उन्नत होना हो तो ऊँचे विचार करें

उन्नत होना हो तो ऊँचे विचार करें


पूज्य बापू जी

जो सादगी, सच्चाई, संयम से जीता है उसका मनोबल बढ़ता है और आभा भी बढ़ती है, दिव्य हो जाती है। आजकल सिनेमा, अश्लील वेबसाइटें, भड़कीले वस्त्र-परिधान और उच्छृंखल व्यवहार ने विद्यार्थियों के जीवन को खोखला बना दिया है। जैसा संग मिलता है मन वैसा ही सच्चा मानने लग जाता है क्योंकि हम लोग आत्मज्ञान के रास्ते पर तो चले नहीं हैं कि जीवन अडिग हो। इसलिए कुसंग मिलता है तो कुसंग में बह जाते हैं। कभी सत्संग मिलता है तो थोड़ा चढ़ते हैं। इसलिए गुरुमंत्र, सत्साहित्य साथ में हो, हर रोज घर बैठे थोड़ा सत्संग हो, जप-तप हो तो पुण्यमयी समझ आती है।

‘दिव्य प्रेरणा प्रकाश’ पुस्तक देश के हर युवक-युवती को अवश्य पढ़नी चाहिए। उन्हें ऐसी पुस्तकें पढ़नी चाहिए जिनसे जीवन में धैर्य, शांति मिलनसार स्वभाव, कार्य में तत्परता, ईमानदारी, निर्भयता और आध्यात्मिक तेज बढ़े। भगवद्गीता, राम गीता, अष्टावक्र गीता आदि कई गीताएँ हैं, इनमें सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है भगवद्गीता लेकिन तत्त्व ज्ञान में शक्तिशाली है अष्टावक्र गीता। यह छोटी सी है पर एकदम ऊँची बात कहती है। उसका अनुवाद किया भोला बाबा ने और उसे ‘वेदांत छंदावली’ ग्रंथ में छपवाया। उसमें से जितना अष्टावक्र जी का उपदेश है उतना हिस्सा लेकर अपने आश्रम ने छोटा सा ग्रंथ प्रकाशित किया और ‘श्री ब्रह्म रामायण’ नाम दिया। इसे पढ़ने से आदमी का मन तुरंत ऊँचे विचारों में रमण करने लगता है, खिलने लगता है। ऐसे दोहे, छंद, श्लोक, भजन याद होने चाहिए, ऐसे विचार स्मरण में आते रहने चाहिए। इधर-उधर जब चुप बैठें तो उन्हीं पवित्र व ऊँचे विचारों में मन चला जाये। ऐसा नहीं कि ‘मेरे दिल के टुकड़े हजार हुए, कोई यहाँ गिरा कोई वहाँ गिरा।’

क्या अर्थ ? कोई अर्थ नहीं। कोई कारण ? कोई कारण नहीं। विकार पैदा हों ऐसे गीत याद न रखो। ओज, बल, ज्ञान, साहस, धैर्य के विचार तुम्हारे अंदर पोषित हों, छलकें ऐसे भजन, ऐसे दोहे दुहराने चाहिए। ऐसे चित्र देखने चाहिए जिनसे विकार आते हों तो शांत हो जायें। ऐसा नहीं कि ऐसे चित्र देखो, ऐसे कपड़े पहनो कि विकार आने लगें। विकार तो शरीर को नोच लेते हैं। यह सब (अश्लीलता, फैशन) विदेशियों की देन है।

भारतीयों में भय घुस गया है। भयभीत आदमी सब हलके काम करता है। भयभीत आदमी झूठ बोलता है। आदमी भयभीत हो जाता है तो सही निर्णय नहीं ले सकता। जीवन में जितनी-जितनी भीतर से निर्भीकता आती है उतनी-उतनी कार्य में सफलता मिलती है। अतः निर्भीक रहना चाहिए, उद्यमी रहना चाहिए, सम और सहनशील रहना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2016, पृष्ठ संख्या 19, अंक 284

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