संत महिमा

संत महिमा


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

गुजरात में नड़ियाद के पास पेटलाद नामक ग्राम में रमणलाल नाम के एक धर्मात्मा सेठ रहते थे। वे चाहते थे क हमारे पेटलाद में शराब की बोतलें नहीं अपितु हरिनाम की, हरिरस की प्यालियाँ बँटे। साधु संतों के प्रति उनका बड़ा झुकाव था।

अति पापियों को तो संत-दर्शन की रुचि भी नहीं होती। जिसके पाप नष्ट होते हैं, उसी की श्रद्धा साधु-संतों में टिकती है। अगर कोई कुकर्म करता है तो उसके पाप जोर पकड़ते हैं एवं वह साधु-संतों का विरोधी हो जाता है।

किसी आदमी के कुल का विनाश होगा या विकास होगा – यह जानना हो तो देखो कि उस आदमी को साधु-संतों के प्रति श्रद्धा है या उनकी निंदा करता है ? उस आदमी के विचार ऊँचे हैं या हल्के हैं ?

मुझे भविष्य में सुख मिलेगा कि दुःख – यह मैं अभी जान सकता हूँ। अगर मेरे मन में कुकर्म के विचार आ रहे हैं, परदोष दर्शन हो रहा है, दूसरे को गिराकर, छल-कपट करके ऊँचा होना चाहता हूँ तो मेरे भविष्य में अशांति और दुःख लिखा है। अगर मैं दूसरे की भलाई चाहता हूँ, कष्ट सहकर भी परोपकार करना चाहता हूँ तो मेरा भविष्य उज्जवल है।

अगर मन में बुरे विचार आते हैं तो हमारा कर्त्तव्य है कि उन्हें काट दें। जो व्यक्ति अपने-आपको नहीं संभालता है, उसको देवता भी कब तक संभालेंगे ? भगवान भी कब तक संभालेंगे ?

हिम्मते बंदा तो मददे खुदा। बेहिम्मत बंदा तो बेज़ार खुदा।।

सत्कर्म करने में हिम्मत करनी चाहिए। मन तो धोखा देगा कि ʹअपना क्या…. अपना क्या ? अरे ! अपने पेट के लिए, अपने परिवार के लिए तो कुत्ता भी जी लेता है लेकिन जो रब के लिए, समाज की आध्यात्मकि उन्नति के लिए जीते हैं, उनका जीवन धन्य हो जाता है।

रमणलाल ऐसे ही पुण्यात्मा सेठ थे। गाँव में साधु-संतों को बुलाकर, उनका बड़ा आदर-सत्कार करते थे। भगवत्परायण साधु-संतों को सदगुरु मानकर उनके आश्रम में स्वयं भी यदा-कदा जाया करते एवं जहाँ जाकर चुपचाप सेवा करते थे।

संतों का हृदय ही ऐसा होता है कि वे किसी की सेवा नहीं लेते हैं और यदि लेते भी हैं तोत उसका कल्याण करने के लिए लेते हैं।

संत की महिमा वेद न जाने। जेता जाने तेता बखाने।।

एक संत हजारों असंतों को संत बना सकते हैं लेकिन हजारों संसारी मिलकर भी एक संत नहीं बना सकते। संत बनना कोई मजाक की बात नहीं है। एक नेता जाता है तो उसकी कुर्सी पर दस आ जाते हैं लेकिन भारत में दस ब्रह्मज्ञानी संत इस संसार से चले और एक भी उनकी जगह पर नहीं आया।

एक संत कइयों की डूबती नैया को पार लगा सकते हैं, कई पापियों को पुण्यात्मा बना सकते हैं, कई अभागियों को भाग्यवान बना सकते हैं, कई नास्तिकों को आस्तिक बना सकते हैं, अभक्तों को भक्त बना सकते हैं, अशांतों को शांत बना सकते हैं और शांत में शांतानंद प्रगट कराके उसको मुक्त महात्मा बना सकते हैं।

राजा सुषेण नाव में यात्रा करते-करते कहीं जा रहे थे। मार्ग में आँधी तूफान आने की वजह से उनकी नाव खतरे में पड़ गयी, जिससे उनकी पत्नी, उनके इकलौते पुत्र, उनके स्वयं के तथा एक महात्मा के प्राण संकट में पड़ गये।

यह देखकर राजा सुषेण पुकार उठेः “बचाओઽઽઽ ! और किसी को भले नहीं, लेकिन इन महात्मा जी को बचा लो….”

वे एक बार भी यह नहीं बोले कि ʹरानी को बचाओ…. पुत्र को बचाओ…. मुझे बचाओ…..ʹ नहीं नहीं। उन्होंने तो बस, रट लगा  दी कि ʹबाबाजी को बचाओ…. बाबा जी को बचाओ….ʹ

बड़ी मुश्किल से, दैवयोग से नाव किनारे लगी। राजा के जी-में-जी आया। किनारे पर उतरकर मल्लाह ने कहाः “राजन ! आपने एक बार भी नहीं कहा कि मुझे बचाओ, रानी को बचाओ, राजकुमार को बचाओ। बस, बाबाजी को बचाओ, ऐसा क्यों ?”

राजाः “ऐसा बेटा तो दूसरा भी आ सकता है। रानियाँ भी कई आती और जाती हैं। मेरे जैसे राजा भी कई हैं। मेरे मर जाने के बाद दूसरा गद्दी पर आ जायेगा लेकिन ये हजारों के दिल की गद्दी पर दिलबर को बैठाने वाले संत बड़ी मुश्किल से आते हैं इसलिए ये बच गये तो समझो, सब बच गये। इनकी सेवा हो गयी तो समझो, सबकी सेवा हो गयी।”

सेठ रमणलाल भी इसी भाव के अनुसार अपनी संपत्ति को संतसेवा में लगा देते। लोग उन्हें कहते कि ʹकुछ हमारा पैसा भी स्वीकार कर लेंʹ तो वे कहतेः “अभी नहीं, भाई ! दान के पैसे हैं लोहे के चने। इसका सदुपयोग करेंगे तो कुल आबाद होगा, नहीं तो सात पीढ़ी कंगाल हो जायेगी। मुझे अभी जरूरत नहीं है। जब जरूरत होगी, तब तुमसे ले लूँगा। पहले अपना लगाऊँगा।”

दान अपने घर से शुरु होता है, सेवा अपने शरीर से शुरु होती है, भक्ति अपने मन से शुरु होती है और आत्मज्ञान अपनी सदबुद्धि से शुरु होता है।

सत्संग सुनते-सुनते सेठ रमणलाल की बुद्धि बहुत तेजस्वी हो गयी। देखो, सत्संगी हो चाहे कुसंगी हो, अच्छा आदमी हो चाहे बुरा आदमी हो, चढ़ाव-उतार के दिन तो सबके आते ही हैं। श्रीराम के भी आते हैं और रावण के भी आते हैं। तब भी श्रीराम हृदय से पवित्र रहते हैं, सुखी रहते हैं और चढ़ाव के दिन आते हैं तब भी निरहंकारी रहते हैं। जबकि पापी आदमी के चढ़ाव के दिन आते हैं तो वह घमंड में मरता है और उतार के दिन आते हैं तो विषाद में कुचला जाता है।

सन् 1950-52 के आसपास का समय था। सेठ रमणलाल के भी उतार के दिन आये। पेटलाद में हाहाकार मच गया कि ʹइतना धर्मात्मा किन्तु दिवाला निकलने की नौबत !ʹ सेठ रमणलाल स्वयं भी बड़े चिंतित थे। उस समय लोग कहने लगेः ʹअरे ! इतना बड़ा सत्संग हाल बनाया, संतों की इतनी सेवा की, फिर भी उनका दिवाला निकल रहा है…!ʹ

वास्तव में सत्संग करने से सेठ रमणलाल का धंधा ठप्प नहीं हो रहा था, वरन् इस समय बाजार की मंदी एवं उतार का समय होने से धंधा ठप्प हो रहा था। किन्तु सत्कर्मों की वजह से ऐसी विकट परिस्थिति में भी सेठ रमणलाल में काफी समझ थी। अतः वे एक महात्मा के पास गये, जिनका नाम था नारायण मुनि। उनके पास जाकर रमणलाल ने कहाः

“महाराज ! दिल खोलकर बात बताता हूँ कि नौकरों ने कुछ उल्टा-सीधा किया है, बाजार थोड़ी मंदी है और जिन लोगों ने मेरे पास डिपाजिट रखी थी, उन लोगों का विश्वास टूट गया है। सब एक साथ डिपाजिट लेने आ रहे हैं। अतः अब रातों-रात दिवाला निकलने के सिवाय मेरे पास कोई चारा नहीं रह गया है। फिर भी सत्संग किया है, सत्कर्म किया है इसलिए बुद्धि में यह प्रेरणा आयी है कि चलूँ, संत से कुछ मार्गदर्शन ले लूँ।”

यह सत्संग का फल है। कष्ट है, भारी कष्ट है। सात पीढियों को कलंक लगे कि ʹयह दिवालिया है।ʹ और उधर परलोक में भी दुःख भोगना पड़े, ऐसा अवसर आ रहा है। फिर भी बचने की जगह पर जा रहे हैं।

नारायण मुनि ने कहाः “जब दिवाला निकालने का तुमने सोच ही लिया है तो कुछ-न-कुछ रकम अपने हाथों में करने की योजना बनायी होगी। कोई भी आदमी दिवाला निकालने के पहले अपना कुछ-न-कुछ पैसा बचा लेता है। सच बता, तूने कितना सरकाया है ?”

रमणलालः “महाराज ! अभी थोड़ा इधर-उधर करूँगा, तो लाख-सवा लाख रूपये मेरे हाथ में आ जायेंगे।”

नारायण मुनिः “अच्छा, तो वह सवा लाख रूपये तू मुझे दे दे। मैं उससे इधर पाठशाला खोलूँगा और तेरी रक्षा भगवान करेंगे।”

रमणलालः “जो आज्ञा, महाराज !”

दिवाला निकलने में जो लाख-सवा लाख रूपये की रकम बचेगी, उसे भी नारायण मुनि माँग रहे हैं और रमणलाल स्वीकार कर रहे हैं…. कैसी उत्तम समझ है “!

नारायण मुनि ने घोषणा कर दी कि ʹसेठ रमणलाल की तरफ से मैं पाठशाला बनवा रहा हूँ।”

डिपाजिट माँगने वालों ने सुना कि ʹसेठ दिवालियाँ हैं और वे तो सवा लाख रूपये पाठशाला के लिए दे रहे हैं ! वे दिवालिया कैसे हो सकते हैं ? अरे ! डिपाजिट दें तो उन्हीं को दें।ʹ

सारी डिपाजिट उनके पास वापस आ गयी और रमणलाल गिरते-गिरते ऐसे चढ़े कि बाद में तो उन्होंने कई सत्कर्म किये, कई भण्डारे किये और साधु-संतों की खूब सेवा की। ʹरमणलाल औषधालयʹ, नाराण मुनि पाठशाला आदि आज भी उनके सत्कर्म की खबरें दे रहे हैं…. आदमी चाहे छोटा हो तो भी अपने सत्कर्मों से महान बन जाता है।

सूरत से कीरत भली बिना पाँख उड़ जाय।

सूरत तो जाती रही कीरत कबहुँ न जाय।।

शबरी भीलन को पता था क्या ? धन्ना जाट को पता था क्या ? बाला-मरदाना को पता था क्या कि लोग हमें याद करेंगे ? नहीं। वे तो लग गये गुरु की सेवा में, बस… और ऐसा नहीं कि गुरु ने सदैव वाहवाही ही की होगी कि ʹशाबाश बेटा ! शाबाश।ʹ नहीं, कई बार डाँटा और फटकारा भी होगा।

जो वाहवाही का गुलाम होकर धर्म का काम करेगा, उसकी वाहवाही कम होगी या डाँट पड़ेगी तो वह विरोधी हो जायेगा। लेकिन जिसको वाहवाही की परवाह ही नहीं है, भगवान के लिए भगवान का काम करता है, गुरु के लिए गुरु का काम करता है, समाज को ऊपर उठाने के लिए सत्कर्म करता है तो उसको हजार फटकार पड़े तब भी वह गुरु का द्वार, हरि का द्वार, संतों का द्वार नहीं छोड़ेगा।

तीन प्रकार के लोग होते हैं- किसी का मन होता है तमोगुण प्रधान श्रद्धावाला। किसी की राजसिक श्रद्धा होती है और किसी-किसी की सात्त्विक श्रद्धा होती है।

तामसिक श्रद्धावाला देखेगा कि इतना दूँ और फटाक से फायदा हो जाये। अगर फायदा हुआ तो और दाव लगायेगा। जैसे सटोरी होते हैं न, पंजे से छक्का, अट्ठे से दहलावाले… एक बार-दो बार आ गया तो ठीक, वह दारू भी पिला देगा महाराज को और मुर्गियाँ भी ला देगा और महाराज भी ऐसे ही होते हैं।

आगे गुरु पीछे चेला। दे नरक में ठेलम ठेला।।

….तो तामसी लोग ऐसा धंधा करते हैं और आपस में झगड़ मरते हैं।

राजसी आदमी की श्रद्धा टिकेगी लेकिन कभी-कभी डिगेगी भी, कभी टिकेगी-कभी डिगेगी, कभी टिकेगी-कभी डिगेगी। अगर टिकते-टिकते उसका पुण्य बढ़ गया, सात्त्विक श्रद्धा हो गई तो हजार विघ्न आ जायें, हजार बाधाएँ आ जायें, हजार मुश्किलें आ जायें फिर भी उसकी श्रद्धा नहीं डिगती और वह पार पहुँच जाता है। इसीलिए सात्त्विक लोग बार-बार प्रार्थना करते हैं- “हे मुकद्दर ! तू यदि धोखा देना चाहता है तो मेरे दो जोड़ी कपड़े, गहने-गाँठें कम कर देना, रूपये पैसे कम कर देना लेकिन भगवान और संत के श्रीचरणों के प्रति मेरी श्रद्धा मत छीनना।ʹ

श्रद्धा बढ़ती-घटती, कटती-पिटती रहती है लेकिन उनके बीच से जो निकल जाता है, वह निहाल हो जाता है। उसका जीवन धन्य हो जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 1998, पृष्ठ संख्या 16-19, अंक 71

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