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ईश्वर की विचित्र सृष्टि


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

भगवान की यह दुनिया बड़ी विचित्र है। इसे समझ पाना वैज्ञानिकों के लिए भी बड़ा कठिन हो रहा है।

फ्राँस के मोमिन्स नगर में एक बालक, जिसका वार्डिस, उसकी एक आँख भूरी है और दूसरी नीली। वैज्ञानिक भी आश्चर्यचकित हैं कि यह कैसे संभव हुआ ?

1829 में लंदन का एक बालक चार्ल्स वर्थ जब 4 साल का हुआ तभी उसे दाढ़ी-मूंछ उग आयी। इतना ही नहीं उसका व्यवहार और बुद्धि भी बड़े मनुष्य जैसी ही थी। सात साल की उम्र में उसके बाल सफेद हो गये और आठवें साल का प्रारंभ होने पर वह मर गया। अभी तक वैज्ञानिकों की  बुद्धि में यह बात समझ में नहीं आ रही है कि यह हुआ कैसे ?

फ्राँस में टुर कुईंग नामक नगर में एक ऐसी बालिका का जन्म हुआ, जिसकी सामान्य मनुष्य की तरह दो आँखें नहीं, वरन् जहाँ तिलक करते हैं आज्ञाचक्र में एक आँख है। सब हैरान हो रहे हैं कि एक आँख कैसे ? वह भी आज्ञाचक्र में !

सुमात्रा में एक ऐसा कुआँ है, जिसमें झाँकने पर दो प्रतिबिंब दिखते हैं। वास्तव में दिखना तो एक चाहिए, किन्तु दो दिखते हैं। उसमें भी एक अपना प्रतिबिंब दिखता है दूसरा किसी अन्य का… तो क्या दो व्यक्ति होते हैं ? नहीं, एक ही व्यक्ति के दो प्रतिबिंब दिखते हैं। यदि दो व्यक्ति झाँकेंगे तो 4 प्रतिबिंब दिखेंगे और तीन व्यक्ति झाँकेंगे तो 6 प्रतिबिंब दिखेंगे, वह भी दर्पण की तरह बिल्कुल स्पष्ट। हालाँकि नीचे कोई दर्पण नहीं लगा हुआ है।

फ्राँस के लेटले नामक स्थल पर एक बार एक किसान के खेत में विद्युत गिरने से उसकी भेड़ों में से सब काली भेड़ें मर गयीं किन्तु सफेद भेड़ों का बाल तक बाँका नहीं हुआ।

अमेरिका की एडिस्टन लाइब्रेरी में सन 1961 से वॉयलिन की ध्वनि सुनायी दे रही है। कई लोग जा-जाकर सुनकर आये हैं। वॉयलिन की ध्वनि जरूर सुनाई देती है किन्तु कौन बजाता है यह नहीं दिखता।

कुछ समय पहले की बात हैः भारत के मैसूर में एक दुष्ट राजा राज्य करता था। एक बार उसने किसी साधु से कुछ कहा, किन्तु उस साधु ने राजा की बात सुनी-अनसुनी कर दी। इससे कुपित होकर राजा ने साधु को प्राणदंड देने का आदेश कर दिया। प्राणदंड भी किस प्रकार का ? तोप से मार डालने का हुक्म कर दिया गया। इतना दुष्ट था वह राजा !

सैनिकों ने आज्ञा पालन किया। वे साधु को पकड़कर ले आये और तोप के मुँह पर उसे बिठाकर तोप दगा दी। साधु उछलकर हाथी के हौदे पर जा पहुँचे। राजा ने दुबारा पकड़कर तोप के मुँह पर बैठाकर तोप चलवायी तो एक ऊँची छत पर साधु जा पहुँचे किन्तु मरे नहीं। राजा और भड़का। उसने तीसरी बार पकड़वाकर तोप चलवायी। तीसरी बार भी साधु एक रेती के टीले पर जा बैठे।

जा के राखे साईंया मार सके नहीं कोई।

बाल न बाँका कर सके चाहे जग वैरी होई।.

अफगानिस्तान में काबुल के पास एक रेतीला स्थान है जहाँ घोड़ों के दौड़ने की आवाज आती है हालाँकि वहाँ घोड़े दिखते नहीं हैं। इसी प्रकार नगाड़ों के बजने की आवाज भी आती है। लोग छान-बीन करके थक गये किन्तु अभी तक इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके कि ये कैसे होता है ?

जो भी देखने में आ रहा है, जानने में आ रहा है, उससे भी कहीँ करोड़गुना अधिक विचित्रताएँ हैं किन्तु हमारी इन्द्रियाँ इतनी सक्षम नहीं है कि उन्हें जान पायें।

कैलिफोर्निया में एक बालू के टीले में से रोने की आवाज आती है। बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी उस स्थान पर जाकर आये किन्तु वे भी नहीं जान सके कि आवाज कहाँ से आती है… कैसे आती है।

हवाई द्वीप में एक टीले से कुत्ते के रोने की आवाज आती है। कोई कह सकता है कि मरकर कोई भूत बना होगा और रो रहा होगा इसलिए आवाज आती है। तो क्या कुत्ता भी मरकर भूत होता है क्या ?

दक्षिण अफ्रीका की दीवालों से अट्टहास्य की, जोर-जोर से हँसने की आवाज आ रही है। यूरोप के कुछ समुद्र तट ऐसे हैं, जहाँ मधुर संगीत की आवाज आती है किन्तु गाने बजाने वाले का कोई पता नहीं।

बिजनौर के निवासी रामअवतार शर्मा ने पुनर्जन्म का खंडन करते हुए 2000 पृष्ठ की किताब लिखी लेकिन उन्हीं के यहाँ एक ऐसा पुत्र पैदा हुआ जो पुनर्जन्म की बातें बताता था।

प्रकृति के रहस्य बड़े अनूठे हैं। कांगड़ा जिले के दादा सिरवा गाँव में एक किसान ने अपनी जमीन को ठीक करने के लिए एक पहाड़ी को खोदना शुरु किया। खोदते-खोदते उसे एक अदभुत पत्थर मिला। उसकी जाँच करने पर पता चला कि उस पर एक चिड़िया अंकित है। कोई कहेगाः “हो सकता है किसी ने पहले अपने महल में चिड़िया बनवायी हो और समय पाकर वह महल जमीनदोस्त हो गया हो, फिर खोदने पर वही चिड़िया मिली हो…ʹ किन्तु ऐसा नहीं है।

प्रकृति के पास भी ऐसी कला है, जिससे चिड़िया बन सके। भगवान कब, कहाँ, कैसे और क्या कर दें यह किसी की समझ में नहीं आता है।

बुद्धि  को लड़ा-लड़ाकर, थककर अंत में जब कुछ समझ में नहीं आया, तब आईन्स्टाईन ने कहाः “मैं ईश्वर को मानता हूँ। इस अविज्ञात सृष्टि में, अविज्ञात अदभुत रहस्यों में ईश्वर की शक्ति ही परिलक्षित होती है।”

हरबर्ट स्पेन्सर ने कहाः “जिस शक्ति को मैं बुद्धि से परे मानता हूँ वह धर्म का खण्डन नहीं करती अपितु उसे अधिक बल पहुँचाती है।”

बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी ईश्वर की सत्ता को स्वीकार किये बिना नहीं रह सके। उऩ्होंने भी ईश्वर की सत्ता को माना है लेकिन आजकल जो लोग ईश्वर को नहीं मानते, जो नास्तिकता की ओर बढ़ रहे हैं उनकी सचमुच बड़ी दयनीय स्थिति है। बड़े-बड़े बुद्धिमान लोग भी भगवान की प्रकृति के रहस्य को ही नहीं जान पाते तो भगवान को भला इस बुद्धि से कैसे जाना जा सकता है ?

सोई जानइ जेहि देहु जनाई।

जानत तुम्हहि तुम्हहि होइ जाई।।

यह फल साधन ते न होई….

भगवान को केवल भगवान की कृपा से ही जाना जा सकता है। कोई सोचे कि अपने बलबूते पर भगवान को जान लें कि ʹनंगे पैर चलेंगे…. इतनी तीर्थयात्रा करेंगे इतना उपवास करेंगे… हम इतना साधन-भजन करेंगे…. इतनी माला घुमायेंगे…. हम इतना योग करेंगे… इतने-इतने नियम करके हम भगवान को पा लेंगे….ʹ तो यह बात बड़ी कठिन है। किन्तु यदि हो जाय सदगुरु कृपा, ईश्वर-कृपा तो यह कठिन-सा दिखने वाला काम, असंभव सा दिखने वाला काम भी सहज हो जाता है, सरल हो जाता है। जैसे राजा जनक, खट्वांग, परीक्षित, शबरी आदि के जीवन में हुआ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 1997, पृष्ठ संख्या 21,22,23 अंक 50

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……..और दर्शनमात्र से पीड़ा हर ली


दिनांक 24-12-1996 को मेरी 11वीं पूनम निमित्त पूज्य श्री के दर्शन हेतु सूरत आश्रम में आया था। उस दिन पूरा दिवस ध्यान शिविर में व्यतीत हुआ किन्तु शाम 7 बजे से कमर के निचले हिस्से में असह्य पीड़ा होने लगी। करीबन 2 घंटे पीड़ा सहता रहा। मेरे सब साथी सूरत आश्रम द्वारा बनवाये गये निवासस्थान वृन्दावन में चले गये थे।

जब पीड़ा अति असह्य हुई तो पू. लीलाशाहजी उपचार केन्द्र में वैद्य अमृतभाई को बताया। उऩ्होंने ऐक्यूप्रेशर का उपचार करने को एवं एक ऑईल मालिश करने को कहा, किन्तु ऐक्यूप्रेशर बंद हो चुका था और मालिश की दवा का भी उपयोग नहीं कर सकता था।

पीड़ा इतनी बढ़ी कि मुझे एक फीट भी चलना मुश्किल हो रहा था। लगता था, किसी भी समय प्राण जा सकते हैं क्योंकि पीड़ा का प्रभाव गुप्तांगों में प्रवेश कर चुका था। साथी भी पास में कोई नहीं था। सब निवासस्थान वृन्दावन में पहुँच गये थे। मैं पू. लीलाशाह उपचार केन्द्र के पास वाले स्टॉल के बगल में बैठ गया। 2 कि.मी. कैसे जाऊँ, जबकि एक फीट भी चलना मुश्किल था ? क्या करूँ ?

मैंने पूज्यश्री से मन-ही-मन करूणाभरी प्रार्थना की। मैं प्रार्थना ही कर रहा था कि अचानक किसी ने पुकाराः ʹबापू आये…. बापू आये…..ʹ मैं चौंका ! देखा कि श्वेत वस्त्रधारी मेरे पूज्यश्री मेरे सामने से पधार रहे हैं। मैंने दुःखभरे नेत्रों से उनके दर्शन किये। तनिक पूज्यश्री ने मुझे निहारा। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि पूज्यश्री अपने नेत्रों से कुछ प्रकाश किरणें मेरे शरीर में डाल रहे हैं। उस समय यह असह्य पीड़ा न जाने कहाँ चली गयी थी। मैं सुखद होकर पूज्यश्री के दर्शन करता रहा। मानो ऐसा प्रतीत हो रहा था कि गुरुवर मेरी करूणा-पुकार सुनकर कुछ निमित्त बनाकर आये हों। जबकि कल्पना भी नहीं थी कि पूज्यश्री इस समय मैं जहाँ बैठा था वहाँ आश्चर्यमय रूप से उपस्थित होकर मेरी पीड़ा हर लेंगे।

फिर मैंने देखा कि पूज्यश्री गाड़ी में बैठकर बाहर गये। जब वे ओझल हुए तो पता भी न चला कि मुझे जो असह्य पीड़ा थी, वह कहाँ गई। पश्चात गुरुमंदिर में ठहरे मेरे एक साथी आये। उऩ्होंने मुझे वहीं सुलाया। वहीं आराम पाया।

सचमुच गुरुदेव की कृपादृष्टि मात्र से ही हमारी सारी पीड़ाएँ स्वतः गायब हो जाती हैं। अब तो पूज्यश्री से इतनी ही प्रार्थना है कि हमें जन्म-मरण की पीड़ा से छुटकारा मिल जाए….

मेरे पूज्यश्री ने मेरी रक्षा करके मुझे बचाया है। हे गुरुवर तुम्हारी जय हो !

देवराम राठोड़

जिला परिषद, जलगाँव (महाराष्ट्र)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 1997, पृष्ठ संख्या 26 अंक 50

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शाश्वत स्थान की प्राप्ति


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।

तत्प्रसादात्परां शांतिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।

ʹहे भारत ! तू सर्व भाव से उस परमेश्वर की ही शरण में जा। उसकी कृपा से तू परम शान्ति और शाश्वत स्थान प्राप्त करेगा।ʹ (भगवद् गीताः 18.62)

देह शाश्वत नहीं है अर्थात् सदा रहने वाली नहीं है, देह से मिलने वाली खुशियाँ शाश्वत नहीं हैं, देह को मिलने वाले पद शाश्वत नहीं हैं लेकिन देह का जो आधार है, देह में रहने वाला जो विदेही चैतन्य आत्मा है, वह शाश्वत है और वही परम शान्ति का धाम है।

आज तक जिस किसी को ज्ञान मिला है, प्रेम मिला है, आनंद मिला है, निर्दोष सुख मिला है वह उस शाश्वत चैतन्य के भण्डार से ही मिला है। वही आत्मपद है, सबका असली स्वरूप है। उस सोઽहम् स्वभाव की पवित्रता, शांति, समता, करूणा, प्रेम, आनंद आदि अनादि काल से निखरते आये हैं, निखर रहे हैं और निखरते ही रहेंगे। बुद्धिमानों की बुद्धि, सत्ताधीशों की सत्ता संभालने की कला, धनवानों की धन संभालने की और बढ़ाने की अक्ल, शूरवीरों का शौर्य, तेजस्वियों का तेज, सुन्दरियों का सौन्दर्य एवं सज्जनों की सज्जनता इसी शाश्वत पिटारी से आती है, फिर भी जरा-सी भी कम नहीं होती है। वह शाश्वत चैतन्य परमात्मा अपना आत्मारूप बनकर सदा हमारे साथ है। भगवान कहते हैं-

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।

ʹइस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है।ʹ

हम जितने-जितने उस पूर्ण परमेश्वर में, अपनी आत्मा में तल्लीन होते जाएँगे, उतने-उतने पावन होते जाएँगे, निश्चिंत होते जाएँगे, आनंदित होते जाएँगे…

हम नाश होने वाली देह को ʹमैंʹ मानकर सदा रहने वाले चैतन्य आत्मा की अवहेलना करते हैं, इसलिए परेशानियों के पोटले सिर पर उठाने पड़ते हैं। जबकि उस परमेश्वर की शरण में जाने से आत्मस्वभाव में तल्लीन होने से परेशानियाँ दूर हो जाती हैं और परम शांति मिलती है, इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- तमेव शरणं गच्छ। ʹउस परमात्मा की शरण में जा।ʹ

जो कुछ हो जाये उसमें उस परमात्मा की मर्जी मानो। ʹमान देने वाले में भी तू। मित्र में भी तू और शत्रु में भी तू। अनुकूल परिस्थिति देने वाला भी तू और प्रतिकूलता पैदा करने वाला भी तू। तन्दुरुस्ती में भी तू और रोग में भी तू….ʹ इस प्रकार हर वक्त, हर जगह उस प्रियतम प्रभु को देखोगे तो कोई भी तुम्हें परेशान नहीं कर पायेगा। भेद बुद्धि से दिखाई देनेवाले अलग-अलग नाम रूपों को सच्चा मानने से दुःख, चिंता, अशांति, खिंचाव-तनाव व खूनखराबा होता है जबकि अभेद बुद्धि से ʹसबमें एक ही परमेश्वर की सत्ता, स्फूर्ति, चेतना चमक रही हैʹ ऐसा भाव रखकर व्यवहार करने से ओज-तेज, पवित्रता, आनंद और शांति बढ़ती है।

जो उस परमेश्वर को पाने के लिए अर्थात् अपने आत्मस्वरूप को जानने के लिए प्रयत्न करते हैं, जो अपनी उन्नति चाहते हैं। ऐसे साधकों की, भक्तों की तीन अवस्थाएँ होती हैं-

तस्यैवाहम्। मैं उसका हूँ।

तवैवाहम्। मैं तेरा हूँ।

त्वमेवाहम्। मैं तू ही हूँ।

जैसे किसी लड़की की मँगनी होती है तब वह लड़की मानती हैः ʹमैं उसकी हूँʹ। जब नयी-नयी शादी होती है तब बोलती हैः ʹमैं तेरी हूँ।ʹ फिर पति के घर में रहने लगती है और पुरानी हो जाती है तब कोई आकर उसे पूछेः

“गोविन्दभाई हैं ?”

“वे तो नहीं हैं लेकिन बात क्या है ?”

“मुझे एक चीज चाहिए थी।”

“हाँ, हाँ, ले जाओ। मैं और वे एक ही तो हैं। इसमें क्या पूछना ?”

भक्त की स्थिति भी ऐसी है। ʹमैं उसका हूँʹ माने मँगनी हो गयी। ʹमैं तेरा हूँʹ माने शादी हो गयी। ʹमैं और तू एक ही हैंʹ माना संबंध दृढ़ हो गया, पक्का काम हो गया। जीवात्मा-परमात्मा की शादी के ये लक्षण हैं।

मँगनी के पहले तो लड़की पिता के घर को अपना मानती है। पति के घर का, ससुरालवालों के घर के संबंध का पता ही नहीं होता है। जब मँगनी होती है तब कहती हैः ʹउनका घर है, ससुरालवालों का घर है। फिर नयी-नयी शादी होती है तब ʹमेरे पति का घर हैʹ ऐसा मानती है। जब घर में रहते हुए पुरानी हो जाती है तब ʹहमारा घर हैʹ ऐसा कहने लगती है।

भावो हि विद्यते देवो। जैसा भाव होता है वैसा दिखता है। भाव बदलते हैं तो वही की वही परिस्थिति बदली हुई मालूम पड़ती है। अपना अहंभाव बदल जाय, ʹमैंʹ पना बदल जाय तो ममभाव ʹमेराʹ पना बदल जाता है। अहंता बदलने से ही ममता बदल जाती है। अपनी अहंता को ईश्वर में लगा दो तो ʹमैं भगवान का हूँʹ यह भाव जगेगा और भगवान में प्रीति हो जायेगी तब लगेगा ʹभगवान मेरे हैं।ʹ दृढ़तापूर्वक भगवान से अपनापन मान लोगे तो हृदय में भक्ति की रसधारा बहने लगेगी।

भक्ति की प्रारंभिक दशा में भक्त भगवान को अपने से कहीं दूर मानता है, वह परमेश्वर की चर्चा अन्य पुरुष में करता हैः ʹमैं उसका हूँ।ʹ तस्यैवाहम्।

इस भाव का भी पूर्णरूप से अनुभव कर लिया जाय तो हृदय मधुरता से छलक जायेगा। ʹमैं उसका हूँ तो मेरा जो कुछ है वह भी मेरे प्रभु का है….।ʹ ऐसा भक्त सुबह उठता है तबसे लेकर रात को सोने तक जो कुछ काम करता है उसको अपने प्रिय प्रभु का आदेश समझकर ही करता है। वह अपने घर, सगे-संबंधी, मित्र आदि को भी ईश्वर का समझता है या तो ईश्वर की कृपा से सब मिला है ऐसा मानता है। उससे उसे परम आनंद मिलता है।

जब प्रारंभिक दशा से कुछ उन्नत होता है और ईश्वर से निकटता का अनुभव करता है, तब वह कहता है ʹमैं तेरा हूँ।ʹ इस भाव से ईश्वर को अपने समीप मानता है। पहली दशा मधुर और प्यारी है किंतु यह दशा उससे भी प्यारी और रूचिकर है।

जब भक्ति की पराकाष्ठा आती है, उन्नति की अंतिम अवस्था आती है तब वह ईश्वर को अपना स्वरूप जान लेता है। उस अवस्था में वह कहता है त्वमेवाहम्। ʹमैं तू ही हूँ।ʹ फिर वह भक्त और ईश्वर दो अलग नहीं रहते हैं। दोनों एक हो जाते हैं। ईश्वर का सच्चा प्रेमी ईश्वर में मिल जाता है तो जान लेता हैः ʹमैं वह हूँ। मैं तू हूँ तू मैं है। तू और मैं एक हैं।ʹ यानी जीव ब्रह्म की एकता का अनुभव हो जाता है। यही ज्ञान की उच्चतम अवस्था है। यही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। जो बाहर भीतर सच्चे हैं, वे शुद्ध बुद्धि से इस निश्चय पर पहुँच जाने के बाद निदिध्यासन द्वारा इस निश्चय का अनुभव कर लेते हैं, दिव्य आनंद को पा लेते हैं, वे स्वयं ब्रह्मरूप हो जाते हैं, वे इसी जीवन में मुक्त हो जाते हैं अतः जीवन्मुक्त कहलाते हैं।

ऐसी जीवन्मुक्ति पाना ही हमारे जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। देह को ʹमैंʹ मानते रहोगे और देह के संबंधों को मेरा मानते रहोगे तो काम नहीं चलेगा। ʹमैं गोविंदभाई….. मैं मोहनभाई…. ये मेरे बेटे-बेटियाँ…. यह मेरी पत्नी… यह मेरी दुकान… यह मेरा मकान….ʹ ऐसी बातों में उलझकर जीवन पूरा कर देने वाले तो कई लोग इस संसार में आ-आकर चले गये।

आप भी अगर ज्ञान का विचार नहीं करोगे तो अपने सच्चे स्वरूप को नहीं पहचान पाओगे। जो अपनी अहंता को शरीर ओर शरीर के संबंधों से हटाकर भगवान में लगा देता है, वही देर-सबेर भगवत्स्वरूप को उपलब्ध हो जाता है।

भाव बदलने से ही आधा काम बन जाता है। बाकी का काम ज्ञानसयुक्त जीवन जीने से पूरा हो जाता है। भाव किसी साधन से नहीं बदलता है वरन् ज्ञान से बदलता है।

जैसे, किसी बकरे के गले में फँदा पड़ा हो और आप उसे स्नानादि कराके उसके आगे धूप-दीप करो, पूजा करो, आरती उतारो, मेवा-मिठाई का प्रसाद रखो, फिर भी उससे बंधन नहीं कटेगा लेकिन फँदा कैसा है ? यह देखकर उसे काटने का उपाय सोचो और फँदा काट दो तब काम बनेगा।

ऐसे ही जीवरूपी बकरे के गले में अज्ञान का जो फँदा पड़ा है उसे जरा समझ लो और सत्संग से सेवा से, विवेक-वैराग्य से, विचाररूपी कैंची से काट दो तो मुक्त हो जाओगे। फिर चाहे प्रवृत्ति करो चाहे निवृत्ति लेकिन रहोगे निजानंद में। तब आपको किसी का भय नहीं रहेगा। फिर चाहे मौत भी आ जाय तो मौत के भी आप दृष्टा बन जाओगे। यह मुक्तिपद है ही ऐसा कि जिसे पाकर फिर इस जन्म-मरण के चक्कर में वापस नहीं आना पड़ता।

श्रीकृष्ण कहते हैं-

न तद् भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः।

यद् गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।

ʹजिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य लौटकर संसार में नहीं आते, उस स्वयं प्रकाश परम पद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही, वही मेरा परमधाम है।ʹ (भगवद् गीताः 15.6)

परमात्मा के उस परमधाम को पाने के लिए श्रीकृष्ण कहते हैं- तमेव शरणं गच्छ। तू सर्वभाव से उस परमात्मा की शरण में जा, जो अंतर्यामी आत्मा के रूप में सदा तेरे साथ है। जो अनन्य भाव से उसकी शरण में जाता है वह भी उसी रूप हो जाता है। उसे सबमें अपना-आपा नजर आता है।

दुर्बल में भी ʹमैंʹ और बलवान की गहराई में भी ʹमैंʹ…. शत्रु में भी ʹमैंʹ और मित्र में भी ʹमैंʹ ही नजर आया तो फिर अहंकार, राग-द्वेष, ईर्ष्या, भय आदि के लिए स्थान ही कहाँ बचेगा ?

समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।

न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्।।

ʹजो पुरुष सबमें समभाव से स्थित परमेश्वर को समान देखता हुआ अपने द्वारा अपने को नष्ट नहीं करता, अर्थात् राग-द्वेष आदि विकारों के वश नहीं होता है इससे वह परम गति को प्राप्त होता है। (भगवद् गीताः 13.28)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 1997, पृष्ठ संख्या 3,4,5 अंक 49

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