर तिलक को देखकर कई
लड़कों की बुद्धि अच्छी हो गयी । तुम भी ऐसे बनोगे न ?
आप भी ठान लो !
एक बच्चा भी ठान ले न, तो दुनिया को हिलाने की शक्ति उसके
अंदर छुपी है । जैसे नरेन्द्र ने ठान लिया कि ‘गुरु की कृपा पायेंगे’ तो
रामकृष्ण परमहंस जी की कृपा पा ली और दुनिया को कितना ऊँचा
ज्ञान दिया । हमारे गुरु जी भगवत्पादसाँईं श्री लीलाशाह जी बापू ने
बचपन में परमात्मप्राप्ति का ठान लिया तो दुनियादारी का कितना भला
कर दिया ! मीरा ने ठान लिया तो कितनी महान बन गयी ! आप ठान
लो कि ‘हम तो भगवान का ध्यान करेंगे, भगवान का जप करेंगे,
भगवान हमारे हैं और हम भगवान के हैं ।’ क्रोध आता है – चला जाता
है । उसको देखने वाला भगवान – हमारा आत्मा रहता है, डर आता है –
चला जाता है… तो ये आने-जाने वाले हैं और हमारा आत्मा – भगवान
सदा रहने वाला है । प्रभु से प्रेम करो, ‘क्यों प्रभु ! तुम सदा हो न ! मैं
तुम्हारा हूँ, तुम मेरे हो न !’ फिर ताली बजाते हुए जल्दी-जल्दी भगवान
का नाम लो – हरि ॐॐॐ… तुम सदा हो, मैं भी सदा हूँ, ॐॐॐ…
तुम नित्य हो, मैं भी नित्य हूँ, तुम अमर हो, मैं भी अमर हूँ, ॐॐॐ…
तुम आनंदस्वरूप हो, मैं भी आनंदस्वरूप हूँ, तुम मेरे परमेश्वर हो, मैं
भी आनंद स्व्रूप हूँ, तुम मेरे परमेश्वर हो, मैं तुम्हारा प्रिय पुत्र हूँ,
ॐॐॐ… फिर दोनों हाथ ऊपर करके अहोभाव से भरते हुए हँसो –
हाऽऽहाऽऽहाऽऽऽ….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2023, पृष्ठ संख्या 24,25, 26 अंक 365
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चलता पुरजा चलता ही रहेगा – पूज्य बापू जी



कुछ लोग समझते हैं कि छल-कपट करने वाला व्यक्ति बड़ा होता
है । बोलते हैं- ‘यह बड़ा चलता पुरजा है ।’ तो वह पुरजा चलता ही
रहेगा कई चौरासी लाख योनियों में । चतुराई चूल्हे पड़ी… यह बात माने
तो ठीक है, नहीं तो बने चतुर । जो जितना ज्यादा चतुर बनता है वह
संसार में उतना ही ज्यादा फँसता है, उतने ही ज्यादा जन्म-मरण के
चक्कर में डालने वाले संस्कार उसके अंतःकरण में पड़ते हैं ।
सुकरात के पास एक देहाती गरीब व्यक्ति आया और उसने
निवेदन किया कि ‘मेरे को परमात्म-शांति चाहिए, मेरे सोल का – मेरे
आत्मा का अनुभव चाहिए । क्या मुझे हो सकता है ?”
सुकरात बोलेः “क्यों नहीं हो सकता, जरूर हो सकता है !”
“मेरे को कितने समय में हो जायेगा आत्मा का अनुभव ?”
“जैसी अभी तड़प है वैसी ही बनी रहे और तुम ठीक से लगो तो 6
महीने में हो जायेगा ।”
उस गरीब के साथ एक चतुर व्यक्ति, बड़ा व्यक्ति भी आया था,
उसने कहाः “इस देहाती को 6 महीने में हो सकता है तो मेरे जैसे को
तो जल्दी हो जायेगा !”
सुकरात बोलेः “तुम्हारे को तो 2 साल में भी होना मुश्किल है !”
“क्यों ?”
“तुम ज्यादा चतुर हो, तुम्हारे दिमाग में संसार का कचरा ज्यादा
घुसा हुआ है । यह तो समतल जमीन है, इस पर 6 महीने में इमारत
खड़ी हो जायेगी और तुम्हारा तो मजबूत नीँव वाला ऊँचा भव्य बना हुआ
है, यह सब हटाना पड़ेगा । समतल जमीन नहीं है, तुम्हारी तो इमारत
है । तुम्हारे अंदर तो संस्कार पड़े हैं इधर-उधऱ के । इसको पटाया,

उसको पटाया… इसलिए ज्यादा देर लगेगी । जो सीधा-सादा होता है वह
जल्दी आनंदित हो जाता है और जो चतुर होता है उसको बहुत देर
लगती है ।”
सच्चा चतुर तो वह है जिसकी भगवान में रुचि हो जाय, जो
परिणाम का विचार करके व्यवहार करे । मूर्ख का नाम सीधा-सादा नहीं
है, जो छल-कपटरहित है ऐसा सीधा-सादा । कुछ लोग सीधे-सादे होते हैं
लेकिन अक्ल नहीं होती, परिणाम का विचार किये बिना काम करते हैं ।
‘आखिर यह सब कब तक ? आखिर क्या ?’ इस प्रकार परिणाम का
विचार करके तत्परता से परमात्मा में लगे ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2023, पृष्ठ संख्या 25 अंक 364
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उनको छू के आने वाली हवा भी कल्याण कर देती है – पूज्य बापूजी



जिनकी अकाल मृत्यु होती है वे प्रेत हो जाते हैं । एक बुद्ध पुरुष
– एक ब्रह्मवेत्ता पुरुष ने सोचा कि ‘मुझे प्रेतों को देखना है ।’ वे भूत-प्रेत
फँसाने वाले व्यक्ति के पास गये और कहा कि “तुम्हारे भूत मुझे देखने
हैं ।”
उसने कहाः “बाबा जी ! यह धंधा बहुत खराब है, क्या देखना है !
ये तो बड़े मलेच्छ होते हैं और आप जैसे संत देखेंगे !”
बोलेः “हमारी साधना पूरी हो गयी, अब हमें कुछ पाना नहीं, कुछ
खोना नहीं। हमें तो विनोदमात्र देखना है ।”
उसने कहाः “बाबा जी ! कितने दिखाऊँ ? मेरे पास कई बँधे हुए हैं
। और मेरे पास ऐसे कई मंत्र भी हैं जिनसे मैं सैंकड़ों प्रेतों को बुला
सकता हूँ ।”
बाबा जी ने कहाः “2-4 ही दिखा दे, देखूँ कैसे होते हैं ।”
तो उसके पास करीब 108 छोटे-मोटे भूत थे । उसने पहली विधि
की और 4 को बुलाया पर एक भी नहीं आया । फिर उसने कुछ
शक्तिशाली विधि की और 8 को बुलाया । अब भी कोई नहीं आया ।
शाम हुई, बाबा जी ने कहाः “क्या तू भूत-वूत करता है, है तो कुछ नहीं
!”
बोलाः “बाबा जी ! क्या पता कहाँ चले गये, मेरा मंत्र खोटा तो नहीं
होता है !”
उसने फिर बँधे हुए जितने भी भूत थे, उन सबके नाम लिये और
उऩ्हें बुलाने के विधिवत प्रयोग किये । रात के 12, 1, 2, 3 बज गये,
कोई नहीं आया ।

संत ने कहाः “प्रभात हुई, अब हम अपने आपमें डूबने जा रहे हैं ।
देख लिया, तेरा भूत तो नहीं मिला, अब हम अपने-आपको देखेंगे ।”
संत वहाँ से चल दिये और वह भूत-प्रेत वाला सिर कूटता रहा ।
संत कुछ आगे निकल गये तब एक लँगड़ा भूत उस भूत बाँधने वाले
व्यक्ति को दिखा । वह बोलाः “तू अभी आया है ससुर ! और कहाँ मर
गये ? मेरी इज्जत का सवाल था !”
कर्मी-धर्मी, यशस्वी तपस्वी की इज्जत का सवाल होता है किंतु
ब्रह्मवेत्ता की इज्जत का कभी कोई सवाल ही नहीं होता है । वे महापुरुष
अपने स्वतंत्र स्वामी होते हैं क्योंकि वे प्रकृति में नहीं जीते, अपने शुद्ध
स्वरूप में जीते हैं ।
जब भूत से पूछा गया कि और कहाँ गये तो उसने कहाः “और तो
सब हट्टे-कट्टे थे, जिन-जिनको तुम बुलाते गये वे सब तुम्हारे पास
आये ।”
“मेरे पास तो एक भी नहीं आया !”
“सब दौड़ते-दौड़ते आये । मैं दुर्बल और लँगड़ा हूँ अतः सबसे पीछे
जरा धीरे-धीरे आया । कोई बाबा जी थे, कोई बुद्ध पुरुष थे, उनकी
छाया पड़ने से उन सभी भूतों की सद्गति हो गयी । मैं अभागा देर से
आया इसलिए वंचित रह गया ।” मुनि अष्टावक्र कहते हैं-
सर्वारम्भेषु निष्कामो… (अष्टावक्र गीताः 18.64)
ब्रह्मवेत्ता महापुरुष बड़े-से-बड़े कामों में भी बालक के समान
निष्काम व्यवहार करते हैं । उन बुद्धपुरुष को कोई कामना नहीं थी कि
‘मैं उनका उद्धार करूँ ।’ बर्फ को कोई कामना नहीं होती कि ‘मैं ठंडक
दूँ’, चन्द्रमा को कोई कामना नहीं होती कि ‘मैं शीतलता दूँ’… ऐसे ही
ज्ञानवान को कोई कामना नहीं होती कि ‘मैं इनका भला करूँ या बुरा

करूँ ।’ जिसको बुरा करने की कामना है वह बुरा कर सकता है, भला
करने की कामना है तो कल्पित भला कर सकता है, सच्चा भला नहीं
कर सकता है लेकिन जो निष्काम है, ओहो ! उनको तो छू के जो हवा
आती है न, वह भी कइयों का कल्याण कर देती है । सच्चा भला तो
निष्काम महापुरुषों के द्वारा ही होता है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2023, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 364
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