Yearly Archives: 1999

उन्नति के चार सूत्र


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग प्रवचन से

संसाररूपी युद्ध के मैदान में परमात्मा को किस तरह पाया जा सकता है ? यह ज्ञान यदि पाना हो तो इसके लिए ʹश्रीमद् भगवदगीताʹ है। मृत्यु को किस तरह सुधारा जा सकता है ? यह ज्ञान यदि पाना हो तो राजा परीक्षित का अनुकरण करो।

परीक्षित राजा जब विचरण करते थे तब यह चिंतन करते थे कि आखिर क्या ? संसार के सब काम पूरे हो गये तो क्या और अधूरे रह गये तो क्या ? ऋषि कुमार शमीक का शाप मिलने से उनके चित्त में वैराग्य तो था ही। जब शुकदेवजी जैसे महान ब्रह्मवेत्ता का सत्संग मिल गया एवं आत्मचिन्तन में तत्परता से लग गये तो मात्र सात दिनों में ही उन्होंने परम तत्त्व का साक्षात्कार कर लिया। परमात्म-शांति पाई और परमात्म-शांति का उदगम स्थान अपने ʹसोहंʹ स्वभाव को भी जान लिया।

यदि तुम भी अपना काम शीघ्र बनाना चाहते हो, भागवत के धर्म को पाना चाहते हो तो परीक्षित की तरह सजाग हो जाओ कि ʹइतना खाया, इतना पिया, इतना घूमा, इतना छल-कपट किया लेकिन आखिर में इनमें क्या काम आयेगा ?

साधक को अपनी दिनचर्या का विश्लेषण करना चाहिए। महीने भर अथवा साल भर की योजना न बनायें वरन् रोज सुबह योजना बनायें किः ʹआज चाहे कुछ भी हो जाये, बेहोशी में नहीं जीऊँगा, होश में ही जीऊँगा, सजाग रहूँगा। जो कुछ भी करूँगा, खाऊँगा, पियूँगा, लूँगा-दूँगा, उसका परिणाम क्या होगा ? इसका पहले विचार करूँगा। मेरी सारी क्रियाएँ, सारी चेष्टाएँ ईश्वर की ओर ले जाने वाली हैं या ईश्वर से विमुख करने वाली हैं ? ऐसा पहले चिन्तन करूँगा….ʹ इस प्रकार विचार करके कर्म करते रहने से साधक को ईश्वराभिमुख होने में सहायता मिलती है।

यदि अपने चिंतन का, अपनी बुद्धि का सदुपयोग करने की  कला आ जाये तो मनुष्य संसार में खूब आनंद से, खूब शांति से एवं खूब प्रेम से जी सकता है। स्वर्ग के सुख से वह कई गुना ज्यादा सुख पा सकता है। मृत्यु के पहले और बाद भी मुक्ति का अनुभव कर सकता है।

भगवदगीता के सोलहवें अध्याय का उद्देश्य ही यह है कि मनुष्य अपने आत्मदेव के ज्ञान को पाकर मुक्त हो जाये। आसुरी वृत्तियों से किस प्रकार बचा जाये, सांसारिक बंधनों से किस प्रकार छूटा जाये और मुक्ति सरलता से मुट्ठी में कैसे आये ? इसके लिए गीता का सोलहवाँ अध्याय दैवी संपत्ति का अर्जन करने लिए कहता है। दैवी संपत्ति में निर्भयता, मौन, तप, आहार-संयम आदि गुण हैं।

मनुष्य को जीवन में निर्भय होना चाहिए। ʹशादी विवाह में इतना खर्च नहीं करूँगा तो बेइज्जती होगी…. उधार लेकर भी फर्नीचर नहीं खरीदूँगा तो लोग क्या कहेंगे…. इस प्रकार के कई भय मनुष्य को सताते रहते हैं। जिस काम से तुम्हारा चित्त भयभीत होता हो एवं दूसरों की खुशामद करने में लगता हो, उसे छोड़ दो। तुम तो केवल अपने अंतर्यामी परमात्मा को राजी करने का प्रयत्न करो। पफ-पावडर, लिपस्टिक-लाली आदि से शरीर को नहीं सजायेंगे तो लोग क्या कहेंगे ? इसकी परवाह न करो। ʹबाहर के इन सौन्दर्य-प्रसाधनों का उपयोग करके हमें लोगों का भोग्य नहीं बनना है वरन् हमें तो लोकेश्वर को पाने वाला साधक बनना है।ʹ ऐसा निश्चय करके अपना जीवन संयमी, सादा एवं पवित्र बनाना चाहिए।

जीवन में निर्भयता लाओ। शराबी कहता है किः ʹचलो मित्र ! शराब पियें।ʹ अब यदि तुम शराब नहीं पीते हो तो मित्र नाराज हो जाते हैं और यदि पीते हो तो तुम्हारी बरबादी होती है। फिर क्या करें ? अरे, मित्र नाराज होते हैं तो होने दो परन्तु शराब नहीं पीना है-यह निश्चय दृढ़ रखो। जो लोग तुम्हें खराब काम, हल्की संगति और हल्की प्रवृत्तियों की तरफ घसीटते हैं उनसे निर्भय हो जाओ लेकिन माता-पिता, गुरु, शास्त्र एवं भगवान क्या कहेंगे ? इस बात का डर रखो। ऐसा डर रखने से चित्त पवित्र होने लगता है क्योंकि ऐसा डर हल्के कामों, हल्की प्रवृत्तियों एवं हल्की संगति से बचाने वाला होता है।

हरि डर गुरु डर जगत डर, डर करनी में सार।

रज्जब डरिया सो उबरिया, गाफिल खायी मार।।

जीवन में निर्भयता आनी ही चाहिए। झूठे आडंबरों से बचने के लिए निर्भय बनो। आप मेहमानों को भिन्न-भिन्न प्रकार के अच्छे-अच्छे एवं तले हुए व्यंजन न खिला सको तो कोई बात नहीं, चिंता मत करो। परंतु यदि तुम सच्चे दिल से, एक प्रेम भरी नजर से पानी के एक प्याले से भी मेहमान का आदर-सत्कार कर सको तो वह मेहमान तुम्हारे यहाँ से उन्नत होकर जायेगा।

तुम लोगों की परवाह मत करो कि ʹऐसा नहीं करेंगे तो लोग क्या कहेंगे ?ʹ अरे ! तुम अपनी नाक से श्वास लेते हो कि लोगों की नाक से ? अपने जीवन का आयुष्य खर्चते हो कि लोगों के जीवन का ? हम एक दूसरे से ऐसे बँध गये हैं, ऐसे बँध गये हैं कि शराब-कबाब आदि की पार्टियों से भले अपना व दूसरों का सत्यानाश होता हो फिर भी ʹलोग क्या कहेंगे ?ʹ के भूत से ग्रस्त हो जाते हैं एवं अपनी हानि करते रहते हैं। इसीलिए गीता में कहा हैः अभयं सत्त्वसंशुद्धिः। तमोगुणी मत बनो।

मैं कभी-कभी शाम को खेतों में घूमने जाता हूँ। खेतों के आस-पास कुछ घर भी होते हैं। वहाँ के कुत्ते मुझे देखकर भौंकने लगते हैं। मेरा तो विनोदी स्वभाव है। कुत्ते भौंकते हैं तब यदि मैं खड़ा रह जाता हूँ तो उनकी पूँछ भी दबी हुई पाता हूँ लेकिन जान-बूझकर विनोद में दौड़ने लगता हूँ तो कुत्ते तो मेरा पीछा करते ही हैं, साथ में उऩके छोटे-छोटे पिल्ले भी मेरा पीछा करने लग जाते हैं।

दुःख एवं मुसीबतें डरपोक मनुष्य का ही पीछा करती हैं, जबकि निर्भय व्यक्ति के सामने उनकी पूँछ दब जाती हैं। अतः दुःख एवं मुसीबतों को बुलाना हो तो भयभीत रहो और उनकी पूँछे दबानी हो तो निर्भय बनो।

भगवान से, गुरु से, माता-पिता से, शास्त्र से भले अनुशासित रहो परंतु जो हल्का संग करके पतन करा दें, उनसे निर्भय रहना चाहिए। उऩसे किनारा करके निर्भयतापूर्वक अपने जीवन में अच्छे संस्कारों को पकड़े रहना चाहिए।

पहली बात है कि निर्भय रहो। दूसरी बात है कि हृदय शुद्ध रहे ऐसा आहार-विहार और चिंतन करो। कहा भी गया है किः जैसा खाओ अन्न वैसा बनता मन। साधक को अपने आहार पर खूब ध्यान देना चाहिए। ʹआहारʹ शब्द केवल भोजन के लिए ही नहीं है वरन् आँखों से, कानों से, नाक से, त्वचा से जो ग्रहण किया जाता है, वह भी आहार के ही अंतर्गत आता है। अतः उसमें सात्त्विकता का ध्यान रहना चाहिए।

तीसरी बात है तप। हमारे जीवन में तपस्या भी होनी चाहिए। सुबह भले ठंड लगे फिर भी सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान कर लो। देखो इससे हृदय में कितनी प्रसन्नता और सत्त्वगुण बढ़ता है ! फिर थोड़ा ध्यान करो। यह तप हो जाता है। सत्संग अथवा सत्कर्म के समय थोड़ा तन-मन-धन तो अवश्य खर्च होता है किन्तु वह तुम्हारी तपस्या बन जाता है।

चौथी बात है मौन। प्रतिदिन एक-दो घंटे का मौन रखो। ससे तुम्हारी आंतरिक शक्ति बढ़ेगी, तुम्हारी वाणी में आकर्षण आयेगा। जो पतंगे की तरह इधर-उधर भटकते रहते हैं एवं व्यर्थ की बक-बक करते रहते हैं उनके चित्त में न शांति होती है न क्षमा, न विचारशक्ति होती है और न ही अनुमान शक्ति। वे बिखर जाते हैं। स्त्रियों को तो मानो ज्यादा बोलने का ठेका ही मिला हुआ है। सास बहू में, अड़ोस-पड़ोस में व्यर्थ की गप्पें मारकर वे स्वयं ही झगड़े पैदा कर लेती हैं। यदि झगड़े न भी होते हों तो फालतू बातें तो होती ही हैं। उऩ बेचारियों को पता ही नहीं होता कि व्यर्थ की बातें करने से प्राणशक्ति एवं वाक्शक्ति का ह्रास होता है।

अतः साधक को चाहिए कि वह मौन रखें। मौन से बहुत लाभ होता है। यदि एक बार भी तुम लंबे समय तक मौन रखो तो अंदर का आनंद प्रगट होने लगेगा। विचारशक्ति, अनुमानशक्ति के अलावा धैर्य, क्षमा, शांति आदि सदगुण भी आने लगेंगे।

गुजराती में कहावत हैः न बोल्यामां नव गुण। अर्थात् न बोलने में नौ गुण हैं। जो ज्यादा बोलते हैं वे झूठ बोलते हैं, झगड़े उत्पन्न करते हैं और अपनी आयु क्षीण करते हैं। किसी के साथ बात करो तो कम-से-कम, स्नेहयुक्त एवं सारगर्भित बात करो। इससे तुम्हारी वाणी का एवं तुम्हारा प्रभाव पड़ेगा।

ब्रह्मज्ञानी महापुरुष एक स्मितभरी नजर डालते हैं और पूरा जनसमुदाय तन्मय हो जाता है। अरे ! मनुष्यों की तो क्या बात, ब्रह्मलोक तक के देवी-देवता भी उनके अनुकूल हो जाते हैं। हम उनका माहात्म्य नहीं जानते, इसीलिए ʹहा-हा….ही-ही…ʹ में अपना जीवन गँवा डालते हैं। हमें पता ही नहीं है कि हमारे भीतर कितना खजाना भरा पड़ा है और हम कितना, किस प्रकार उसे खर्च कर रहे हैं।

ज्ञानवानों का स्मित ऐसा अनोखा होता है, जिससे कोई भी सहज में ही उऩके प्रति अहोभाव से भर जाता है। श्रीकृष्ण अपनी स्मितभरी नजर डालकर बंसी बजाते थे तो सब ग्वाल-गोपियों के चित्त सहज में ही पवित्र हो जाते थे। उसी प्रकार ब्रह्मज्ञानी महापुरुष की स्मित भरी नजर से लोगों का चित्त पवित्र होने लगता है। सिंधी भाषा में कहा हैः

नूरानी नजरूनसां दिलबर दरवेशन, मुंखे निहाल करे छड्यो।

अर्थात् अपनी नूरानी नजरों से उन दिलबर संत ने मुझे निहाल कर दिया।

निगाहों से वे निहाल हो जाते हैं, जो संतों की निगाहों में आ जाते हैं।

तुम भी अपनी दृष्टि ऐसी ही बनाओ। ऐसा नहीं कि व्यर्थ का इधर-उधर भटकते रहो, व्यर्थ बोलते रहो एवं अपने ज्ञानतंतुओं, अपनी रक्तवाहिनियों, अपने शरीर एवं मन को सताते रहो।

जीवन में निर्भयता, आहारशुद्धि, तप एवं मौन-ये गुण जायें तो जीवन काफी उन्नत हो जाये और ये काम तुम कर सकते हो। युद्ध के मैदान में अगर अर्जुन यह काम कर सकता है तो तुम क्यों नहीं कर सकते ? अर्जुन तो कितनी विपत्तियों के बीच था ! तुम्हारे आगे इतनी झंझटें नहीं हैं, भाई ! यदि अर्जुन युद्ध के मैदान में गीता का अधिकारी है तो तुम भी सत्संग के मैदान में गीता के अधिकारी जरूर हो। बस कमर कस लो इऩ दैवी गुणों को अपनाने के लिए….. निर्भयता, आहार-संयम, तप एवं मौन को आत्मसात् करने के लिए !

ʹहम क्या करें ? हम तो गृहस्थी हैं…. हम तो संसारी हैं…. हम तो नौकरी वाले हैं…ʹ अरे ! तुम्हारे साथ संसार की जितनी झंझटें हैं, उससे ज्यादा झंझटें पहले के समय में थीं। फिर भी हिम्मतवान्, बुद्धिमान पुरुषों ने समय बचाकर विकारों एवं बेवकूफियों पर विजय पा ली एवं अपने आत्मा-परमात्मा को, अपने रब को पहचान लिया।

वर्धमान के जीवन में कितने विघ्न आये ! फिर भी वे अडिग रहे एवं साधना में लगे रहे तो भगवान महावीर के रूप में उभरे। प्रह्लाद के जीवन में कितने विघ्न आये ! मीराबाई के जीवन में कितनी मुसीबतें आयीं ! फिर भी वे अडिग रहीं, निर्भय रहीं, हताश-निराश न हुई तो कितनी उन्नत हो गई !

तुम भी उन्नत हो सकते हो, अपने आपको जान सकते हो। शर्त इतनी ही है कि दैवी गुणों को बढ़ाओ, पुरुषार्थ करो एवं सत्संग अवश्य पूरा करो। सत्संग से ही तुम्हें अपने दैवी गुणों को विकसित करने की प्रेरणा मिलेगी, प्रोत्साहन मिलेगा, मार्गदर्शन मिलेगा, उत्साह उभरेगा। निर्भयता, आहारशुद्धि, वाणी का संयम एवं तप-इन दैवी गुणों का विकास तुम्हारे लिए उन्नति का द्वार सहजता से ही खोल देगा। अतः आज से, अभी से दृढ़ता से लगो। लगोगे न ?

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 1999, पृष्ठ संख्या 2-5, अंक 81

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

सौ अश्वमेध यज्ञों का फल


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

एक महात्मा गंगा किनारे घूम रहे थे। एक दिन उन्होंने संकल्प कियाः ʹआज किसी से भी भिक्षा नहीं माँगूगा। जब मैं परमात्मा का हो गया, संन्यासी हो गया तो फिर अन्य किसी से क्या माँगना ? जब तक परमात्मा स्वयं आकर भोजन के लिए न पूछेगा तब तक किसी से न लूँगा।ʹ यह संकल्प करके, नहा-धोकर वे गंगा-तट पर बैठ गये।

सुबह बीती… दोपहर हुई…. एक दो बज गये… भूख भी लगी किन्तु श्रद्धा के बल से वे बैठे रहे। उन्हें सुबह से वहीं बैठा हुआ देखकर किसी सदगृहस्थ ने पूछाः

“बाबा ! भोजन करेंगे ?”

“नहीं।”

“मेरे साथ चलेंगे ?”

“नहीं।”

गृहस्थ अपने घर गया लेकिन भोजन करने को मन नहीं माना। वह अपनी पत्नी से बोलाः “बाहर एक महात्मा भूखे बैठे हैं। हम कैसे खा सकते हैं ?” यह सुनकर पत्नी ने भी नहीं खाया। इतने में स्कूल से उनकी बेटी घर आ गयी। थोड़ी देर बाद उनका बेटा भी आ गया। दोनों को भूख लगी थी किन्तु वस्तुस्थिति जानकर वे भी भूखे रहे।

सब मिलकर उन संन्यासी के पास गये और बोलेः “चलिए महात्मन् ! भोजन ग्रहण कर लीजिए।”

महात्मा ने सोचा कि एक नहीं तो दूसरा व्यक्ति आकर तंग करेगा। अतः वे बोलेः “मेरे भोजन के बाद मुझे जिस घर से सौ अश्वमेध यज्ञों की दक्षिणा मिलेगी, उसी घर का भोजन करूँगा।”

घर आकर नन्हीं बालिका पूजा-कक्ष में बैठी एवं परमात्मा से प्रार्थना करने लगी। शुद्ध हृदय से, आर्त भाव से की गयी प्रार्थना तो प्रभु सुनते ही हैं। अतः उसके हृदय में भी परमात्म-प्रेरणा हुई।

वह पूजा-कक्ष से बाहर आयी। अपने भाई के हाथ में पानी का लोटा दिया एवं स्वयं भोजन की थाली सजाकर, दूसरी थाली से ढँककर भाई को छिड़कता हुआ जा रहा था। पानी के छिड़कने से शुद्ध बने हुए मार्ग पर वह पीछे-पीछे चल रही थी। आखिर में बच्ची ने जाकर संन्यासी के चरणों में थाल रखा एवं भोजन करने की प्रार्थना कीः “महाराज ! आप भोजन कीजिये। आप दक्षिणा के रूप में सौ अश्वमेध यज्ञों का फल चाहते हैं न ? वह हम आपको दे देंगे।”

संन्यासीः “तुमने, तुम्हारे पिता एवं दादा ने एक भी अश्वमेध यज्ञ नहीं किया होगा फिर तुम सौ अश्वमेध यज्ञों का फल कैसे दे सकती हो ?”

बच्चीः “महाराज ! आप भोजन कीजिए। सौ अश्वमेध यज्ञों का फल हम आपको अर्पण करते हैं।  शास्त्रों में लिखा है किः ʹभगवान के सच्चे भक्त जहाँ रहते हैं, वहाँ पर एक-एक कदम चलकर जाने से एक-एक अश्वमेध यज्ञ का फल होता है।ʹ महाराज ! आप जहाँ बैठे हैं, वहाँ से हमारा घर 200-300 कदम दूर है। इस प्रकार हमें इतने अश्वमेध यज्ञों का फल मिला। इनमें से सौ अश्वमेध यज्ञों का फल हम आपके चरणों में अर्पित करते हैं, बाकी हमारे भाग्य में रहेगा।”

उस बालिका की तर्कयुक्त एवं अंतःप्रेरित बात सुनकर संन्यासी ने उस बच्ची को धन्यवाद देते हुए भोजन स्वीकार कर लिया।

कैसे हैं वे सबके अंतर्यामी प्रेरक परमेश्वर ! भक्त अपने संकल्प के कारण कहीं भूखा न रह जाये, यह सोचकर उन्होंने ठीक व्यवस्था कर ही दी। यदि कोई उनको पाने के लिए दृढ़तापूर्वक संकल्प करके चलता है तो उसके योगक्षेम का वहन वे सर्वेश्वर स्वयं करते हैं।

श्रीमद् भगवदगीता में उन्होंने कहा भी है किः

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।

ʹजो अनन्य प्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वर को निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्कामभाव से भजते हैं, उऩ नित्य-निरन्तर मेरा चिन्तन करने वाले पुरुषों का योगक्षेम मैं स्वयं  वहन करता हूँ।ʹ (गीताः 9.22)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 1999, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 80

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

साधकों का पथ-प्रदर्शन


(संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग प्रवचन से)

जब साधक परमात्मा के साक्षात्कार के लिए तन-मन से संकल्पित होता है तो उसके रग-रग में परमात्मप्राप्ति की अनुभूति के लिए तीव्र उत्कंठा होती है। उसका एकमात्र लक्ष्य परमात्मा ही होता है लेकिन साधना में कुछ त्रुटियों और कमियों की वजह से वह अपने परम लक्ष्य की ओर उतनी तेजी से अग्रसर नहीं हो  पाता जितना कि उसे होना चाहिए।

साधक को एकान्त में शुभ-अशुभ सभी संकल्पों को त्याग करके, अपने सच्चिदानंद परमात्मस्वरूप में स्थिर होना चाहिए। घोड़े के रकाब में एक पैर डाल दिया तो दूसरा पैर भी जमीन से उठा लेना पड़ता है। ऐसे ही सुख की लालच मिटाने के लिए यथायोग्य निष्काम कर्म करने के बाद, निष्काम कर्मों से भी समय बचाकर एकान्तवास, लघु भोजन, देखना-सुनना आदि इन्द्रियों का संयम करते हुए साधक को कठोर साधना में उत्साहपूर्वक संलग्न हो जाना चाहिए। कुछ महीने बन्द कमरे में एकाकी रहने से धारणा तथा ध्यान की शक्ति बढ़ जाती है। आन्तर आराम, आन्तर सुख, आन्तर सामर्थ्य प्रकट होने लगता है। धारणा ध्यान में परिणत होती है। हर साधक को कम-से-कम वर्ष में एक बार, अपनी उम्र के जितने वर्ष हों उतने दिन तो मौन-मंदिर की साधना करनी ही चाहिए क्योंकि एकान्त का अपना महत्त्व होता है। उस समय मन बुद्धि संसारी चर्चाओं से मुक्त होते हैं तो उन्हें आराम मिलता है। चिन्तारहित मन-बुद्धि में तत्त्वज्ञान का सत्संग जितनी दृढ़ता से जमता है उतना और कहीं नहीं जमता।

हमारी जीवन शक्ति का ह्रास मूलतः वाणी के क्षय से, संकल्प-विकल्पों की जाल बुनने और वीर्यनाश से होता है। वाणी के अनावश्यक क्षय से बचना मानसिक शांति की कुंजी है। वाणी का उपयोग उतना ही होना चाहिए जितना आवश्यक हो। जैसे, हम तार करते समय संतुलित शब्दों को प्रयुक्त करते हैं और पैसे बचा लेते हैं, वैसे ही कम-से-कम बोलें और अपनी जीवनशक्ति के व्यर्थ क्षय को बचा लें। संकल्पों-विकल्पों को रोकने के लिए बारम्बार दीर्घ प्रणव का जप एक अमोघ साधन है। जैसे ʹहरिः ૐ….ʹ यह ह्रस्व जप है। ʹहरिः ૐ………ʹ यह दीर्घ जप है। ʹहरि ૐ……………………..ʹ यह प्लुत जप है।

प्रणव का जप मन को संकल्पों-विकल्पों से छुड़ाकर शांत पद में आरूढ़ होने में सहायता करता है। ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए ब्रह्मचर्य पर लिखी एक पुस्तक ʹयौवन सुरक्षाʹ में निर्दिष्ट उपायों का अवलम्बन लेकर ब्रह्म-परमात्मा में पहुँचना चाहिए। अपने स्वास्थ्य व जीवन को उन्नत करने के लिए ʹयौवन सुरक्षाʹ बार-बार पढ़ना चाहिए और अपने प्रियजनों का परम हित करने के लिए उन्हें भी ʹयौवन सुरक्षाʹ की ओर मोड़ना चाहिए जिससे उनका भी मंगल हो।

भगवान शंकर ने कहा हैः “बिन्दु अर्थात् वीर्यरक्षण सिद्ध होने के बाद कौन-सी सिद्धि है, जो साधक को प्राप्त नहीं हो सकती ?”

साधक से गलती यह होती है कि साधना में सतत संलग्न होने के बाद भी उसकी वह उन्नति हो नहीं पाती, जो होनी चाहिए। जबकि वीर्यरक्षण के द्वारा जो साधक अपने वीर्य को ऊर्ध्वगामी बनाकर योगमार्ग में आगे बढ़ते हैं, वे कई प्रकार की सिद्धियों के मालिक बन जाते हैं। ऊर्ध्वरेता योगी पुरुष के चरणों में समस्त सिद्धियाँ दासी बनकर रहती हैं। ऐसा योगी पुरुष जल्दी आत्म-साक्षात्कार कर सकता है। स्वामी शिवानंदजी अक्सर कहा करते थे किः “जब कभी भी अपने मन में अशुद्ध विचारों के साथ किसी स्त्री के स्वरूप की कल्पना उठे तो आप ʹ दुर्गा देव्यै नमः।ʹ इस मंत्र का बार-बार उच्चारण करें और उऩ्हें मानसिक प्रणाम करें ताकि आप पतन से बच जाएँ।”

ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए एक मंत्र भी हैं- नमो भगवते महाबले पराक्रमाय मनोभिलाषितं मनः स्तंभ कुरु कुरु स्वाहा।

रोज दूध में निहारकर 21 बार इस मंत्र का जप करें और वह दूध पी लें। इससे लाभ होता है। जब तक परम पद की प्राप्ति न हो तब तक साधक को खूब सावधान रहना चाहिए। आपके माने हुए मित्र एक  प्रकार से आपके गहरे शत्रु हैं। वे किसी-न-किसी प्रकार से आपको संसार में, नाम-रूप की सत्यता में घसीट लेते हैं। आपकी सूक्ष्म वृत्ति उनके परिचय में आने से फिर स्थूल होने लगती है और पता भी नहीं चलता। अतः सावधान ! उन सांसारिक व्यक्तियों से मिलने के कारण आपके नये आध्यात्मिक संस्कार और ध्यान की एकाग्रता लुप्त हो जायेगी।

ʹमन और इन्द्रियों की एकाग्रता ही परम तप हैʹ – ऐसा आदिगुरु श्री शंकराचार्य जी का मत है। तमाम प्रकार के धर्मों का अनुष्ठान करने से भी एकाग्रतारूपी धर्म,  एकाग्रतारूपी तप श्रेष्ठ है। हम देखते हैं कि जिस-जिस व्यक्ति के जीवन में जितनी-जितनी एकाग्रता होती है, वह उतने ही अंश में उस-उस क्षेत्र में सफल होता है।

साधनाकाल में संसारी लोगों से अनावश्यक मिलना-जुलना बहुत ही अनर्थकारी होता है। दोनों की विचारधाराएँ उत्तर-दक्षिण होती हैं। संसारी व्यक्ति बातचीत का शौकीन होता है, नश्वर भोगप्राप्ति उसका लक्ष्य होता है जबकि साधक का लक्ष्य शाश्वत परमात्मा होता है। संसारियों की बातचीत का फल किसी के प्रति राग-द्वेष होता है और उऩकी बातों में प्रीति होने पर जगत की सत्यता दृढ़ होती है। उनकी जिह्वा वाणी के अतिसार से पीड़ित होती है, जबकि साधक मितभाषी, आध्यात्मिक विषयों पर ही प्रसंगानुसार बोलने वाला होता है। परन्तु लौकिक भावों से प्रभावित होकर अपनी अंतरात्मा की पुकार के विपरीत भी वह संसार की हाँ-में-हाँ करने लगे अथवा उनके संपर्क में आकर बलात् संसार में खिंच जाय तो उसकी वर्षों की कठोर साधना के द्वारा प्राप्त योगरूढ़ता क्षीण होने लगती है।

संसारियों का चिन्तन ऐहिक सुख के विषयों से ग्रस्त होता है जबकि साधक का चिंतन दिव्य अनुभूतियों से सुसंपन्न होता है। संसारी व्यक्ति सदा स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों से प्रेरित होकर कार्य करता है जबकि साधक समग्र संसार को अपना स्वरूप समझकर निःस्वार्थभाव से अहंकार विसर्जित करने के लिए सेवा करता है। संसारी व्यक्ति के पास जो भोग-सामग्रियाँ हैं उन्हें वह बढ़ाना चाहता है और भविष्य के लिए ऐन्द्रिक सुखों के साधनों की व्यवस्था करता है। साधक सारे ऐन्द्रिक विषयों को व्यर्थ समझकर इन्द्रियातीत, देशातीत, कालातीत, गुणातीत आत्मसुख एवं परमात्म-स्थिति चाहता है। संसारी व्यक्ति जटिलता, बहुलता, रोगों के घर देह, क्षणभंगुर भोग और सुख की तुच्छ वासना में मँडराता रहता है जबकि साधक सरल व्यक्तित्त्व से संपन्न होता है, देह से और तुच्छ भोगों से पार आत्मसुख का अभिलाषी होता है।

इस प्रकार संसारी और साधक दोनों की विचारधाराएँ पृथक-पृथक होती हैं। फिर भी साधक को आखिरकार रहना तो संसार में ही है। अतः संसार से भागकर नहीं, वरन् युक्ति से काम बनाना होगा। परमात्मा स्वयं साधु  पुरुषों की जिह्वा पर विराजमान होकर ये युक्तियाँ बताते हैं। संत तुलसीदासजी से परमात्मा ने कितनी सुंदर युक्ति कहलवायी है !

तुलसी जग में यूँ रहो, ज्यों रसना मुख माँहि।

खाती घी अरु तेल नित, फिर भी चिकनी नाँहि।।

हम संसार में रहें, संसार के स्वामी के सेवक होकर। साधक संसार में रहता है मगर निर्लेप। वह सुविधाओं का उपयोग करता है, उपभोग नहीं। वेदान्त आपसे नौकरी-धन्धा अथवा संसार नहीं छुड़ाता वरन् उसमें जो सत्यबुद्धि है, जो आसक्ति है उसे छुड़ाकर संसार के स्वामी से भेंट करा देता है।

संतों ने कितनी मार्मिक बात कही है !

साधक के पास जितने रूपये, विद्या, शक्ति सामग्रियाँ आदि हैं, उतने से ही वह संसार की बड़ी-से-बड़ी सेवा कर सकता है। हम प्रभु से तत्त्वज्ञान चाहते हैं परंतु इसमें साधक की यह मान्यता ही सबसे बड़ी भूल है कि, ʹइतना साधन करेंगे….इतना जप-अनुष्ठान करेंगे…. ऐसी-ऐसी वृत्तियाँ बनेंगी…. इतना अन्तःकरण शुद्ध होगा… इतना वैराग्य होगा… ऐसी अवस्था-योग्यता होगी… तब कहीं परमात्मा की प्राप्ति होगी।ʹ जिस क्षण साधक के भीतर यह उत्कट अभिलाषा जागृत हो जाय कि परमात्मा अभी ही प्राप्त होना चाहिए, तो अभी… इस क्षण उसे तत्त्व की प्राप्ति हो सकती है।

सच्चे हृदय से प्रार्थना, जब भक्त सच्चा गाय है।

भक्तवत्सल के कान में, वह पहुँच झट ही जाय है।।

ज्ञानप्राप्ति के लिए साधक की जिज्ञासा जब जोर पकड़ती है तब कुछ मुश्किल नहीं। यह काम दिन-महीनों-सालों पर निर्भर नहीं करता वरन् यह उसकी तीव्रता पर निर्भर है। यह वह ʹडिग्रीʹ (उपाधि) है जिसे जिज्ञासु साधक क्षणभर में प्राप्त कर सकता है, लेकिन शर्त यह है कि वह साधना में सतत लगा रहे। जिन कारणों से गति नहीं हो पाती, उन पर सदगुरु के, भगवदकृपा-प्राप्त महापुरुषों के सत्संग से, सत्शास्त्रों के अध्ययन से युक्तियाँ पाकर विजय प्राप्त करें और आखिरकार पहुँच जाय उस प्रियतम के द्वार तक।

यदि साधनकाल में रूकावटें, बाधाएँ नहीं आयीं तो साधकरूपी स्वर्ण उतना निखरता भी नहीं है। कसौटियाँ ही तो आपको परिपक्व बनाती हैं। फिर घबराहट किस बात की ? आपके पास गुरुमंत्र है, सत्संग है, ध्यान कि विविध पद्धतियाँ हैं। बस… एक बार ईमानदारी से चलना आरंभ करके तो देखो ! फिर आपको ज्यादा चलना नहीं पड़ेगा। आपको अपनी मंजिल अपने-आप में नजर आयेगी। आप खुद, साधक खुद ही सिद्ध हो जायगा।

इन वचनों को हृदयरूपी दीवार पर स्वर्णिम अक्षरों से लिख लो किः “हजार बार असफलता मिलने के बाद भी सफलता की एक और उम्मीद अभी शेष है।”

बस… जुटे रहो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 1999, पृष्ठ संख्या 2-5, अंक 80

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ