ʹगहना कर्मणो गतिःʹ

ʹगहना कर्मणो गतिःʹ


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

कर्म की गति बड़ी गहन है।

गहना कर्मणो गतिः।

कर्म का तत्त्व भी जानना चाहिए, अकर्म का तत्त्व भी जानना चाहिए। कर्म ऐसे करें कि कर्म दुष्कर्म न बनें, बंधनकारक न बनें, वरन् ऐसे कर्म करें कि कर्म विकर्म में बदल जायें, कर्त्ता अकर्त्ता हो जाये और वह अपने परमात्म-पद को पा ले।

अमदावाद में वासणा नामक एक इलाका है। वहाँ एक कार्यपालक इंजीनियर रहता था जो नहर का कार्यभार सँभालता था। वही आदेश देता था कि किस क्षेत्र में पानी देना है।

एक बार एक किसान ने उसे 100-100 रूपयों की दस नोटें एक लिफाफे में देते हुए कहाः “साहब ! कुछ भी हो, पर फलाने व्यक्ति को पानी न मिले। मेरा इतना काम आप कर दीजिये।”

साहब ने सोचा किः “हजार रूपये मेरे भाग्य में आने वाले हैं इसीलिए यह दे रहा है। किन्तु गलत ढंग से रुपये लेकर मैं क्यों कर्मबन्धन में पड़ूँ ? हजार रुपये आने वाले होंगे तो कैसे भी करके आ जायेंगे। मैं गलत कर्म करके हजार रूपये क्यों लूँ ? मेरे अच्छे कर्मों से अपने-आप रूपये आ जायेंगे।ʹ अतः उसने हजार रूपये उस किसान को लौटा दिये।

कुछ महीनों के बाद इंजीनियर एक बार मुंबई से लौट रहा था। मुंबई से एक व्यापारी का लड़का भी उसके साथ बैठा। वह लड़का सूरत आकर जल्दबाजी में उतर गया और अपनी अटैची गाड़ी में ही भूल गया। वह इंजीनियर समझ गया कि अटैची उसी लड़के की है। अमदावाद रेलवे स्टेशन पर गाड़ी रूकी। अटैची पड़ी थी लावारिस… उस इंजीनियर ने अटैची उठा ली और घर ले जाकर खोली। उसमें से पता और टैलिफोन नंबर लिया।

इधर सूरत में व्यापारी का लड़का बड़ा परेशान हो रहा था किः “हीरे के व्यापारी के इतने रूपये थे, इतने लाख का कच्चा माल भी था। किसको बतायें ? बतायेंगे तब भी मुसीबत होगी।” दूसरे दिन सुबह-सुबह फोन आया किः “आपकी अटैची ट्रेन में रह गयी थी जिसे मैं ले आया हूँ और मेरा यह पता है, आप इसे ले जाइये।”

बाप-बेटे गाड़ी लेकर वासणा पहुँचे और साहब के बँगले पर पहुँचकर उन्होंने पूछाः “साहब ! आपका फोन आया था ?”

साहबः “आप तसल्ली रखें। आपके सभी सामान सुरक्षित हैं।”

साहब ने अटैची दी। व्यापारी ने देखा कि अंदर सभी माल-सामान एवं रुपये ज्यों-के-त्यों हैं। ʹये साहब नहीं, भगवान हैं….ʹ ऐसा सोचकर उसकी आँखों में आँसू आ गये, उसका दिल भर आया। उसने कोरे लिफाफे में कुछ रुपये रखे और साहब के पैरों पर रखकर हाथ जोड़ते हुए बोलाः

“साहब ! फूल नहीं तो फूल की पंखुड़ी ही सही, हमारी इतनी सेवा जरूर स्वीकार करना।”

साहबः “एक हजार रूपये रखे हैं न ?”

व्यापारीः “साहब ! आपको कैसे पता चला कि एक हजार रूपये हैं ?”

साहबः “एक हजार रूपये मुझे मिल रहे थे बुरा कर्म करने के लिए। किन्तु मैंने वह बुरा कार्य नहीं किया यह सोचकर कि यदि हजार रूपये मेरे भाग्य में होंगे तो कैसे भी करके आयेंगे।”

व्यापारीः “साहब ! आप ठीक कहते हैं। इसमें हजार रूपये ही हैं।”

जो लोग टेढ़े-मेढ़े रास्ते से कुछ लेते हैं वे तो दुष्कर्म कर पाप कमा लेते हैं लेकिन जो धीरज रखते हैं वे ईमानादारी से उतना ही पा लेते हैं जितना उनके भाग्य में होता है।

श्रीकृष्ण कहते हैं- गहना कर्मणो गतिः।

एक जाने माने साधु ने मुझे यह घटना सुनायी थीः

बापू जीः यहाँ गया जी में एक बड़े अच्छे जाने माने पंडित रहते थे। एक बार नेपाल नरेश साधारण गरीब मारवाड़ी जैसे कपड़े पहन कर  पंडितों के पीछे भटका किः ʹमेरे दादा का पिण्डदान करवा दो। मेरे पास पैसे बिल्कुल नहीं हैं। हाँ, थोड़े से लड्डू लाया हूँ, वही दक्षिणा में दे सकूँगा।

जो लोभी पंडित थे उन्होंने तो इन्कार कर दिया लेकिन यहाँ का जो जाना-माना पंडित था उसने कहाः “भाई ! पैसे की तो कोई बात ही नहीं है। मैं पिण्डदान करवा देता हूँ।”

फटे-चिथड़े कपड़े पहनकर गरीब मारवाड़ी के वेश में छुपे हुए नेपाल नरेश के दादा का पिण्डदान करवा दिया उस पंडित ने। पिण्डदान सम्पन्न होने के बाद उस नरेश ने कहाः

“पंडित जी ! पिण्डदान करवाने के बाद कुछ न कुछ दक्षिणा तो देनी चाहिए। मैं कुछ लड्डू लाया हूँ। मैं चला जाऊँ उसके बाद यह गठरी आप ही खोलेंगे, इतना वचन दे दीजिये।”

“अच्छा भाई ! तू गरीब है। तेरे लड्डू मैं खा लूँगा। वचन देता हूँ कि गठरी भी मैं ही खोलूँगा।”

गरीब जैसे वेश में छुपा हुआ नेपाल नरेश चला गया। पंडित ने गठरी खोली तो उसमें से एक-एक किलो के सोने के उन्नीस लड्डू निकले !

वे पंडित अपने जीवन काल में बड़े-बड़े धर्मकार्य करते रहे लेकिन वे सोने के लड्डू खर्च में आयें ही नहीं।

जो अच्छा कार्य करता है उसके पास अच्छे काम के लिए कहीं-न-कहीं से धन, वस्तुएँ अनायास आ ही जाती हैं। अतः उन्नीस किलो के सोने के लड्डू  ऐसे ही पड़े रहे।

जब-जब हम कर्म करें तो कर्म को विकर्म में बदल दें अर्थात् कर्म का फल ईश्वर को अर्पित कर दें अथवा कर्म में से कर्त्तापन हटा दें तो कर्म करते हुए भी हो गया विकर्म। कर्म तो किये लेकिन कर्म का बंधन नहीं रहा।

संसारी आदमी कर्म को बंधनकारक बना देता है, साधक कर्म को विकर्म बनाता है लेकिन सिद्ध पुरुष कर्म को अकर्म बना देते हैं। रामजी युद्ध जैसा घोर कर्म करते हैं लेकिन अपनी ओर से युद्ध नहीं करते, रावण आमंत्रित करता है तब करते हैं। अतः उनका युद्ध जैसा घोर कर्म भी अकर्म में परिणत हो जाता है। आप भी कर्म करें तो अकर्ता होकर करें, न कि कर्त्ता होकर। कर्त्ता भाव से किया गया कर्म बंधन में डाल देता है एवं उसका फल भोगना ही पड़ता है।

राजस्थान में सुजानगढ़ के ढोंगरा गाँव की घटना हैः

एक बकरे को देखकर ठकुराइन के मुँह में पानी आ गया एवं बोलीः “देखो जी ! यह बकरा कितना हृष्ट-पुष्ट है !”

बकरा पहुँच गया ठाकुर किशन सिंह के घर एवं हलाल होकर उसे पेट में भी पहुँच गया।

बारह महीने के बाद ठाकुर किशन सिंह के घर बेटे का जन्म हुआ। बेटे का नाम बाल सिंह रखा गया। बाल सिंह तेरह साल का हुआ तो उसकी मँगनी भी हो गयी एवं चौदहवाँ पूरा होते-होते शादी की तैयारी भी हो गयी।

शादी के वक्त ब्राह्मण ने गणेश-पूजन के लिए उसको बिठाया किन्तु यह क्या ! ब्राह्मण विधि शुरु करे उसके पहले ही लड़के ने पैर पसारे और लेट गया। ब्राह्मण ने पूछाः

“क्या हुआ….. क्या हुआ ?”

कोई जवाब नहीं। माँ रोयी, बाप रोया। अड़ोस-पड़ोस के लोग आये, सारे बाराती इकट्ठे हो गये। पूछने लगे किः “क्या हुआ ?”

लड़काः “कुछ नहीं हुआ है। अब तुम्हारा-मेरा लेखा-जोखा पूरा हो गया है।”

पिताः “वह कैसे, बेटा ?”

लड़काः “बकरियों को गर्भाधान कराने के लिए उदरासर के चारण कुँअरदान ने जो बकरा छोड़ रखा था, वही बकरा तुम ठकुराइन के कहने पर उठा लाये थे। वही बकरा तुम्हारे पेट में पहुँचा और समय पाकर तुम्हारा बेटा होकर पैदा हुआ। वह बेटा लेना-देना पूरा करके अब जा रहा है। राम-राम….”

बकरे की काया से आया हुआ बाल सिंह तो रवाना हो गया किन्तु किशन सिंह सिर कूटते रह गये।

तुलसीदास जी कहते हैं-

करम प्रधान बिस्व करि राखा।

जो जस करइ सो तस फलु चाखा।।

(श्रीरामचरित. अयो. 298.2)

बुरा कर्म करते समय तो आदमी कर डालता है लेकिन बाद में उसका कितना भयंकर परिणाम आता है इसका पता ही नहीं चलता उस बेचारे को।

जैसे चौदह साल के बाद भी दुष्कृत्य कर्त्ता को फल दे देता है, ऐसे ही सुकृत भी भगवद् प्रीत्यर्थ कर्म करने वाले कर्त्ता के अन्तःकरण को भगवद् ज्ञान, भगवद् आनंद एवं भगवद् जिज्ञासा से भरकर भगवान का साक्षात्कार करा देता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2000, पृष्ठ संख्या 12-14, अंक 95

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