Tag Archives: Prerak Prasang

Prerak Prasang

पात्रता विकसित कीजिये – पूज्य बापू जी



दैवी सहायता उन्हें प्राप्त होती है जो अपनी पात्रता विकसित करते
हैं । गुरु की सहायता, ईश्वर की सहायता वहीं टिकती है जो अपने को
थोड़ा कसते हैं, पात्रता विकसित करते हैं ।
संत ज्ञानेश्वर महाराज अपनी कथा में बता रहे थे कि “बड़े-बड़े
अनुदान बिना योग्यता के नहीं मिलते हैं । इसीलिए अपने-आपका
उद्धार करना चाहिए, अपनी योग्यता विकसित करनी चाहिए ।”
एक बड़े घराने की माई ने कथा पूरी होने के बाद कहाः “महाराज !
ईश्वर तो ईश्वर है । क्या योग्यता, क्या अयोग्यता देखेगा ? सब ईश्वर
के बच्चे हैं, ईश्वर तो खुले हाथ बाँटेगा । योग्यता देखना – न देखना
ईश्वर के लिए क्या मायने रखता है !”
ज्ञानेश्वर जी ने कहाः “अच्छा !”
माई बोलीः “हम धनी लोग भी जब योग्यता अयोग्यता नहीं देखते
हैं, ऐसे ही लुटाते हैं तो ईश्वर तो धनियों का धनी है । ईश्वर तो लुटाये,
वह क्यों योग्यता देखे ?”
ज्ञानेश्वर जी देखा कि यह माई उपदेश से नहीं समझेगी, प्रत्यक्ष
प्रयोग करना पड़ेगा ।
कुछ दिनों बाद ज्ञानेश्वर जी ने चरस गाँजा पीने वाले एक अपराधी
भिखमंगे को उस माई के पास यह कह कर भेजा कि “फलानी माई से
2-4 गहने माँग ले, 2-4 दिन के लिए ही माँग । फिर क्या कहती है,
मुझे चुपके से बताना ।”
भिखमंगा उस माई के पास गया, बोलाः “बहन जी ! तुम बड़ी
धनाधय हो । तुम्हारी ये दो चूड़ियाँ, 2 अँगूठियाँ और 1 हार मुझे चाहिए

थे, अगर दान में नहीं दे सकती हो तो कम-से-कम 2-4 दिन के लिए ही
दे दो ।”
माई बोलीः “चल रे मुआ ! मैं तेरे को चूड़ियाँ दूँगी अपनी !”
“बहन जी ! 2-4 दिन के लिए दे दो फिर वापस दे दूँगा ।”
“जा-जा, मैं नहीं देती ।”
“अच्छा ! केवल एक चूड़ी और एक अँगूठी ही दे दे ।”
“मैं एक अँगूठी तो क्या, एक धक्का भी नहीं दूँगी ! जा दूर हट !”
उसने खूब अनुनय-विनय किया लेकिन माई ने न चूड़ी दी, न हार
दिया, न अँगूठी दी ।
थोड़ी देर बाद ज्ञानेश्वर जी उस माई के पास गये और बोलेः
“बहन जी ! जरा तुम्हारे थोड़े गहने 2-5 दिन के लिए मेरे को चाहिए ।”
माईः “महाराज ! आपको…. गहने !” सारे-के-सारे उतार के रुमाल
में धरे और प्रसाद धरा, बोलीः “प्रभु ! 2-5 दिन ही क्यों, हमेशा के लिए
ले जाइये ।”
ज्ञानेश्वर जी ने कहाः “बहन ! अभी-अभी वह भिखारी माँग रहा
था, नाक रगड़ रहा था, गिड़गिड़ा रहा था, उसको तो तुमने कुछ भी नहीं
दिया और मेरे को सारा-का-सारा दे रही हो !”
“महाराज ! उसकी पात्रता कहाँ, आपकी पात्रता कहाँ ! आप जैसे
संत को देखकर तो देने का जी करता है, उसको कौन दे !”
ज्ञानेश्वर जी बोलेः “जब तू चार पैसे के गहने देने में पात्र-अपात्र
का ख्याल करती है, तो जो प्रभु अपना-आपा देना चाहेगा वह क्या बिना
पात्रता के बरसेगा !”
एकलव्य ने गुरु-ध्यान से अपनी पात्रता विकसित की तभी अब
तक संतों की जिह्वा पर उसका नाम है । शबरी भीलन ने मतंग ऋषि

की आज्ञा मानने की अपनी पात्रता विकसित की थी । धन्ना जाट ने
एकाग्रता और ठाकुर जी को बुलाने की अपनी पात्रता विकसित की थी ।
तुकाराम महाराज, नामदेव महाराज छोटी जाति में जन्मे थे तो जात-
पाँत के उस जमाने में अपने को ऊँची जाति वाले मानने वालों ने
नामदेव जी को बोलाः “तुम कैसे मंदिर में आ सकते हो ? तुम कैसे यह
सब कर सकते हो ?”
नामदेव जी ने कहाः “कोई बात नहीं ।” और नामदेव जी भजन
करने बैठ गये । कहते हैं कि जिधर को मुँह करके नामदेव जी बैठ गये
थे उसी तरफ भगवाने ने मंदिर का मुख घुमा दिया और पंडित देखते
रह गये । आपकी पात्रता है तो प्रकृति करवट लेने को भी तैयार है और
परमात्मा तुम्हारे आगे प्रकट होने को भी तैयार है । आप अपनी प्रेम-
पात्रता (निष्काम भाव से प्रेम करने की पात्रता बढ़ाइये । अपने को
कोसिये मत कि ‘हाय रे ! क्या करें, जमाना बड़ा खराब है… क्या करें,
जाति छोटी है… क्या करें, यह छोटा है…।’ ऐसे अपने को कोसिये मत,
आप अपने प्रेम-पात्रता बढ़ाइये ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2022, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 356
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

मुरझा गयी क्यों जीवन-बगिया ? – पूज्य बापू जी
(सर्वगुणनाशक अहंकार)



एक सम्राट ने सुंदर बग़ीचा लगवाया । वह दूर-दराज से पौधे
मँगवाकर लगवाता रहता था तो बगीचे में विभिन्न प्रकार के रंग बिरंगे
फूल खिलते थे । प्रायः सम्राट बगीचे में सैर करने जाता । कभी कोई
मेहमान आता, पड़ोसी राजा आता तो उसे खास तौर पर बगीचे में ले
जाता । बगीचे में एक पौधा तेजी से बढ़ा जा रहा था । देखते-देखते वह
वृक्ष के रूप में बदल गया और उसकी गंदी बू एवं छाया के कारण
तमाम खुशबूदार फूल व पौधे भी मुरझाते चले गये । सम्राट को लगा
कि ‘यह क्या हो गया पूरे बगीचे को !’
चिंतित होकर उसने अपने गुरु जी को पधारने हेतु निवेदन किया,
उनको परिस्थिति बतायी तो उन्होंने कहाः “बेटा ! ये भिन्न-भिन्न फूलों
के पौधे खिले हैं किंतु एक अऩुपयोगी, अनर्थकारी पौधा पेड़ हो गया है,
इसी कारण सुंदर बगीचे का यह हाल हुआ है ।
बगीचे की तरह तेरे जीवन की भी स्थिति है । तेरा क्षमा का गुण
रूपी फूल खिला है, प्रसन्नता के फूल खिले हैं, न्यायप्रियता के, स्वास्थ्य
के तेरे फूल खिले हैं, यह सब तो हैं लेकिन अहंकार का पौधा पेड़ हो
गया है । इस अहंकार के कारण यह तेरी सारी खुशबू दब गयी है और
लोगों को तू चुभता है । जैसे यह पेड़ पौधों को चुभता है ऐसे ही तेरा
अहंकार दूसरों को चुभता है, उस अहंकार को भगवान की शरण में रख

धन यौवन का करे गुमान सो मूरख मंद अज्ञान ।
रूप-लावण्य का करे अभिमान सो मूरख मंद अज्ञान ।।

अतः अपने से कर्तव्यदक्षता में, भगवद्ज्ञान में, ध्यान में,
ईश्वरप्राप्ति के रास्ते में जो आगे हैं उनके पास जाओ ताकि अहंकार
नियंत्रित रहे । इससे भी और अच्छा है सीधे नश्वर धन-रूप, सत्ता पद
के अहंकार को छोड़कर शास्त्रों और महापुरुषों के बताये मार्ग पर चल के
उनसे आत्मज्ञान का शाश्वत धन पाना । इसी में मनुष्य जन्म की
सार्थकता है ।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2022, पृष्ठ संख्या 18 अंक 356
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

हमारा हित किसमें है ? – पूज्य बापू जी


एक शिष्य गुरु के द्वार पहुँचा । गुरु जी ने कहाः ″सेवा करो, ध्यान-जप, अनुष्ठान करो ।″ चंचल चेला था, कुछ दिन चला, गुरु की आज्ञा मानने की कोशिश की किंतु उसका मन बंदर की नाईं भागता रहता था ।

एक दिन वह गुरु जी से कहने लगाः ″गुरु जी आज्ञा दो तो मैं तीर्थयात्रा करने जाऊँ ।″

गुरु जी ने कहाः ″मूर्ख !

तीरथ नहाये एक फल, संत मिले फल चार ।

सद्गुरु मिले अनंत फल, कहत कबीर विचार ।।

जब सद्गुरु की हाजिरी तो अनंत फल मिल रहा है फिर क्यों भटकना चाहता है ! गुरु का सान्निध्य लो ।″

तब चुप हो गया लेकिन वह उछलता-कूदता बंदर, थोड़े दिन के बाद उसने अपना सामान बाँध लिया । बोलाः ″गुरु जी ! मुझे आज्ञा दो, इधर मन नहीं लगता ।″

″अरे ! मन लगे न लगे, तू तो बैठा रह । ऐसा होता रहता है, मन लगे तो भी दफ्तर में पगार चालू, नहीं लगे तो भी चालू ।″

″नहीं गुरु जी ! कब तक बैठा रहूँगा ? इतने दिन तो बैठा रहा न !″

″गुरु की आज्ञा मान ।″

″इतने दिन तो आज्ञा मान ली, अब कितनी आज्ञा मानना है ?″

″फिर तू बंदर की नाईं भटकने जा मूर्ख !″

वह तो चल दिया । कुछ समय एक दिन गुरु महाराज टहलते-टहलते आश्रम के बाहर के प्रांगण में गये तो पेड़ पर से बंदर का बच्चा उतरा और महाराज जी के चरणों से चिपक गया ।

गुरु महाराज ने कहाः ″अच्छा ! आखिर बंदर बन के भी आया तो सही बेचारा !″

गले में पट्टा बाँध दिया, आश्रम वालों को बोल दियाः ″यह वही साधक है बेचारा, जो चला गया था । अकाल मृत्यु हो गयी थी, अब बंदर के शरीर में आया है, माफी माँग रहा है । नहीं तो इतना कोमल बच्चा आ के चरणों में सिर रख दे, सम्भव नहीं । इसलिए मैंने ध्यान करके देखा तो पता चला कि जिसको मैंने ‘जाओ, बंदर की नाईं भटको’ कहा था उसी की बीच में किसी निमित्त से मृत्यु हो गयी और वह बंदर हुआ है । अब भटकान मिटाने के लिए माफी माँग रहा है ।″

फिर बोले कि ″भोजन-वोजन, भंडारा-प्रसाद हो, यह नजदीक आये तो इसको डाल दिया करो, खा लिया करेगा ।″

जब उसे जरूरत लगती, आता और खाता । शाम की आरती के समय और महाराज जी जब सत्संग करते तब आता और हाथ जोड़ के बैठ जाता था । वह बंदर का बच्चा चंचल बंदरों से अलग था । दिन बीते, सप्ताह बीते, वर्ष बीत गये । एक दिन वह आया नहीं । दूसरा दिन हुआ तो गुरु जी बोलेः ″आया नहीं वह । जरा खोजो कहाँ गया ।″

वैष्णव नाम रख दिया था उसका ।

शिष्यों ने कहाः ″पास के पेड़ पर ही रहता था ।″

इधर-उधर खोजा, पेड़ पर तो नहीं मिला, पास में छत पर मरा हुआ पड़ा मिला ।

बोलेः ″चलो, उसकी सद्गति हो गयी, वैष्णव था ।

डोली सजायी । जैसे किसी वैष्णव साधु की यात्रा निकलती है से ही गाते बजाते, शंखनाद-घंटनाद करते हुए यात्रा निकाली व नर्मदाजी को उसका शरीर अर्पण कर दिया । फिर भंडारा किया ।

तो ये जीव न जाने कौन सी गलती से किन-किन योनियों में चले जाते हैं और सत्संग की सूझबूझ से कई योनियों से पार होकर परमात्मा तक भी पहुँच सकते हैं । तो गिरने से बचाने वाला, सूझबूझ देने वाला है  ‘सत्संग’, और कोई उपाय नहीं है – सत्पुरुष की आज्ञा और सत्संग का ही आश्रय है ।

अग्या सम न सुसाहिब सेवा ।

सुलझे हुए महापुरुषों की आज्ञा में रहने से हमारा जितना हित होता है उतना हम अपने-आप नहीं कर सकते हैं । जानते ही नहीं और करने का सामर्थ्य भी नहीं । अगर आप जानते होते, कर पाते तो अभी दुःखी क्यों हैं ? अभी बीमार क्यों होते हैं ? अभी मरते और जन्मते क्यों हैं ? कुछ-न-कुछ कमी है न अपने में, तभी तो जीव शरीर में हैं ! आत्मसाक्षात्कार नहीं हुआ तो कमी है न ! तो कमी मिटती है पूर्ण पुरुष परमात्मा के जप से, पूर्ण पुरुष परमात्मा के ज्ञान से और पूर्ण पुरुष परमात्मा के अनुभव से सम्पन्न सत्पुरुष की कृपा से ।

धीरज सबका मित्र है, करी कमाई मत खो ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2022, पृष्ठ संख्या 24, 25 अंक 354

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ