परम मंगल किसमें है ?

परम मंगल किसमें है ?


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु….हमारा संकल्प शिव संकल्प हो अर्थात् मंगलकारी संकल्प हो।

मंगलकारी संकल्प क्या है ? परम मंगलकारी परमात्मा को पाना। मनुष्य को विचार करना चाहिए किः ʹमेरे ऐसे दिन कब आयेंगे जब मैं संसार को मिथ्या समझकर अपने शाश्वत् तत्त्व आत्मा में आराम पाऊँगा… हर्ष और शोक से पार रहूँगा ?ʹ

मुस्कराकर गम का जहर, जिनको पीना आ गया।

ये हकीकत है कि जहाँ में, उनको जीना आ गया।।

आप सदैव प्रसन्न रहो। आपके हृदय में अनंत अनंत ब्रह्माण्डों का नायक परमात्मा मौजूद है और आप जरा जरा सी बात में परेशान हो रहे हो ? जगन्नियन्ता आपके साथ है और आप चुल्लु भर पानी के लिए चिल्ला रहे हो ? आपके भीतर अमृत का दरिया लहरा रहा है और आप नाली के पानी के लिए मनौतियाँ मान रहे हो ?

उठो….जागो अपनी महिमा में। कोई जीता है दुनिया के लिए तो कोई भोगों के लिए, कोई आता है आने के लिए तो कोई जाता है जाने के लिए… लेकिन भगवान का प्यारा आता भी भगवान के लिए है और जाता भी भगवान के लिए है, हँसता भी भगवान के लिए है और रोता भी भगवान के लिए है, खाता भी भगवान के लिए है और पीता भी भगवान के लिए है। जिसका लक्ष्य परमात्म-प्राप्ति हो, उसकी हर चेष्टा प्रभु के लिए हो जाती है।

संत कँवरराम जी कहते हैं-

तू ही थम्भो तू ही थूणी। तू ही छपर तू ही छाँव।।

ʹहे प्रभु ! तू ही मेरे जीवन का खंभा है, तू ही छप्पर है और तू ही मेरे जीवन की छाया है। तू मेरे जीवन का सर्वस्व है।ʹ

आज से आप भी अपने आत्मदेव को जीवन का सर्वस्व समझकर, संसार-स्वप्न से जागकर अपना तो कल्याण करें, अपने कुल का भी उद्धार कर लें।

जिनको आत्मदृष्टि नहीं मिली है उऩके लिए आकारवाले देव की भावना की गयी है और हम जैसी भावना करते हैं वैसा ही फल भी मिलता है। आत्मज्ञान भावना का फल नहीं है, वह तो बहुत ऊँची अवस्था है। जिन्होंने उस अवस्था का अनुभव किया है, उनके नाम से मानी हुई मनौतियाँ प्रकृति पूरी करती है। उनके नाम से भक्त कुछ करते हैं तो वह फलीभूत हो जाता है। उनका नाम लेने से मन पवित्र होने लगता है।

आत्मज्ञान ऐसा पवित्र में पवित्र है, उत्तम में उत्तम है, पाने में सुगम है, धर्मयुक्त है एवं प्रत्यक्ष फल देने वाला है। शांति प्रत्यक्ष है, आनंद प्रत्यक्ष है, माधुर्य प्रत्यक्ष है। ऐसे आत्मज्ञान को प्राप्त ब्रह्मवेत्ता महापुरुष की कृपा से ही परम मंगल होता है।

गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्यं परं मंगलम्।

जप-तप, व्रत-अनुष्ठान एवं देवताओं के वरदान से मंगल हो सकता है लेकिन परम मंगल तो ब्रह्मवेत्ता सदगुरु की कृपा पचाने से ही संभव है।

ब्रह्म ज्ञान का मार्ग बड़ा न्यारा है। आपका चित्त अपरिपक्व है तो उसमें राग-द्वेष आदि की खटाई पड़ी रहती है लेकिन गुरुकृपा से जब वह परिपक्व होता है तो उसमें मधुरता आती है। जब तक चित्त की परिपक्व अवस्था नहीं आये, तब तक आदर से साधन करना चाहिए। गुरु का दामन नहीं छोड़ना चाहिए। आत्मज्ञान के बाद भी शिष्य को गुरुदेव की शरण नहीं छोड़नी चाहिए।

श्रीगुरुगीता में आया हैः

यावत्कल्पान्तको देहस्तावद्देवि गुरु स्मरेत्।

गुरलोपो न कर्त्तव्यः स्वच्छन्दो यदि वा भवेत्।।

ʹहे देवी ! देह कल्प के अन्त तक रहे तब तक श्री गुरुदेव का स्मरण करना चाहिए और आत्मज्ञानी होने के बाद भी (स्वच्छन्द अर्थात् स्वरूप का छन्द मिलने पर भी) शिष्य को ब्रह्मज्ञानी गुरुदेव की शरण नहीं छोड़नी चाहिए।ʹ

बुद्धिमान्, पवित्रात्मा वही है जो आत्मज्ञान के लिए यत्न करता है। आत्मा परमात्मा हमसे दूर नहीं है, उसकी प्राप्ति कठिन नहीं है। उसके लिए कहीं जाना नहीं है और कुछ पाना भी नहीं है। वह तो नित्य प्राप्त है, केवल उस आनंदस्वरूप का अनुभव करना है। वह सत् चित् आनन्द स्वरूप है। सत्स्वरूप है कि देहादि में परिवर्तन होता है और वे नष्ट भी होते हैं लेकिन उस परमात्मा का अस्तित्त्व सदा रहता है। चित्स्वरूप है कि अंतःकरण में उस चेतन की अनुभूति होती है। जो सत् है, वह चेतन है और जो चेतन है वह ज्ञान स्वरूप है। बिना ज्ञान के चेतन जड़ हो जायेगा और बिना चेतन के ज्ञान शून्य हो जायेगा। अतः जो चेतन है वही ज्ञान है, चेतन के बिना ज्ञान नहीं होता। आत्मा आनन्दस्वरूप है इसीलिए थोड़ी-थोड़ी सुख की झलकें आती हैं। उस सच्चिदानंद आत्मस्वरूप में जाग जाओ तो बस, हो गया काम पूरा।

मेहनत तो आप लो भी करते हैं और ज्ञानी भी करते हैं लेकिन ज्ञानी की मेहनत ठीक निशाने पर है इसलिए उनको शाश्वत फल मिलता है। आपकी मेहनत ठीक निशाने पर नहीं है इसलिए वह मजदूरी हो जाती है और आपको उसका नश्वर फल मिलता है। एक गाड़ी की जगह दो गाड़ी आ गयी…. एक करोड़ की जगह दो करोड़ हो गये… एक की जगह दो बेटे हो गये… आखिर क्या  ? जब तक परमात्मा का ज्ञान नहीं हुआ, तब तक सब कुछ मिल जाये फिर भी क्या फायदा ?

जेकर मिले त राम मिले, ब्यो सब मिल्यो त छा थ्यो?

दुनिया में दिल जो मतलब, पूरी थियो त छा थ्यो ?

ʹअगर मिले तो उस आत्माराम का सुख मिले, आत्मदेव का ज्ञान मिले, आत्मदेव की स्मृति आ जाये। दूसरा भी जो मिलेगा वह कब तक टिकेगा ?ʹ

दुःख आये तो उसको देखे, उससे दुःखी न हों और सुख आये तो उसको देखे, उससे दुःखी न हों और सुख आये तो उसको देखे, उसमें फँसे नहीं तो समझो आत्मदेव की स्मृति है। ऐसे ही मान मिले और उसका अहंकार न हो तथा अपमान मिले और उसका विषाद न हो तो समझो आत्मदेव की स्मृति है।

आत्मज्ञान अपना आपा है अतः उसकी स्मृति तो आसान है। रोज उसकी स्मृति आती है। सुबह उठते हैं तो सबसे पहले मन में यही भाव उठता है किः ʹमैं हूँ।ʹ ʹमैं फलाना हूँ… मैं बी.ए. हूँ….ʹ यह सब बाद में आता है। ʹमैं हूँʹ वही तो आत्मा है, परमात्मा है। ʹभगवान है कि नहीं?ʹ इसमें संशय हो सकता है… ʹस्वर्ग है कि नहीं?ʹ इसमें संशय हो सकता है लेकिन ʹमैं हूँ कि नहीं?ʹ इसमें कोई संशय नहीं है।

जगत की वस्तुओं का ज्ञान पाना कठिन है क्योंकि हम उन्हें भूल भी जाते हैं लेकिन अपने-आपको कहाँ भूलते हैं ? गहरी नींद में कुछ नहीं रहता। फिर भी जब उठते हैं तब बोलते हैं कि बड़ी गहरी नींद आयी।ʹ लेकिन गहरी नींद को देखने वाला, उसका आनंद लेने वाला तो था। आनंद की झलक उसी आत्मा से मिलती है। मन बदल जाता है तो फिर आनंद की वह झलक नहीं मिलती लेकिन आत्मा तो ज्यों-का-त्यों रहता है। झलक लेने के बजाय झलक के मूल उस आनन्दस्वरूप को पहचानकर उसमें टिक जायें तो आपका तो कल्याण हो ही जायेगा, जो आपके दर्शन करेगा उसका भी मंगल हो जायेगा।

परमात्मा का वह नित्य नवीन आनंद, रस एवं माधुर्य घट-घट में है। ऐसा परमात्मा जो सत् , चित् एवं आनंदस्वरूप है, वही हमारी आत्मा होकर बैठा है और आज तक हमने उसे जानने का प्रयास नहीं किया तो हम बुद्धिमान होते हुए भी बुद्धू हैं।

भाषा, कला आदि का ज्ञान अंत में व्यर्थ हो जाता है लेकिन परमात्मा का ज्ञान एक बार भी हो जाये तो फिर सदा-सदा के लिए सब दुःखों से मुक्ति दिला देता है।

श्री रामकृष्ण परमहंस कहते थेः “पहले सत्स्वरूप ईश्वर को जान लो फिर दुनिया का ज्ञान जानना। पहले सत्स्वरूप ईश्वर को पा लो फिर दुनिया का जो पाना है, पा लेना।”

फिर जानना क्या और पाना क्या ? प्रकृति तो आपकी दासी होकर रहेगी। सब वस्तुएँ आपके चरणों में न्यौछावर हो जायेंगी…. परम मांगल्य के द्वार खुल जायेंगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2001, पृष्ठ संख्या 3,4 अंक 99

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