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भारतः ज्ञानपूर्ण गुलदस्ता


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

भारत हमेशा ज्ञान का पुजारी रहा है। पुराणों में जो कहा गया है वही आपके सिर पर थोप दिया जाये, ऐसा भारतीय संस्कृति नहीं मानती है। भारतीय संस्कृति संस्थापक कोई पीर, पैगम्बर या कोई एक ऋषि नहीं हैं। अगर एक ही ऋषि ने भारतीय संस्कृति की स्थापना की होती या एक ही काल में सब ऋषि हो गये होते और उनके द्वारा यह संस्कृति अस्तित्त्व में आती तो ज्ञान की इतिश्री हो गयी होती, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

भारत में कई ऋषि-मुनि हो गये। अलग-अलग कालों में अलग-अलग ऋषि हुए। मनु महाराज कहते हैं- “अगर मेरा ज्ञान तर्कसंगत है और तुम्हारे हित का है तो उसका आदर करो, नहीं तो मत मानो।” श्रीकृष्ण ने अर्जुन को पूरी गीता सुना दी और फिर अर्जुन से कहाः यथेच्छसि तथा करु। जैसी तुम्हारी इच्छा हो अर्थात् शुद्ध मति और हृदय दोनों के तालमेल से जो तुम्हें अच्छा लगे, वह तुम करो।”

थोपने का काम भारतीय संस्कृति में नहीं है जबकि अन्य मजहबवाले कहते हैं- “जो लिखा है, बस उसे मान लो।” …लेकिन ज्ञान किसी चारदीवारी जेल की तरह किताबों में कैद नहीं हो सकता। ज्ञान नित्य नवीन होता है, नित्य नवीन रस देता है, नित्य नवीन प्रकाश देता है।

हमारा ज्ञान कहता है कि सबमें आपका अपना-आपा परमेश्वर ज्यों-का-त्यों है। इसलिए भारतवासी जिस किसी को अपना बनाने में सफल हो जाते हैं, जिस किसी देश में, जिस किसी भाषावाले लोगों में आसानी से घुल मिल जाते हैं। किसी देश में कोई मत चलता है, किसी देश में कोई धर्म चलता है लेकिन इस देश ने सबको स्वीकार किया, सबको अपने विचार कहने का मौका दिया। कणाद ऋषि कहते हैं कि “सृष्टि परमाणुओं से बनी है…ʹ उनको भी मौका मिला। बुद्धवादी बोलते हैं कि ʹक्षण-क्षण में सब नाश हो रहा है…ʹ – उनको भी मौका मिला। भगवदवादी बोलते हैं कि ʹसृष्टि ईश्वर का संकल्प है….ʹ उनको भी मौका दिया गया।

जैसे भिन्न-भिन्न फूलों से गुलदस्ते की शोभा बढ़ती है, ऐसे ही जिस देश में भिन्न-भिन्न मतांतर हैं वे उस देश की शोभा हैं, गरिमा हैं। विविधता के जगत में यह देश शाहनशाह है।

परदेश के लोग बोलते हैं- “क्या तुम्हारे यहाँ इतने भगवान हैं-भगवान शंकर, भगवान कृष्ण, भगवान राम ?”

उन लोगों को पता नहीं कि शंकराचार्य ने तो पाणिनी मुनि को भी भगवान कहा क्योंकि वे ज्ञान के उपासक थे। ज्ञान ही भगवान है। वे ज्ञान में रम गये थे, विद्या में रम गये थे। सरस्वती को भी यहाँ भगवती मानते हैं। भगवती को अंबा और दुर्गा के रूप में भी मानते हैं। यहाँ ʹसत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्मʹ की पूजा होती है।

हमारा मन बहुआयामी है, विविधता पसंद करता है। दो मीटर कपड़ा खरीदना होता है तब भी चार दुकानों में घूमते हैं, दो चार डिजाइनें देखते हैं फिर खरीदते हैं। ….तो जिसको अपना सर्वस्व देकर पाना है उसे चाहे जो रूप पसंद आये, उसी रूप में भजें इसमें बुरा क्या है ? उस अनंत को पाने का एक ही पंथ और एक ही ग्रंथ होगा क्या ? अनेक रूपों में उसी की उपासना करते हैं और अऩेक ग्रंथों में उसी के ज्ञान का विवरण है। वेद भी हैं, उपनिषद् भी हैं, ब्रह्मसूत्र भी हैं, गीता भी है। और भी कई ग्रंथ हैं। दुनिया की 578 भाषाओं में श्रीमदभगवदगीता के अनुवाद हो चुके हैं। जिस समय के ग्रंथ में जो कहा गया हो, वह उस समय के लोगों के लिए उनक अपना रहा होगा। इस समय जो कहा जाय वह इस जमाने के लोग और कहने वाले की क्षमता के अनुसार होगा।

किसी ग्रंथ में लिखा होगा किः ʹब्रह्मचारी को नंगे पैर घूमना चाहिए। ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। धरती पर सोना चाहिए।ʹ

आचार्य  विनोबा जी ने लिखा है किः “ऐसे ब्रह्मचर्य व्रत का पालन मैंने किया है। यह सब जब लिखा गया था, तब गुरुकुल नदी के किनारे होते थे। चारों ओर हरियाली होती थी, डामर की सड़कें नहीं थीं। इतनी भाग-दौड़ की जिन्दगी नहीं थी। अब की परिस्थिति कुछ और है। मैं नंगे पैर सड़कों पर घूमा किन्तु फायदा होने की जगह नुकसान हुआ। मेरी आँखों पर बहुत बुरा असर पड़ा। तब मुझे पता चला कि उस समय की परिस्थिति में और उस समय की परिस्थिति में क्या फर्क है।”

विनोबाजी ने अपनी गल्ती को स्वीकार करके ज्ञान के नवीन प्रकाश को स्वीकार किया।

जिस किसी मत, पंथ, विचार में जितनी सच्चाई होगी, व्यापकता होगी, जितना वह ʹबहुजनहिताय बहुजनसुखायʹ होगा उतना उसका प्रचार होगा, उतना वह टिकेगा।

लोगों को डर लगता है किः ʹहमारे मत-पंथ के लिए कुछ न कहो, लोगों की श्रद्धा टूट जाएगी…..ʹ

टी.बी. के मरीज को जरा-सी हवा लगे तो ʹबीमार हो जाऊँगा…ʹ ऐसा मरने का भय उसे सदा रहता है। ऐसे शव को लेकर घूमने की जररूत भी क्या है ? जरा से आँधी-तूफान जिसको गिरा देते हैं ऐसे वृक्ष को पहले से ही गिरा हुआ समझो।

ऐसे ही जिस मत या पंथ को विचार की कसौटी गिरा देती है वह तो पहले से ही खोखला है। जो मत या विचार किसी कसौटी पर खरा उतरता है वही सच्चा है। भारतीय संस्कृति ने इस बात को सदा स्वीकार किया है। ऐसे शुद्ध, बलिष्ठ, उन्नत विचारों का आदर करना चाहिए और ज्ञानपूर्वक जीवन जीना चाहिए। जो खुराक बच्चे के लिए बहुत उपयोगी है वह पहलवान के लिए व्यर्थ है और जो पहलवान के लिए हितकारी है वह बच्चे के लिए व्यर्थ है। प्रत्येक के लिए जो उचित हो, वैसा ही आहार-व्यवहार होना चाहिए। उसमें साधारण समझ का उपयोग करना चाहिए।

यस्य ज्ञानमयं तपः…..

ʹआस्तिक बनो। धर्म को साथ लो।ʹ इसका मतलब क्या ? केवल पूजा-कक्ष में बैठना ही धर्म नहीं है। यज्ञ की वेदी पर ही धर्म संपन्न नहीं होता है। युद्ध के मैदान में भी धर्म को साथ रखो, ज्ञान को साथ रखो, समझ को साथ रखो। उचित, अनुचित के विवेक को जागृत रखो। बाजार में व्यापार में भी ज्ञान को, समझ को साथ रखो। घर-परिवार में भी समझ को साथ रखो, ज्ञान का आदर करो। सोते-जागते, खाते-पीते, उठते-बैठते भी धर्म को, ज्ञान को साथ रखो, भगवान को साथ रखो। भगवान को मत भूलो, ज्ञान को मत भूलो।

ज्ञान का आदरच जितना भारत देश ने किया है, उतना और किसी ने नहीं किया है।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने ʹशांति निकेतनʹ की स्थापना की। दुनिया के सभी धर्मों के ऋषियों का, उनके ज्ञान का आदर किया। यहाँ एमर्सन और महात्मा थोरो जैसे पश्चिम के विचारकों के ज्ञान का भी आदर किया गया है और एकनाथ महाराज, तुकाराम महाराज, ऋषि दयानंद जी, नानक जी, कबीर जी लीलाशाहजी महाराज के ज्ञान का भी आदर किया गया है। चाहे आईन्स्टीन जैसे वैज्ञानिक हों, चाहे कोई प्रकृति प्रेमी हो या समाजसेवक हो, जो भी ʹबहुजनहिताय बहुजनसुखायʹ अपने को समर्पित कर देते हैं, ऐसे व्यक्तियों का सत्कार भारतवासियों ने किया है, चाहे वे देशी हों या विदेशी हों। भारत ने जितने अन्य मत-पंथ-मजहबों को गले लगाया है ऐसा और किसी देश ने नहीं किया है। कुछ देश तो ऐसे हैं जहाँ आप मंदिर नहीं बना सकते। उनको भी हम कहते हैं कि आप हमारे हैं क्योंकि हमारी संस्कृति ने हमें यही सिखाया है कि सबके मूल में वही एक ʹसत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्मʹ है। हम सहिष्णु हैं, उदार हैं लेकिन सहिष्णुता और उदारता के नाम पर कायरता को पोषण देने वाले नहीं हैं। भगवान श्रीकृष्ण भी कहते हैं-

क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप। (गीताः2.3)

ʹदुष्टों को तपाने वाले हे परंतप ! अपने हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्यागकर उठो।ʹ

यह ज्ञान का आदर है। हमारा भारत परम गहन ज्ञान की नींव पर खड़ा है। भले अभी हम थोड़ा-बहुत इसे भूल गये हैं, लेकिन यह ज्ञान और इस ज्ञान के देने वाले गुरु अभी भी इस देश में हैं। यह ज्ञान नष्ट नहीं हुआ है। यह फिर से पनपेगा और भारत आध्यात्मिकता के शिखर पर पहुँचकर पुनः विश्व का गुरु बनेगा, बिल्कुल पक्की बात है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 1999, पृष्ठ संख्या 11,12,13 अंक 82

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जमीकन्द-सूरन


आयुर्वेद के मतानुसार सभी प्रकार की कन्द-सब्जियों में सूरन सर्वश्रेष्ठ है। बवासीर के रोगियों को आज भी वैद्य सूरन एवं छाछ पर रहने के लिए कहते हैं। आयुर्वेद में इसीलिए इसे ʹअर्शोघ्नʹ भी कहा गया है।

गुणधर्मः सूरन की दो प्रजातियाँ पायी जाती हैं-लाल और सफेद। लाल सूरन को काटने से हाथ में खुजली होती है। यह औषधि में ज्यादा प्रयुक्त होता है जबकि सफेद सूरन का उपयोग सब्जी बनाने में किया जाता है।

आयुर्वेद के अनुसार सूरन पचने में हल्का, रूक्ष, तीक्ष्ण, कड़वा, कसैला और तीखा, उष्णवीर्य, कफ एवं वातशामक, रूचिवर्धक, शूलहर, आर्तव (मासिक) बढ़ाने वाला, बलवर्धक, यकृत (लीवर) के लिए उत्तेजक एवं बवासीर (अर्श), गुल्म एवं प्लीहा के दर्द में पथ्यकारक है।

सफेद सूरन अरूचि, अग्निमांद्य, कब्जियत, उदरशूल, गुल्म (वायुगोला), आमवात, यकृत-प्लीहा के मरीजों के लिए तथा कृमि, खाँसी एवं श्वास की तकलीफवालों के लिए उपयोगी है। सूरन पोषक रसों का शोषण करके शरीर में शक्ति उत्पन्न करता है। पूरे दिन की बेचैनी, अपच, गैस, खट्टी डकारें एवं हाथ पैरों में दर्द के साथ शारीरिक रूप से कमजोर व्यक्तियों के लिए सूरन का उपयोग लाभप्रद है।

लाल सूरन स्वाद में कसैला, तीखा, पचने में हल्का, रूचिकर, दीपक, पाचक, पित्त करने वाला एवं दाहक है तथा कृमि, कफ, वायु, दमा, खाँसी, उल्टी, शूल, वायुगोला आदि रोगों का नाशक है। लाल सूरन उष्णवीर्य, जलन उत्पन्न करने वाला, वाजीकारक ,कामोद्दीपक, मेदवृद्धि, बवासीर एवं वायु तथा कफ विकारों से उत्पन्न रोगों के लिए विशेष लाभदायक है।

हृदयरोग, रक्तस्राव एवं कोढ़ के रोगियों को सूरन का सेवन नहीं करना चाहिए।

सूरन की सब्जी ज्यादा कड़क या कच्ची न रहे ढंग से बनानी चाहिए। ज्यादा कमजोर लोगों के लिए सूरन का अधिक सेवन हानिकारक है। सूरन से मुँह आना, कंठदाह या खुजली जैसा हो तो नींबू अथवा इमली का सेवन करें।

बवासीर (मस्से-अर्श) में औषधि-प्रयोग

सूरन के टुकड़ों को पहले उबाल लें और फिर सुखाकर चूर्ण बना लें। यह चूर्ण 320 ग्राम, चित्रक 160 ग्राम, सोंठ 40 ग्राम, काली मिर्च 20 ग्राम एवं गुड़ 1 किलो। इन सबको मिलाकर बेर जैसी छोटी-छोटी गोलियाँ बना लें। इसे ʹसूरन वटकʹ कहते हैं। प्रतिदिन सुबह शाम 3-3 गोलियाँ खाने से बवासीर में लाभ होता है।

सूरन के टुकड़ों को भाप में पकाकर तथा तिल के तेल में बनाई गई सब्जी का सेवन करने से एवं ऊपर से छाछ पीने से सभी प्रकार की बवासीर में लाभ होता है। यह प्रयोग 30 दिन तक करें।

साँईं श्री लीलाशाहजी उपचार केन्द्र,

संत श्री आसारामजी आश्रम,

जहाँगीरपुरा, वरियाव रोड, सूरत

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 1999, पृष्ठ संख्या 29,30 अंक 82

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चार प्रकार के बल


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

जीवन में सर्वांगीण उन्नति के लिए चार प्रकार के बल जरूरी हैं- शारीरिक बल, मानसिक बल, बौद्धिक बल, संगठन बल।

पहला बल है शारीरिक बल। शरीर तंदरुस्त होना चाहिए। मोटा होना शारीरिक बल नहीं है, वरन् शरीर स्वस्थ होना शारीरिक बल है।

दूसरा बल है मानसिक बल। जरा-जरा बात में गुस्सा हो जाना, जरा-जरा बात में डर जाना, चिढ़ जाना-यह कमजोर मन की निशानी है। जरा-जरा बात में घबराना नहीं चाहिए, चिंतित-परेशान नहीं होना चाहिए, वरन् अपने मन को मजबूत बनाना चाहिए।

तीसरा बल है बुद्धिबल। शास्त्र का ज्ञान पाकर अपना, कुल का समाज का, अपने राष्ट्र का एवं पूरी मानव जाति का कल्याण करने की जो बुद्धि है, वही बुद्धिबल है।

शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक बल तो हो किन्तु संगठनबल न हो तो व्यक्ति व्यापक कार्य नहीं कर सकता। अतः जीवन में संगठन बल का होना भी आवश्यक है।

ये चारों प्रकार के बल कहाँ से आते हैं ? इन सब बलों का मूल केन्द्र है आत्मा। अपना आत्मा-परमात्मा विश्व के सारे बलों का महाखजाना है। बलवानों का बल, बुद्धिमानों की बुद्धि, तेजस्वियों का तेज, योगियों का योग-सामर्थ्य सब वहीं से आते हैं।

ये चारों बल जिस परमात्मा से प्राप्त होते हैं उस परमात्मा से प्रतिदिन प्रार्थना करनी चाहिए।

ʹहे भगवान ! तुझमें सब शक्तियाँ हैं। हम तेरे हैं, तू हमारा है। तू पाँच साल के ध्रुव के दिल में प्रगट हो सकता है, तू प्रह्लाद के आगे प्रगट हो सकता है….. हे परमेश्वर ! हे पाण्डुरंग ! तू हमारे दिल में प्रगट होना….ʹ

इस प्रकार हृदयपूर्वक, प्रीतिपूर्वक व शांत भाव से प्रार्थना करते-करते प्रेम और शांति में सराबोर होते जाओ। प्रभुप्रीति और प्रभुशांति सामर्थ्य की जननी है। संयम और धर्मपूर्वक इन्द्रियों को नियंत्रित रखकर परमात्मशांति में अपनी स्थिति बढ़ाने वाले को इस आत्म-ईश्वर की संपदा मिलती जाती है। इस प्रकार प्रार्थना करने से तुम्हारे भीतर परमात्मशांति प्रगट होती जायेगी और परमात्मशांति से आत्मिक शक्तियाँ प्रगट होती है जो शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं संगठन बल को बड़ी आसानी से विकसित कर सकती हैं।

हे विद्यार्थियों ! तुम भी आसन-प्राणायाम आदि के द्वारा अपने तन को तंदरुस्त रखने की कला सीख लो। जप-ध्यान आदि के द्वारा मन को मजबूत बनाने की युक्ति जान लो। संत महापुरुषों के श्रीचरणों में आदरसहित बैठकर उनकी अमृतवाणी का पान करके एवं शास्त्रों का अध्ययन कर अपने बौद्धिक बल को बढ़ाने की कुंजी जान लो एवं आपस में संगठित होकर रहो। यदि तुम्हारे जीवन में ये चारों बल आ जायें तो तुम्हारे लिए फिर कुछ भी असंभव न होगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 1999, पृष्ठ संख्या 26, अंक 82

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