बुरे संग, बुरे चलचित्रों से बचने का अभ्यास करो । कोई लूला-लँगड़ा है, गरीब है, कोई ऐसा-वैसा विद्यार्थी है तो उसको देखकर हँसो मत, मजाक मत करो । किसी से कोई चीज माँगकर लेते हो तो फिर वह चीज बिगड़े नहीं ऐसे उपयोग करके उसको वापस दो । शिष्टाचार से रहने का अभ्यास होगा तो सभी प्रेम करेंगे । अपने द्वारा किसी का मन दुःखी न हो ऐसा विचार कर के बोला करें । सारगर्भित बोलें, जैसा प्रसंग हो उसके अनुरूप बोलें । जो आप बोलें वह झूठ न हो, चुगली न हो, बात दूसरे को चिंता-तनाव, दुःख देने वाली न हो, शांतिवाली हो, ज्ञानवाली हो, प्रीतिवाली हो ऐसा अभ्यास हो जाय तो बस, वह बापू का सत्संग बन जायेगा… बेटे का क्या, ‘बापू’ का सत्संग बन जायेगा ! तो बोलने में इन गुणों की थोड़ी सावधानी रखें तो वाणी प्रभावशाली हो जायेगी । किसी का बुरा न सोचना, किसी का शोषण न हो, बोलने में स्वार्थ न आये, दूसरे के हितभाव से भरकर बोलें, भगवान को प्रीति करते हुए बोलें, शास्त्र के अनुसार बोलें तो वह सत्संग हो जायेगा । स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2022, पृष्ठ संख्या 19 अंक 349 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
Tag Archives: Vivek Vichar
तो समझ लेना चाहिए कि मोह प्रबल है
रावण ने हनुमान जी से पूछाः “रे वानर ! तुमने मेरी वाटिका क्यों
उजाड़ दी, बताओ तुम कौन हो ? और तुम्हारे पीछे किसका बल है ?”
हनुमान जी को लगा कि बहुत अच्छा अवसर है, अब इसे भगवत्कथा
सुना ही दी जाय ! जब हनुमान जी का मिलन भरत जी से हुआ था तो
उन्होंने उनके प्रश्न का सीधा उत्तर देते हुए कहा था कि “मैं पवनपुत्र
कपि हनुमान हूँ और प्रभु का एक छोटा सा दास हूँ ।”
पर जब रावण ने पूछा तो हनुमान जी ने शुरु से ही कथा प्रारम्भ
कर दीः “हे रावण ! सुन, मैं उऩ प्रभु का दूत हूँ जिनका बल पाकर
माया सम्पूर्ण ब्रह्मांडों के समूहों की रचना करती है, जिनके बल से हे
दशशीश ! ब्रह्मा, विष्णु, महेश (क्रमशः) सृष्टि का सृजन, पालन और
संहार करते हैं, जिनके बल से सहस्र मुखवाले शेषजी पर्वत और वन
सहित समस्त ब्रह्मांड को सिर पर धारण करते हैं, जो देवताओं की रक्षा
के लिए नाना प्रकार की देह धारण करते हैं और जो तुम्हारे जैसे मूर्खों
को शिक्षा देने वाले हैं, जिन्होंने शिवजी के कठोर धनुष को तोड़ डाला
और उसी के साथ राजाओं के समूह का गर्व चूर्ण कर दिया, जिन्होंने
खर, दूषण, त्रिशिरा और बालि को मार डाला जो सब-के-सब अतुलनीय
बलवान थे ।”
हनुमान जी ने उसे सब कथा सुनाकर अँत में कहा कि “रावण !
तुमने भी तो संसार को जीता है पर क्या तुमने कभी विचार किया कि
किसके बल से जीता ?”
हनुमान जी का अभिप्राय यह था कि संसार में जो कुछ भी कार्य
कोई कर रहा है उसके पीछे केवल ईश्वर की ही शक्ति है । किसी
व्यक्ति का अपना कोई बल नहीं है । और इसलिए उन्होंने कहाः “रावण
! तुमने संसार को जीता, वह भी उनके बल के लवलेश से ही जीता है
।” तथा इस प्रकार अंत में कथा का उद्देश्य भी प्रकट कर दिया ।
हनुमान जी ने जब यह कहा कि “सारे ब्रह्मांड में सबके पीछे
भगवान का ही बल है और तुम्हारे पीछे भी उऩ्हीं का बल है ।” तो फिर
रावण पूछ सकता था कि ‘तुममें और मुझमें कुछ भेद है क्या ?’
इसलिए हनुमान जी ने कहाः “तुममें और मुझमें भेद अवश्य है ।’
हनुमान जी कहते हैं-
“जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि ।
तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि ।। (श्रीरामचरित.
सुं.कां. 21)
जिन प्रभु की लेशमात्र शक्ति से तुमने समस्त चराचर जगत को
जीत लिया तथा जिनकी शक्ति (अर्थात् प्रिय पत्नी) को तुम हरकर ले
आये हो, मैं उनका दूत हूँ और उनकी शक्ति का पता लगाने आया हूँ ।”
संसार में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जिसकी बुद्धिमत्ता, योग्यता,
बल आदि ईश्वर के दिये हुए न हों । किंतु बुरा और भला किसे कहते हैं
? भगवान की दी हुई वस्तुओं का जो सदुपयोग कर रहा है वह भला है
तथा जो दुरुपयोग कर रहा है वह बुरा है । हनुमान जी का अभिप्राय है
कि तुम इतने कृतघ्न हो कि जिनसे तुम्हें इतना सामर्थ्य मिला उनके
प्रति कृतज्ञ होने के स्थान पर तुमने यही सोचा कि ‘सारा चमत्कार तो
शक्ति का है अतः मैं शक्ति को ही क्यों न चुराकर अपनी बना लूँ ?’
बस, तुममें और मुझमें यही अंतर है ।
हनुमान जी रावण को हर तरह से समझाया । पर प्रश्न यह है कि
उस कथा का रावण पर क्या प्रभाव पड़ा ? वर्णन आता है कि सुनकर
रावण खूब हँसा । हनुमान जी की कथा उसको अच्छी तो लग नहीं रही
थी । अंत में हनुमान जी रावण को याद दिलाने लगेः “मैं तुम्हारी प्रभुता
को खूब जानता हूँ, सहस्रबाहू से तुम्हारी लड़ाई हुई थी और बालि से
युद्ध करके तुमने सुयश प्राप्त किया था ।”
रावण बड़ा प्रसन्न हुआ कि ‘इसने एक बार भी नहीं कहा कि तुम
बालि से पराजित हुए या सहस्रबाहु से हार गये ।’ रावण खूब हँसाः ‘हाँ-
हाँ… मेरा तो ऐसा बल है ही ।’ रावण ने कभी राक्षसों के सामने यह
प्रकट नहीं होने दिया था कि वह सहस्रबाहु और बालि से हारा है ।
क्योंकि जब वह हारा था तो अकेले में हारा था । वह स्वयं बताये तब
लोगों को पता चले न ! किंतु उसने कभी किसी को बताया ही नहीं और
आज हनुमान जी ने भी हारने का नाम ही नहीं लिया इसलिए – सुनि
कपि बचन बिहसि बिहरावा ।
वह कहता हैः ‘वाह, वाह ! कपि ! बड़ी अच्छी कथा है ।’ कथा में
तो भगवान राम का गुण गाया जा रहा है पर रावण सोचता है कि ‘कथा
का उपसंहार मेरे वर्णन से हो रहा है ।’ जब भगवत्कथा में सत्संग में
ऐसी वृत्ति बने तो समझ लेना चाहिए कि मोह (अज्ञान) प्रबल है । और
कहा गया है कि ‘विनाशकाले विपरीतबुद्धिः’ । जब बुद्धि विपरीत हो
जाय तो समझ लेना चाहिए कि विनाशकाल निकट है । और इस प्रसंग
के बाद शीघ्र ही रावण का विनाश हुआ तथा उपरोक्त शास्त्र-वचन की
सत्यता प्रकट हुई । इसलिए मोह-नाश हेतु सत्संगरूपी मुख्य साधन का
एवं सेवा, साधना रूपी सहायक साधनों का अवलम्बन जीवन में अवश्य
लेना चाहिए ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 348
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
जैसा दोगे वैसा ही पाओगे – पूज्य बापू जी
यह सारा जगत ध्वनि और प्रतिध्वनि से जुड़ा है । हमारी जैसी ध्वनि होती है वैसी प्रतिध्वनि आती है । तुमने देखा होगा कि किसी खाली मकान के करीब आप जैसी आवाज बोलते हो वहाँ से वैसी ही ध्वनि आती है । आप बोलोगेः ‘तू सज्जन है’ तो वहाँ से आयेगा कि ‘तू सज्जन है’, बोलोगेः ‘तू लुच्चा है’ तो वहाँ से आयेगाः ‘तू लुच्चा है’… ऐसे ही हम एक-दूसरे के प्रति जैसी भावनाएँ करते हैं वैसा ही प्रतिफल प्राप्त होता है ।
स्वामी विवेकानंद जी ने ईश्वरप्राप्ति के लिए खूब इधर-उधर यात्राएँ कीं । वे परिव्राजक हो गये थे । एक दिन घूमते-घामते संध्या हो गयी, उनके मन में एक बड़ा तूफान उठा कि ‘मैं इतना बड़ा हो गया, ध्रुव को 5 वर्ष में, प्रह्लाद को 11 वर्ष की उम्र में, राजा जनक को घोड़े की रकाब में पैर डालते-डालते परमात्मा का साक्षात्कार हुआ और मैं परिव्राजक – संन्यासी हुआ और अभी तक मुझे अपने हृदय में छुपे हुए अंतर्यामी का साक्षात्कार नहीं हुआ, अभी तक भगवान का दर्शन नहीं हुआ ! व्यर्थ का खाना, व्यर्थ के कपड़े पहनना, व्यर्थ ही समाज पर बोझरूप होना है । धिक्कार है मेरे साधु होने को ! धिक्कार है मेरे जीने को !!’ उन्हें अपने पर खूब ग्लानि हुई ।
सूर्यनारायण अस्ताचल को जा रहे थे । सामने एक निर्जन जंगल था, उसमें घुस गये । चित्त की बड़ी विचित्र दशा थीः ‘इससे तो मरना अच्छा है । हृदय में परमात्मा छुपा है और आज तक उसकी मुलाकात नहीं हुई !
ईश्वरः सर्वभूतानां हृदेशेऽर्जुन तिष्ठति ।
‘ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय देश में साक्षीरूप से स्थित है ।’ ( गीताः 18.61 )
यह भगवान का वचन मिथ्या नहीं हो सकता है लेकिन मेरी तड़प नहीं है, मुझे उत्कंठा नहीं है । ईश्वर के लिए उत्कंठा नहीं है तो मन संसार के लिए उत्कंठा करेगा और जन्म-मरण में पड़ेगा । संसार के जन्म-मरण में जाना पड़े उसके पहले मैं इस शरीर को ही मार देता हूँ । यह शरीर, न रहे तो अच्छा है !’ ऐसा सोच के जंगल में चले गये । चलते गये… सामने से एक बाघ आया ।
विवेकानंद के मन में हुआ कि ‘प्रभु ने यह ठीक किया । बाघ भूखा है, इसका पेट भर जायेगा । मैं भी भूखा हूँ परंतु मेरी भूख तो प्रभुप्राप्ति से मिटेगी, इस देह की भूख अन्न से मिटेगी । मेरा अन्न मेरे पास नहीं परंतु इसका अन्न तो इसके पास है । यह परितृप्त हो जाय तो कोई हानि नहीं क्योंकि इसमें भी तो मेरा प्रभु है ।’ ऐसा सोचकर बाघ के करीब जा के खड़े हो गये तो बाघ ने पगडंडी बदल दी, दूसरा रास्ता ले लिया ।
हम बाघ का कल्याण सोचते हैं तो बाघ हमारा अकल्याण कैसे सोच सकता है ! जब पशु पर हमारे शुभ संकल्प वहाँ से प्रतिसंकल्प शुभ लाते हैं तो किसी व्यक्ति के प्रति यदि शुभ संकल्प है तो वह व्यक्ति शुभ संकल्प दिये बिना कैसे रह जायेगा !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 20 अंक 348
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ