शास्त्र-महिमा – पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

शास्त्र-महिमा – पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू


 

ʹगुरु ग्रंथ साहिबʹ में आता है किः

साधु ते होवहि न कारज हानि।

साधु से कार्य की हानि नहीं होती। साधु किसको कहते हैं ?

सत्पुरुख पिछानिया सत्गुरु ता का नाम।

तिसके संग सिख उदरियै नानक गुण गान।।

जिन्होंने उस सत्यस्वरूप को जाना है, सत्यस्वरूप में जिनकी मति विश्रान्ति पाती है वे जो बोलते हैं वह मत नहीं माना जाता, वरन् शास्त्र माना जाता है।

नानक बोले सहज सुभाऊ।

अपने अनुभव की बात संत तुकारामजी ने भी कही है। महाराष्ट के सुप्रसिद्ध संत तुकाराम ! निंदक भले उन्हें गधे पर बिठाकर उनकी बदनामी करें लेकिन समझदारों ने उऩ्हें नवाजा है। छत्रपति शिवाजी ने उनकी पूजा की है। सज्जनों ने, साधकों ने गुरुओं की पूजा की, उनका ज्ञान पाया और निंदकों ने उनके लिए न जाने कौन-कौन सी मुसीबतें खड़ी कीं। गुरुतेगबहादुर को धधकती धूप में, तपे हे तवे पर बैठाया गया। क्या वे इतने अपराधी थे ? नहीं। अपराधी लोगों को महापुरुष अपराधी दिखते हैं।

अपराधी का अपराध निवृत्त करने के लिए क्रूरतापूर्ण दण्ड देने से उसका अपराध निवृत्त नहीं होता लेकिन अपराधी की स्थिति समझकर उसके निरपराध नारायण स्वभाव को जगाने से वह निरपराधी होता है। सदग्रंथ व्यक्ति को निरपराध तत्त्व में जगाते हैं। यदि दण्ड देने से, बेंत मारने से जगत के अपराध समाप्त हो जाते तो अभी पुलिस की जरूरत नहीं पड़ती, कारावासों की जरूरत नहीं पड़ती। जहाँ निरपराध तत्त्व है उस तत्त्व का प्रसाद, उस तत्त्व की रूचि, उस तत्त्व का ज्ञान और उस तत्त्व का आनंद दिलाया जाय तो अपराधी से अपराधी व्यक्ति निरपराध हो जायेगा।

जहाँ कोयला है वहाँ हीरा भी तो प्रगट हो सकता है। जहाँ अपराध है वहाँ निरपराध नारायण भी तो छुपा है। इसलिए कृपा करके अपने बच्चे-बच्चियों के अपराध को बार-बार दुहराकर उन्हें गहरे अपराधी कभी न बनाइएगा। वरन् उनके अंदर जो भी निरपराध चेष्टा है उसकी प्रशंसा कीजिएगा ताकि उनको अपराधी प्रवृत्ति करने का अवसर ही न मिले। अपराधी के प्रति इस ढंग से पेश न आयें कि ʹतूने यह किया…. तूने यह गलती की…. तू अपराधी है….ʹ उसे कहो किः ʹऐसी जो गलती करते हैं उनके बुरे हाल होते हैं। तू ऐसी गलती करने के योग्य नहीं है। तूने जान-बूझकर यह गलत काम नहीं किया, तुझसे हो गया। तू मेरा बेटा है।ʹ इस प्रकार के सहानुभूतिपूर्ण वाक्यों से उसे सुधारने का प्रयास करें।

ऐसी सब व्यवस्था हमारे सदग्रंथों में है और वे सदग्रंथ किसी मत-पंथ की नहीं, अपितु प्राणीमात्र के हित की बात करते हैं।

बालक जब पैदा होता था, दाई बच्चे को बाप की गोद में रख देती थी। तब बाप नवजात शिशु के कान में बोलता थाः अश्मा भव। परशु भव।

आश्चर्य होगा यह जानकर कि अपने नवजात कोमल शिशु को पिता कहताः ʹतू पत्थर बन। तू चट्टान बन। तू कुल्हाड़ा बन….।ʹ

वेद भी कहते हैं कि पिता को ऐसा बोलना चाहिएः ʹअब तू कोमल शिशु संसार में आ रहा है तो संसार के कई सुख-दुःख के थपेड़े लगेंगे, कई आरोप लगेंगे। जैसे, दरिया के किनारे छोटी-मोटी बालू होती है, तिनखे होते हैं तो बह जाते हैं, लुढ़क जाते हैं जबकि चट्टान होती है तो थपेड़ों से टकराती रहती हैं और अपने अस्तित्त्व को बरकरार रखती है। इसी प्रकार हे पुत्र ! तू मजबूत बनना। अश्मा भव। तू दृढ़ बनना। इस संसार में कई थपेड़े लगेंगे, मेरे लाल ! परशु भव। तू कुल्हाड़ा बनना। विघ्न-बाधाओं, मुसीबतों-आकर्षणों को, पाप और ताप को काटने वाला हे वीर ! तू कुल्हाड़ा बनना। तू डरना मत। कायर मत बनना। दीन-दुःखियों का सहायक बनना। वह बल किस काम का जो दीन-दुःखियों के, सज्जन-सदाचारियों एवं संत महापुरुषों की सेवा में न लगे ?ʹ

अंत में पिता बोलता हैः हिरण्यमस्तुम् भवः। तू स्वर्ण की नाईं चमकना, मेरे लाल ! तू एक कोने में जंगली फूल की तरह खिलकर मुरझाना मत, वरन् तू गुलाब होकर महक तुझे जमाना जाने।ʹ

मेरे गुरुदेव ने एक बार गुलाब का फूल मुझे दिखाया और बोलेः

“देख, यह क्या है ?”

मैं- “गुरुदेव ! यह गुलाब का फूल है।”

गुरुदेवः “इसको किराने की दुकान पर ले जा और चावल पर, मूँग पर, धनिया, काजू, किसमिस, बदाम, अखरोट आदि पर रख, सैंकड़ों-सैंकड़ों चीजों पर रख, फिर सूँघ तो सुगंध किसकी आयेगी ?”

गुरुदेवः “बस, एक बात मान ले। तू गुलाब होकर महक तुझे जमाना जाने।

आप भी अपने पुत्रों को इसी प्रकार महकाने का प्रयास करें। कैसा दिव्य ज्ञान है हमारे महापुरुषों का ! कितनी महानता और उदारता है उनमें !

सन् 1661 में गुरु अर्जुनदेव ने गुरुग्रंथ साहिब संपन्न करवाया। उन्होंने यह ग्रंथ तो संपन्न करवाया लेकिन इतना बढ़िया ग्रंथ बनने से सब लोग खुश हो जायें यह संभव नहीं है।

जो गुरुद्रोही थे, निंदक थे उन्हें बढ़िया मौका मिल गया कुप्रचार करने का। भाई बुढा के द्वारा उस ʹग्रंथ साहिबʹ की सेवा सुश्रुषा का काम होता था। ʹग्रंथ साहिबʹ के वचन सुनकर समझदार तो संतुष्ट होते थे लेकिन जो गुरु के निंदक थे, संत के निंदक थे, धर्म के विरोधी थे, गुरुओं की करुणा-कृपा को दुकानदारी समझकर बदनामी करने में जो अपने को चतुर मानते थे ऐसे लोगों ने देखा कि यह अच्छा अवसर है। अतः उन्होंने अकबर को जाकर शिकायत की कि अर्जुनदेव ने एक ऐसा ग्रंथ बनाया है जिसमें मुसलमानों की निंदा है। वे अपने पंथ की स्थापना करना चाहते हैं।

ʹगुरु ग्रंथ साहिबʹ कोई मत नहीं है। वह तो वेदों का अमृत है। मत मति से निकलते हैं। यदि अर्जुनदेव अपनी मति से मुसलमानों के खिलाफ कुछ लिख डालते तो हम मानते कि वह मत है। किन्तु उन्होंने मति के अनुसार नहीं लिखा वरन् वेद और उपनिषदों का, पुराणों का प्रसाद उसमें लिखा है।

निंदकों के द्वारा कान भरे जाने पर अकबर ने फरमान जारी कियाः “अर्जुनदेव ने जो ग्रंथ बनवाया है उसे शाही दरबार में पेश किया जाये और हमारे सामने पढ़ा जाये।”

अर्जुनदेव के आदमी ग्रंथ लेकर दरबार में पहुँचे। अकबर बोलाः

“पढ़ो मेरे सामने यह ग्रंथ। देखूँ तो सही इसमें क्या लिखा है।”

ʹगुरु ग्रंथ साहिबʹ खोला गया। अकबर बोलाः “बीच का पन्ना पढ़ो।”

पन्ना क्या था ? वहाँ तो हीरा-मोती चमक रहे थे ! पन्ने में लिखा थाः

कोई बोले राम राम कोई कोई खुदाई।

कोई बोले सूफिया कोई अल्लाही।।

कारण करण करीम किरणधारी रहीम।

कोई नहावे तीरथ कोई हज जाई।।

कोई करे पूजा कोई सिर नवाई।

कोई  पढ़े वेद तो कोई किताई।।

कोई कहे तुर्की कोई कहे हिन्दू।

कोई बांचे बिस्तु कोई सिरजिन्दु।।

कह नानक जिन हुकुम पिछानिया।

प्रभु साहिब का तिन भेद जानिया।।

जिसने उस रब का, उस अकाल पुरुष का, उस चैतन्य का हुकुम पहचाना, उसी ने उस परमेश्वर का भेद जाना। बाहर से ये सारे मत-मतान्तर दिखते हैं तो कोई उसे कृष्ण कहता है तो कोई उसे करीम, कोई उसे राम कहता है तो कोई रहीम। कोई उसे तीर्थों में खोजता है तो कोई मंदिरों में और कोई उसे मस्जिदों में नवाजता है लेकिन जो उसके हुकुम को, उसकी सत्प्रेरणा को मानता है वही उस परब्रह्म परमात्मा को जानता है। यही ʹग्रंथ साहिबʹ की वाणी है।

आप जब सही करने लगते हैं, शास्त्रानुकूल करने लगते हैं तो भीतर से धन्यवाद छलकता है। इसको बोलते हैं अंतर्यामी अवतार। आपके हृदय में वह अकाल पुरुष अंतर्यामी रूप में अवतरित होता रहता है। हम अगर सात-सात गुफाओं में छुपकर भी बुरा कार्य करें, जहाँ हमें कोई भी न देख सके, वहाँ भी कोई देखने वाला होता है जो हमें कोसता है।

बल का हर्ता और बल का भर्ता वही परब्रह्म परमात्मा है। हम निःस्वार्थ कर्म करते हैं तो भीतर से हमारा बल बढ़ जाता है और हम उस रब के हुकुम की अवहेलना करके दूषित कर्म करते हैं तो हमारा बल कुंठित हो जाता है। यह सब भक्तों का अनुभव होगा।

कह नानक जिन हुकुम पिछानिया।

प्रभु साहिब का तिन भेद जानिया।।

अकबर ने कहाः “अच्छा, अब दूसरी जगह से पढ़ो।”

ऐसा करते-करते उसने अलग-अलग जगहों से पढ़वाया किन्तु कहीं भी कोई मत, मजहब और पंथ की बात नहीं थी। वहाँ तो थी जीवात्मा को परमात्मा का रंग लगाने की बात। अकबर भी दंग रह गया भारत के सदग्रंथ को सुनकर !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 1996, पृष्ठ संख्या 9,10,11 अंक 47

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